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इच्छा नियंत्रण यह मानव अनादिकाल से इच्छामों की अनंत ज्वालाओं में झुलस रहा है। इच्छामोंका पन्तद्वंन्द प्रात्म-शक्ति का शोषक है वह उसे कमजोर बनाता जा रहा है। इच्छामों का परिणमन प्रति समय हो रहा है। साधक इनके जाल से उन्मुक्त होना चाहता है, वह छटपटा रहा है। पर वे असीम इच्छाएँ इसे एक समय भी चैन नहीं लेने देतीं। ऐसा मालूम होता है मानो इच्छात्रों ने उसे खरीद लिया है-अपना दास बना लिया है-इसी से उन पर विजय प्राप्त करने में वह अपनेको असमर्थ पा रहा है। इच्छाओंका अनियन्त्रण इन्द्रिय-विषयों में धकेल रहा है । साधक की इस दयनीय दशा को देख कर गुरु बोले, वत्स ! तू इतना कायर और अधीर क्यों हो रहा है। इस दीन दशा से छुटकारा पाने का उपाय क्यों नहीं सोचता । तू अनन्त चैतन्य गुणों का भंडार है, तेरी शक्ति अपरिमित है, असीम है। अपनी ज्ञाता दृष्टा शक्ति की ओर देख, पर पदार्थों से स्नेह कम कर। उनमें अहंकार ममकार न कर। इन्द्रियों के अनियन्त्रण से मन चंचल होता है मन की चचलता से मामा बहिर्मखी हो जाती है। और बाह्य जड़ पदार्थों की ओर झुकने लग जाती है।
पर साधक ! यदि तू इससे छुटकारा चाहता है और अपनी प्रात्म-निधि को पाना चाहता है। एव दुःख विनिवृत्ति से होने वाला सुख चाहता है, तो इन्द्रिय विषयों पर नियन्त्रण कर, इन्द्रियों की विषयों से विमुखता होने पर मन की चंचलता मिटेगी, प्रात्मबल जागेगा। और पात्मा अपने स्वरूप की अोर अग्रसर होने लगेगा। धीरे-धीरे पात्म-शक्ति का विकास बढ़ता जायगा, माशालता मुरझाने लगेगी। आत्मा और ज्ञान के प्रालोक से पालोकित हो उठेगा, अभिलाषामों का नियंत्रण आत्मा को कुमार्ग से रोकेगा, एक समय ऐसा प्राप्त होगा जब मोह के प्रभाव से प्राशा लता । अल जायगी। मौर मामक प्रात्मानन्द में मस्त हुमा प्रात्म-निधि का उपभोग करने वाला चैतन्य जिन बन जायगा । वह सुदिन मुझे कब प्राप्त होगा, उसी की अन्तर्भावना मुझे भव-भव में प्राप्त हो यही कामना है।
प्रवर्तक बतलाते थे, जिन सिद्धान्तों को परम्परानुसार इस प्रकार विभिन्न विद्वानों के विचारों से यह धारणा उनके पूर्ववर्ती २३ तीर्थङ्कर स्वीकार करते है।" डा० भी अनुपयुक्त प्रतीत होती है कि जैनधर्म के प्रवर्तक महासा० के विचार से महावीर किसी नये मत के संस्थापक वीर या पाश्र्वनाथ थे। पूर्वोल्लेखी से यह स्पष्ट ज्ञात नहीं थे। भागवत पुराण के आधार पर उन्होंने ऋषभ- होता है कि जैनियों के प्राराध्य देव बहुत प्राचीन कालीन देव को ही जैनधर्म का प्रवर्तक बताया है। डा. सका- है। परम्परानुसार जैन युग-युगों से उन्हें पूजते चले पा लिया ने भी लिखा है कि "ऋषभदेव का उस समय रहे हैं। प्रत्येक निष्पक्ष विद्वान् तीर्थङ्करों की प्राचीनता अस्तित्व था जब मनुष्य जंगली जानवर सा था।" के सम्बन्ध में उपरोक्त प्रमाणों के प्राधार पर यही मत तत्कालीन मनुष्यों का जीवन स्तर ऋषभदेव द्वारा ही निरूपित करेगा कि तीर्थरों की प्राचीनता न केवल पूर्व उन्नत किया गया था। सम्भवतः इसीलिए वे प्रथम वैदिक कालीन है अपितु बहुत प्राचीन समय से ही उनका तीर्थङ्कर और उपदेष्टा कहे जाते हैं।
अस्तित्व चला पा रहा है।" इन सभी प्रमाणों के माधार ६२. इण्डियन फिलासफी : जिल्द १, पृ. २२७ ।
पर यह भी स्वीकार करना होगा कि बाह्मण संस्कृति की ६३. "The Bhagavata Puran endorscs the View मपेक्षा श्रमण संस्कृति प्राचीनतर है"।
that Rishabha was the founder as Jai
nism." वही : जिल्द १, पृ. २८७। ६५. डा. भगचन्द्र जैन; बौद्ध साहित्य में जैनधर्म : मने६४. वायस पाँव महिसा: ऋषभदेव विशेषांक : १९५२ ई. कान्त-बाबू छोटेलाल स्मृति ग्रंक : पृ. ६०।