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________________ सेठ सुदर्शन ३०५ को तुड़वा दिया। अब वे अपना व्रत कसे पूरा करेंगी। राजा ने बिना कुछ विचार किये ही सेवकों को माज्ञा दी विना पूजा के वे भोजन भी नही करती हैं । अच्छा तो यही कि श्मशान में ले जाकर इसे सूली पर चढ़ा दो। है, कि अब तुम मुझे कभी नहीं रोकना, चाहे मैं कुछ ले सेवक सुदर्शन को श्मशान भूमि में ले गए। सेवकों जाऊं। इसी तरह उसने क्रम से प्रन्य छह पहरेदारों को भी ने सदर्शन पर तलवार के कई वार किये, किन्तु वे सब वश में कर लिया। प्रहार पुष्पहार में परिणत हो गए। किसी कवि ने ठीक सुदर्शन अष्टमी का उपवास कर सर्यास्त हो जानेपर ही कहा है कि पुण्यवानों का दुःख भी सुख में परिणत हो रात्रि के समय श्मशान भूमि मे प्रतिमायोग से स्थित था। जाता है। सुदर्शन अपनी सच्चरित्रता मोर प्रखड शीलव्रत उसी समय रात्रि में वह पंडिता वहाँ गई और उससे के प्रभाव स सराक्षत हा गय बोली, तुम धन्य हो जो तुम पर रानी अभया अनुरक्त हई जब यह समाचार राजा को ज्ञात हुमा तो वह भी है। तुम चलकर उसके साथ दिव्य भोगों का अनुभव दौडा चला पाया। राजा ने देखा कि सुदर्शन दिव्य सिंहाकरो। इस तरह पडिता ने अनेक मधुर वचनों द्वारा सन मे विराजमान है, और देवगण उसकी पूजा कर रहे माकृष्ट करने का प्रयत्न किया; किन्तु सदर्शन अपनी है। और प्रजा सुदर्शन की जय के नारे लगा रही है। समाधि में निश्चल रहा। लाचार हो उसने उसे अपने राजा को वस्तुस्थिति का ज्ञान करते देर न लगी। राजा कन्धे पर रख लिया और महल मे लाकर अभया के शयना ने अपने अपराध की क्षमा मागी, और सुदर्शन से कहा गार में रख दिया। तब प्रभयमती ने उसके समक्ष अनेक कि पाप नगर मे चलिए और भाषा राज्य लीजिए। प्रकार की स्त्रीसुलभ कामोद्दीपक चेष्टाये की, किन्तु वह किन्तु सुदर्शन ने कहा, श्मशान भूमि से जाते समय उसके चित्त को विचलित करने में समर्थ न हो सकी। ही मैंने यह विचार किया था कि यदि इस उपसर्ग से मेरी अन्त में निराशा और उद्विग्न होकर उसने पंडिता से रक्षा हो जायगी तो मैं पाणिपात्र मे पाहार करूंगा-दिगकहा, इसे वही ल जाकर छोड़ पायो । म्बर मुनि हो जाऊंगा। उसने सुकान्त को विधिवत पडिता ने बाहर निकल कर देखा तो प्रात.काल हो सपत्ति का स्वामित्व प्रदान कर विमलवाहन मुनि के चुका था, तब उसने कहा कि अब तो सबेरा हो चुका है। समीप दीक्षा ले ली। जब यह समाचार प्रभया को भात उसे ले जाना सभव नही है। अब क्या किया जाय। हमा तो उसने भी वृक्ष से लटक कर प्रात्महत्या कर ली। __ यह देखकर अभयमती कि कर्तव्यविमूह हो गई । अन्त दासी पडिता वहा से भाग गई। मे उसने उसे शयनागार मे कायोत्सर्ग से रखकर अपने मनि सदर्शन कठोर तपस्वी थे, उन्होने प्रात्म-साधना शरीर को अपने ही नखो से नोंच डाला और रोती हुई द्वारा स्वात्मोलब्धि को प्राप्त करने का प्रयत्न किया। चिल्ला कर कहने लगी, हाय, हाय, इस दुष्ट ने मुझ शील- उन्होंने समताभाव का प्राश्रय लिया और अनेक उपसर्ग वती के शरीर को क्षत-विक्षत कर डाला है। दोड़ो, लोगो परीषह पाने पर भी उनका मनसुमेर जरा भो न डिगा दौडो, मेरी इससे रक्षा करो। इतने में किसी ने जाकर और कर्मबन्धन का विनाश कर वे अविनाशी पद को राजा में कह दिया कि सुदर्शन ने ऐसा कार्य किया है। प्राप्त हुए। एकता हम सबको अपने हाथ को पांचों अंगुलियों की तरह रहना चाहिए। हाथ की अंगुलियां सब एक सी नहीं होती, कोई छोटी, कोई बड़ी; किन्तु जब हम हाथ से किसी वस्तु को उठाते हैं तब हमें पांचों ही अगुलियां इकट्ठी होकर सहयोग देती हैं। हैं पांच, किन्तु काम हजारों का करती हैं, उनमें एकता जो है। -विनोवा
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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