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________________ भाग्यशाली लकड़हारा परमानन्द जैन शास्त्री कम्पिल नगर में राजा रिपुवर्द्धन राज्य कर था। अकिंचन ने कुछ सोच-विचार कर कहा । महाराज ! वह राजनीति में अत्यन्त निपुण था और सदैव प्रजा का मै इस समय तो एक ही नियम कर सकता हूँ। मेरा पुत्रवत् पालन करता था । उसी राज्य मे अकिंचन नाम का लकडी काटने का ही काम है। पर आज से मैं हरे वृक्ष एक लकड़हारा भी रहता था, दीनता के कारण वह अपने को नही कार्टगा। सूखी लकड़ी जहां से मिलेगी लाऊंगा साथियों के साथ जंगल में लकड़ियां काट कर लाता मोर और अपनी प्राजीविका चलाऊंगा। उन्हें बेचकर अपना निर्वाह करता था। एक दिन उसे साधु ने कहा, वत्स ! जामो, और नियम का दृढ़ता जंगल में सौम्य मुद्रा के घारक साधु मिले । उसने हाथ । से पालन करना। जोड़ कर साधु को प्रणाम किया। साधु ने उसे मानव जीवन की महत्ता बतलाई और उसे सत्संग मे रहने की वह प्रतिदिन अपने साथी लकड़हारों के साथ जगल प्रेरणा दी । लकडहारा बोला महाराज उपदेश सुनने और जाता और नियमपूर्वक लकड़ियां लाता, और उन्हें बेच सत्संग में रहने को जी तो बहुत चाहा करता है। परन्तु कर अपना जीवर निर्वाह करता। यह ध्यान अवश्य निर्घनतावश इस पापी पेट को भरने के लिए सुबह से रखता कि मेरे नियम पालन में प्रसावधानी न हो जाय । शाम तक प्रयत्न करना पड़ता है। इससे सत्सग का लाभ इस तरह ग्रीष्म ऋतु पूरी हो गई और वर्षा ऋतु प्रा उठाया नहीं जा सकता । सोचता तो जरूर हूँ पर उसके गई । सूखा हुमा जगल हरा-भरा हो गया। सभी वृक्षों कारण धर्म-कर्म की कोई बात नही सूझती परन्तु दरिद्रता मे नई कोपले फूट पाई। जगल मे सर्वत्र हरियाली ही का अभिशाप खाएँ जा रहा है । पाप जैसे सन्त पुरुष ही हरियाली दिखाई देने लगी। सूखी लकड़ी मिलना कठिन उससे मुक्ति दिला सकते हैं ? हो गया । बहुत दूर और बहुत परिश्रम करने पर सूखी साधु ने कहा, मानव जीवन की महानता सदगुणों के लकड़ी मिल पातीं। साथी लकड़हारे इससे परेशान थे। विकास से होती है। उसके लिए उसे धर्मानुष्ठान और एक दिन प्रयत्न करने पर भी उसे सूखी लकडिया न व्रताचरण करना आवश्यक होता है। धर्म का साधन न मिली। अतः उसके साथियों ने उसे वहीं छोड़ दिया। केवल धर्म स्थानो में ही नहीं होता, किन्तु घर मे उद्यानों भाद्रों, पाश्विन मास की कड़ी धूप और जंगल ऊबड़-खाबड और जंगलों में भी हो सकता है। धर्म त्याग और तपा- का बीहड़ रास्त, भूखापेट, सूखी लकड़िया न मिलने की नुष्ठान में है। जीवन का प्रत्येक कार्य धर्म के साथ जुड़ा परेशानी होते हुए भी अकिंचन ने हिम्मत न हारी। वह हुपा है । जहाँ मानवता, उदारता, परोपकार वृत्ति और अपने कदम आगे बढ़ाता गया। मानो वह अपनी मजिल की क्षमा प्रादि सद्गुण पल्लवित होते है, वहाँ धर्म रहता है। प्रोर ही वढ रहा हो। बहुत दूर चले जाने के बाद कही धर्म का परिणाम अभ्युदय और निःश्रेयस की प्राप्ति है। उसे सूखी लड़कियों का एक ढेर दिखाई दिया, वह उसका सम्बन्ध अन्दर की निर्मल भावना से है । यह ठीक खुशी से छलांगें भरने लगा। और यह सोचने लगा कि है कि तुझे समय कम मिलता है, पर यह भी ठीक है कि अब मुझे कई दिन तक सूखी लकड़ियां नही ढूढने पड़ेंगी। कुछ समय व्यर्थ मी गवां दिया जाता है । रात-दिन पेट की सीधा ही यहाँ चला माऊँगा, अपना गट्ठा बांध कर सीधा ही चिन्ता रहती है फिर भी जीवन की कुछ न कुछ व्रत- चला जाया करूंगा। उस दिन उसे गट्ठा लेकर पहुँचतेनियम तो कर ही सकता है । पहुँचते सूर्य अस्त हो चुका था। उसने सोच क,ल ही
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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