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________________ एक ऐतिहासिक एवं समीक्षात्मक अध्ययन : स्वामी समन्तभद्र की जैनदर्शन को देन डा० दरबारीलाल कोटिया एम. ए. पो-एच. डी. स्वामी ममन्तभद्र जैन दर्शन के उन इने-गिने प्राचार्यो समन्तभद्र से पूर्व का यग में है जिन्होंने जैन वाङमय की अमाधारण प्रभावना की और जैन अनुश्रुति के अनुसार जैन धर्म के प्रवर्तक क्रमशः जनदर्शन को लोगो के अधिक निकट पहुँचाया है। प्रा० काल के अन्तराल को लिए चोवीस तीर्थकर हुए हैं। इनमें कुन्दकुन्द और गृद्ध पिच्छ के पश्चात् इन्होंने जैन दर्शन को तीर्थंकर ऋषभ देव, बाईसवे अरिष्ट नेमि, तेईसवें पाचसर्वाधिक प्रभावित किया एवं शासन-प्रभावक के रूप में नाथ पोर चौवीसवे वर्द्धमान-महावीरजी तो असामान्य यश प्राप्त किया। शिलालेखो तथा मुर्धन्य ग्रन्थ- पोर लोक प्रसिद्ध भी है। इन तीर्थंकरों के द्वारा जो कारो के ग्रन्यो में इनका पर्याप्त यशोगान किया गया है। उपदेश दिया गया वह जैन परम्परा मे "द्वादशाङ्ग" के सुप्रसिद्धताकिक भट्ट अकलंक देवने इन्हे स्यावाद -नीर्थका रूप में प्रसिद्ध है। जैसे बुद्ध का उपदेश "त्रिपटिक" के प्रभावक और स्याद्वाद मार्ग का परिपालक, समस्त दर्शनो रूप में विश्रुत है। वह "द्वादशाङ्ग" श्रुत दो वर्गों में के अन्तः प्रवेशी तीक्ष्ण बुद्धि विद्यानन्द ने स्याद्वाद माग्रिणी विभक्त है-१ अङ्ग प्रविष्ट और २ अङ्ग बाह्य । ये दो वादिराजने सर्वत्र का प्रदर्शक, मलयागिरि ने पाद्यस्तुतिकार भेद प्रवक्ता विशेष के कारण है। जो श्रत तीर्थंकरों तथा तथा शिलालेखो में वीरवामन की सहस्रगुणी वृद्धि करने उनके प्रधान एव साक्षात् शिष्यों (गणधरो) द्वारा निबद्ध वाला, श्रुत केवलि सन्तानोन्नायक, समस्त विद्यानिधि एवं है वह अङ्ग प्रविष्ट है तथा जो इसके प्राधार से उत्तरवर्ती कलिकाल गणधर कहकर उल्लेखित किया है। सम्भवतः प्रवक्तायो द्वारा रचा गया वह अङ्गबाह्य श्रुत है। अङ्गइसी से शिलालेखो और साहित्य में इन्हें विशिष्ट सम्मान प्रविष्ट और अङ्गबाह्य के भी क्रमशः बारह मोर चौदह के प्रदर्शक "स्वामी' पद से विभूपित प्रकट किया गया है। भेद है । अङ्ग प्रविष्ट के बारह भेदों में एक दृष्टिवाद है भद ह । अङ्ग प्रावष्ट क बारह भदा में एक दृा अथवा “स्वामी" उनका उपनाम या नाम-विशेषण रहा जो बारहबॉ श्रुत है। इस बारहवें श्रुत में विभिन्नहो । समन्तभद्र को इतना महत्व एव गौरव मिलने का वादियों की एकान्त दृष्टियो (मान्यतामों) के निरूपण कारण यह प्रतीत होता है कि जब भारतीय दर्शनी में तथा उनकी समीक्षा के साथ उनका स्याद्वादन्याय से तत्व-निर्णय ऐकान्तिक हाने लगा और उसे उतना ही माना समन्वय किया गया है। इस तथ्य को प्राचार्य समन्तभद्र जाने लगा तथा ग्रहंत परम्परा ऋषभादि तीर्थकरो द्वारा ने "स्याद्वादिनो नाथ तवैव युक्तम्" (स्वयम्भू १४) जैसे प्रतिपादित तत्त्व व्यवस्थापक "स्याद्वाद" को भूलने लगी, पद प्रयोगों द्वारा व्यक्त किया है और सभी तीर्थंकरों को 'स्याद्वादी' (स्याद्वाद प्रतिपादक) कहा है प्रकला देव' तो इन्हीने उसे प्रकाशित एव प्रभावित किया। इन का विस्तृत परिचय, इतिहास और समयादिका १. "एषां दृष्टिशतानां त्रयाणा षष्ठपुत्तराणां प्ररुपणं निर्णय जैन साहित्य और इतिहास के प्रसिद्ध विद्वान निग्रहश्च क्रियते । -वीरसेन, पवला पु. १, पृ. १०८ स्व. पं. जुगलकिशोर मुख्तार "युगवीर" ने अपने २. (क) धर्मतीर्थकरेभ्योऽस्तु स्याद्वादिभ्यो नमोनमः । "स्वामी समन्तभद्र" नामक इतिहास ग्रन्थ में ऋषभादि महावीरान्तेभ्यः स्वात्मोपलब्धये ॥ किया है। अतः प्रस्तुत में समन्तभद्र के परिचयादि सम्बन्ध लाधीय०१-१ श्री मत्सरमगम्भीरस्यावादामोघलांछनम् । में विचार न कर केवल उनकी कतिपय उपलब्धियों पर जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ चिन्तन किया जायेगा। -प्रमाण सं० १-१।
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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