SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विश्वमंत्री का प्रतीक : पyषण पर्व १११ विगत भलों-गलतियों-अपराधों प्रादि के लिए क्षमा-याचना "पर विश्वासघात नहीं कीजे" इस भावना का अनुकरण करते हैं। वस्तुतः पर्युषण पर्व के मूल-माघार विश्व करना मावश्यक हैं। अतः मायाचार को त्याग सीधा वात्सल्य और विश्व-मैत्री ही हैं। इस पर्व के दश दिनों में सरल व्यवहार करने से मार्जव धर्म पलता है। एक-एक धर्म का मनन किया जाता है। प्रस्तुत निबन्ध मे उत्तम सत्य:-जहाँ मार्जव धर्म पलेगा वहाँ सत्य सक्षेपतः उन्ही दश अगो' का विवेचन किया जा रहा है : भी अवश्य पाला जावेगा। क्योंकि कपट के वशीभूत होकर उत्तम क्षमा :-इस विश्व में क्रोधाग्नि अत्यन्त प्रबल ही जीव असत्य बोलते है। सत्य के द्वारा अपना है। वही सब कुछ नष्ट कर डालती है। इस अग्नि को आत्मा पवित्र होता है। दूसरों को भी कष्ट नहीं शान्त करने के लिए अहिंसा, दयाभाव मादि धारण करना होता । माधुनिक समय में जितने धर्म प्रचलित हैं सभी में पावश्यक है। "क्षमावीरस्य भूषणम्" अर्थात् वीर पुरुष सत्य प्रमुख स्थान रखता है। हमारे राष्ट्र पिता महात्मा का प्रलंकरण क्षमा ही है। क्रोधादि भावों से प्रशुभगति का गांधीजी ने सत्य एवं अहिंसा का सूक्ष्म प्राधार लेकर ही बन्ध होता है। स्वराज्य प्राप्त किया था। व्यापार में तो सत्य परमाकिन्तु क्षमाभाव से शुभ शारीरादि प्राप्त होते है। वश्यक है। सत्य प्रात्मस्वरूप हैं, उसी से प्राप्त होता है। प्रात्मा का स्वभाव उत्तम क्षमा है। क्रोध इसे नष्ट कर इसलिए "उत्तम सत्य वरत पालीजे, पर विश्वासघात नहीं देता है। क्षमा मोक्षमार्ग में प्रत्यन्त सहायक है। कोले उत्तम मानव :-अभिमान का त्याग करना उत्तम उत्तम शौच:-प्रिय तथा अप्रिय वस्तुमों में समानता मार्दव है। मान कषाय के वशीभूत होकर ही जीव प्रात्मा का व्यवहार करना तथा लोभ रूपी मल को धोना ही के मार्दव गण को दूषित करता है। संस्कृत मे इसकी वास्तविक शोच धर्म है। इस धर्म को धारण करने से व्युत्पत्ति इस प्रकार है कि "मृदोर्भावः मादवम्" म्दुता परिणाम शुद्धि होती है ठीक ही कहा है-"लोभ पाप का कोमल जगती के सदृश है। जो जीव कोमलता युक्त है, वाप बखानो" प्रत. वह हेय है। साधुजन उत्तम शौच समझिए कि वह प्रात्मधर्म का बीजारोपण कर रहा है। धर्म को धारण करते है, परिणाम विशुद्धि तथा इन्द्रिय इस मार्दव धर्म के धारण करने से परिणाम विशुद्ध होते दमन करते हैं। उनकी पवित्रता प्रांतरिक होती है। हैं । इसमें जीव पापों से बचकर पुण्य में प्रवेश करता है। उत्तम संयम :-जीवों की रक्षा करना, तथा इंद्रियो "स्वभावमार्दवम् च" इस सूत्र में बतलाया है कि स्वतः और मन पर विजय पाना संयम है। छह कायके प्राणियो स्वभाव से कोमल परिणाम होने से मनुष्यायु का प्रास्रव की दया पालना प्राणी संयम है। मुनिगण दोनों को होता है। पालते हैं । वर्तमान में इन्द्रियो के आधीन होकर समस्त उत्तम मार्जव:-कपट कषाय के त्याग करने को समाज विषयवासना का शिकार हो रहा है। मानवता पार्जव कहते हैं । सरल भाव से ही धर्म पालन करना न करना तो इसी में है कि इंद्रियों को स्वाधीन किया जाय । हर चाहिए । कपट भाव से पाला गया धर्म कभी भी सफल तरह से सूखी एवं निर्द्वन्द, जीवन यापन के लिए संयम की नहीं होता । पार्जव धर्म पर चलने से अपने त्रियोग भी अत्यन्त प्रावश्यकता है। संयम के प्रत्यक्ष उदाहरण त्यागपवित्र होते हैं तथा दूसरे अपने व्यवहार से सुखी होते है। मूर्ति अनेक प्राचार्य और मुनिगण अब भी विद्यमान हैं। मुनिजन सदा मायाकों जीतते हैं। प्रत्येक धर्मावलम्बी को इनके जीवन से प्रत्येक को शिक्षा लेना चाहिए। उसम तप:-जीवन को उच्च स्तर पर पहुंचाने के ६. धर्म के दश प्रग इस प्रकार हैं लिए तथा मात्मा की स्वच्छता प्रगट करने के लिए तप ___ "उत्तमक्षमा, मार्दवार्जव, सत्य, शौच, संयम, तपस्त्या, म. गाऽकिञ्चन्य, ब्रह्मचर्याणि धर्मः।" ८. कविवर द्यानतराय : 'दश लक्षण धर्म पूजा', बृह-प्राचार्य उमास्वामी : 'तत्त्वार्थ सूत्र', 8.६ । ज्जिनवाणी संग्रह, पृ. ४७ ७. प्राचार्य उमास्वामी : 'तत्त्वार्थ सूत्र',६-१८ ६. वही, पृ०४८
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy