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________________ भाग्यशाली लकड़हारा . .. बाजार जाऊंगा। और सौदा बेचंगा, बह झट-पट अपना मागन्तुक व्यक्ति ने कहा-यह तो बावना चन्दन है, खाना पकाने बैठ गया। लाखों रुपये में भी इसका मिलना दुर्लभ है। धनदत्त सेठ ने अपने मित्रों को इसीदिन नगर के किचन ने हंसते हुए कहा-लाखों रुपये की मेरी बाहर के एक उद्यान में दावत दी। सभी मित्र बड़े पनि मित्र बड़ सम्पत्ति क्या माप एक ही रुपये में खरीद रहे थे? उत्साह से पधारे। एक मित्र को पाने में कुछ विलम्ब हो गया। जब वह उस उद्यान की भोर जा रहा था, अकिंचन ने प्रागन्तुक सज्जन को लकड़ी का एक भकिचन का घर भी बीच में प्रा गया। उसे सुरभि की टुकड़ा बिना कुछ दिए ही प्रदान किया। मौर कहा दुक मस्त गप ने अपनी मोर प्राकर्षित कर लिया, वह उससे मापने तो मुझे इसके गुण बतलाकर बहुत उपकृत किया खिंचकर अकिंचन के घर मा गया। वहां उसने लक है। अन्यथा यह मेरी बहुमूल्य सम्पदा यों ही चली जाती। ड़ियों का एक गदर देखा जिसकी गंध से उसे बड़ा प्रात: होते ही अकिंचन एक लकड़ी लेकर बाजार में पाश्चर्य हुमा था। उसने पाते ही एक रुपया अकिंचन की गया । साथियों ने उसका मजाक उड़ाया मोर व्यंग कसते पोर फेंका और कहा-इसकी एक लकड़ी मुझे दे दो। हुए कहा-हां, यह एक लकड़ी तेरा पेट अवश्य ही भर लकड़हारा बड़ा चतुर था, उसके मन में विचार पाया देगी ? अकिंचन ने किसी की एक न सुनी, वह एक बड़े कि जब एक लकडी का एक रुपया सहज ही मिल रहा सेठ की दुकान पर पहुंचा और उसने उसे बेच कर सवा है, तो अवश्य ही इस लकड़ी में कोई न कोई चमत्कार लाख रुपया ले लिये । अकिंचन के घर में अब किसी है, वह तुरन्त बोल पडा-मुझे नही वेचना है, आगन्तुक वस्तु की कमी नही थी, सांसारिक सुख के सारे प्रसाधन व्यक्ति, क्यों नहीं बेच रहा है, क्या तेरे मन में कुछ लोभ हो गए उमका विवाह भी हो गया। वह अच्छे से अच्छा समा गया है ? व्यवसाय करने लगा, दिन पर दिन धन की वृद्धि होने लकडहारा-नकड़ियां मेरी अपनी है। मैं ही अपनी लगी। उसे अपने नियम की महत्ता का मूल्य प्रतिभासित इच्छा का स्वामी हूँ, मुझे आप बेचने के लिए बाध्य नही हुआ, उसे लगा कि नियम के बिना जीवन भारस्वरूप है। कर सकते । आप यदि एक रुपया के बजाय अपना सारा वह अब सत्समागम में प्रतिदिन जाने लगा, जब उसे किसी धन ही मुझे सौप दें, तो भी मैं देने के लिए तैयार नही महापुरुष का समागम मिल जाता तो वह उसका उपदेश हूँ। यदि आपकी मेहरबानी हो तो आप इस लकड़ी के गुण सुनता और अपने जीवन की सफलता की कामना करता। अवश्य बतलाएं। आपकी बात से इतना तो मुझे स्पष्ट इस तरह उसने धर्म के अनुष्ठान में अपना सारा जीवन हो गया है कि लकड़ी बहुमूल्य है। अर्पित कर दिया। चेतन यह घर नाहीं तेरौ । घट-पटावि नैननिगोचर जो, नाटक पुदगल केरोटेका तात मात कामनि सुत बंध, करमवष को घेरौ। करि है गौन मान गति को जब, कोई नहीं प्रावत नेरौ॥१ भमत भ्रमत संसार गहन वन, कीयो पानि वसेरो। मिथ्या मोह उर्व से समझो इह सदन है मेरौ ॥२ सरगुरु वचन जोइ घट बीपक, मिट प्रलोक अंधेरौ। असंख्यात परवेश ग्यानमय, जो जानउ निज डेरौ ॥३ ताल विव्य लय त्यागि मापको, पाप प्रापहि हेरौ । मो 'मनराम' प्रचेतन परसों, सहजे होय निवेरो॥४ मनराम
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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