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________________ ३०४२२०६ कर सकते वह इंद्रियजयी भोजस्वी नर है। रानी सुदर्शन के रूप पर तो मोहित थी ही, प्रौर उस पर यह ताना तीर का काम कर गया। वह चट बोल पड़ी, अच्छा कभी देख लेना मेरा चातुर्य । रानी ! राजमहल में जाकर उपाय खोजने लगी। महलों पर रात और दिन कड़ा पहरा रहता था, उस पर राजा का भय खाये जा रहा था, प्रतिष्ठा भी उसे रह रह कर रोकती थी। वह अनजान पुरुष मेरे पास कैसे पहुँचे, दिनरात इसी उधेड़ घुन मे लगी रहती थी । कामवासना ने उसे अन्धा जो बना दिया था। वासना कितनी बुरी चीज है, यह सब नहीं जानते, वासना का संस्कार मानव को पतन की ओर ले जाता है, कामी लोक, लज्जा, कुल एव प्रतिष्ठा सभी को तिलाजलि दे देता है। जिस तरह मदाघ पुरुष को मार्ग नही दिखलाई देता, उसी तरह कामांध को भी सत्पथ नहीं सूझता । रानी का हृदय वासना का शिकार बन चुका था, सुदर्शन कब मिले ? इसी चिन्ता में उसका समय बीतता था । एक दिन उसने विश्वासपात्र अपनी पडता नामक धाय को एकान्त में अपने पास बुलाया, और अपने मन की सारी व्यथा उससे कही। पंडिता पाय बहुत चतुर थी, उसने पहले तो रानी को बहुत समझाया, और कहा कि ऐसा जघन्य कार्य करना तुझे उचित नही है। पर इसका रानी पर रत्ती भर असर नही हुआ । रानी बोली तू क्यों भय खाती है, मैं तुझे मुहमांगा इनाम दूँगी, तू किसी तरह भी उस पुरुष को यहां ला दे । यह कार्य तेरे बिना धन्य किसी के द्वारा संभव नहीं है। रानी ने बाप को बहुत समझाया डराया धमकाया और लालच भी दिया। पंडिताघाव लालच मे भा गई, और उसने उसे गुरुतर कार्य करने की स्वीकृति प्रदान कर दी । यह तथ्य है कि सभ्य भौर दुष्ट स्त्रियों कौन सा बुरा काम नहीं कर सकतीं। रानी ने कहा जा मेरा तेरे पर पूर्ण विश्वास है । पड़िता ने विचार किया कि राजमहल के भागे एक एक करके सात चौकियां हैं। प्रत्येक पर एक एक सिपाही पहरेदार है । पहले माने जाने का रास्ता खोलना चाहिए। एक दिन वह किसी शिल्पी के पास गई और मनुष्य अनेकान प्राकार की उसने अनेक मूर्तियां बनवाई। विशाल विभूति का स्वामी होने पर भी सुदर्शन एक धर्मात्मा श्रावक था । वह घर में भी वैरागी था, विभूति पर उसे ममता नहीं थी, वह उसे अपनी नहीं मानता था। संसार मे रहता हुआ भी उससे सदा उदासीन रहता था, वह संसार से छुटकारा पाने के प्रयत्न में सदा लगा रहता था । अष्टमी चतुर्दशी को उपवास करता था और कर्मनिर्जरा करने के लिए रात्रि में श्मशान भूमि में अष्टमी चतुर्दशी के दिन ध्यान लगाता था। इस गति-विवि को पडिता जानत थी । उसने सुदर्शन को राजमहल में ले जाने का षडयंत्र रचा । पडिला विशालकाय पौर हृष्टपुष्ट थी। शारीरिक बल मे भी वह कम नहीं थी। किसी प्रोसतन प्रादमी को वह कंधो पर बिठा कर आसानी से ले जा सकती थी । उसने मनुष्याकार की एक मूर्ति को कपड़े से ढककर तथा उसे सिर पर रख कर राजमहल की घोर आई पहली चौकी के चौकीदार ने उसे रोका और कहा, मैं किसी चीज को बिना देखे बन्दर नहीं ले जाने दूंगा । धाय ने कहा- किसी को दिखलाने की रानीजी ने सख्त मनाही कर दी है। । सिपाही बोला- मेरा जो नियम है उसे निभाना ही पड़ेगा । यह कह कर वह उस मूर्ति का कपड़ा हटा कर उसे देखने का प्रयत्न करने लगा, पडिता बलपूर्वक मागे बढ़ने लगी। इसी बाद-विवाद में पडिता ने वह मूर्ति नीचे गिरा दी और चिल्ला चिल्ला कर उच्च स्वर से कहने लगी - सिपाही तेरी मौत ही घो गई, तूने रानीजी की देवपूजा मे भयंकर विघ्न उपस्थित कर दिया है, मैं तुम्हारी शिकायत महारानी जी से करूमी वे तुम्हारी दुष्टता का फल मृत्युदण्ड दिलावेगी । इसमे तनिक भी सन्देह नहीं है। उसे सुन सिपाही पदरा गया और पंडिता के पैरों में पड कर गिडगिडाने लगा, रानी से मत कहना। मैं भव तुझे कभी भी नहीं रोकूंगा। कुछ भी लेते जाना। पडिता ने । चलते-चलते धीरे से उसके कान मे कुछ कहा, भाई ! रानी जी पुत्र कामना से कंदर्प पूजा में लगी हैं। यह बात किसी से कहने-सुनने की थोड़े ही होती है। तुमने तो उस पुतले
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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