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________________ ११२ अनेकान्त धर्म प्रावश्यक है। व्रतोपवास करना, एकासन से सामायिक इस प्रकार है :करना, दुःखी पुरुष की सेवा शधृपा करना, पूजा के प्रति ब्राह्मणि-मात्मनि, चरण-रमण इति ब्रह्मचर्यम् । पादरभाव, शास्त्र स्वाध्याय प्रादि तपस्या के कई भेद प्रभेद ब्रह्मचर्य का लक्षण निम्न प्रकार कहा गया है है:हैं। सिर्फ भूखे रहना, धूप में बैठना प्रादि तप नही कहे जा कायेन, मनसा, वाचा, सर्वावस्थासु सर्वथा। सकते है किन्तु कषाय' को शात करके प्रत्मा-शुद्धि करना सर्वत्र मैथुनं त्यागो, ब्रह्मचर्य प्रचक्षते ॥ ही श्रेष्टतप है। कर्मों की प्रविपाक-निर्जरा"तप से ही होती त्रियोग से सर्वदा और सर्वत्र मैथुन त्याग को ब्रह्मचर्य है। त्रिकाल सामायिक करना भी एक प्रकार का तप है। कहते हैं। तथा ब्रह्मचर्य परं तीर्थ, पालनीयं प्रयत्नतः"उत्तम त्याग:-परद्रव्य से ममत्व भाव दूर करना त्याग ब्रह्मचर्य उत्कृष्ट तप है, इसे अवश्य पालना चाहिए। धर्म है त्याग धर्म में चार प्रकार का दान वर्णित है। मनष्य की काम-भोग की लालसा को पहले सीमित ___ दान से महान पुण्यबन्ध होता है । मुनिगण हमेशा करने तथा क्रमशः पूर्ण परित्याग करने का वैज्ञानिक प्रावप्राणी गात्र की रक्षा से ज्ञानदान देते है। धन की तीन धान जैनधर्म में उपलब्ध होता है। अवस्थाएँ वणित है १-भोग, २-दान, ३-क्षय। भोग तो मैथन का अभिप्राय केवल शारीरिक भोग से ही नही सभी भोगते हैं किन्तु बुद्धिमान मनुष्य उपभोग करते हुए है, प्रत्युत उस प्रकार की चर्चाएँ करना और मन मे उस दान मार्ग में प्रवृत्त होते है। कुछ जन ऐसे रहते है कि प्रकार के विचारों का पाना भी "मैथुन" में शामिल है। वे न तो भोग में और न दान मे ही देते है। ऐसों के सयम को मन से सरलतापूर्वक नियंत्रित किया जा धन की तीसरी गति क्षय ही निश्चित है। सकता है। यही मानसिक संयम ब्रह्मचर्य की ओर अग्रसर उत्तम प्राकिन्चन्य :-संसार के समस्त पदार्थो से कराता है । वस्तुत: पांचों इन्द्रियों के विषयों से निवृति मोह छोडना आकिन्चन्य धर्म कहते है। अपनी आत्मा के का नाम ही 'ब्रह्मचर्य' है। सिवाय संसार में कोई भी पदार्थ अपना नहीं है। मित्र, भारत वर्ष में पर्व प्रेरणा स्रोत तो होते ही है, चित्त. पिता, पुत्र, माता, स्त्री, धन प्रादि जिन वस्तुप्रो को मोह से हमने अपनाया है, वे सब अपनी नहीं है। यहाँ तक कि शुद्धि के भी अनुपम साधन होते है। क्योंकि जब तक यह शरीर भी अपना साथ नहीं देता। तीर्थकरों ने वस्तु चित्त शुद्ध न होगा, तब तक विकास और उत्कर्ष असभव के स्वभाव को धर्म बतलाया है, और धर्म वही है, जो होगा। इस सन्दर्भ में प्राचार्य योगीद्र देव के विचार बहुत प्रात्मानुकूल हो। यह धर्म प्रात्मस्वभाव का द्योतक है। महत्वपूर्ण तो हैं ही, प्रेरणा स्रोत भी है : उत्तम ब्रह्मचर्य :-प्रात्मा में रमण करने को ब्रह्मचर्य । "जहिं भावइ तहिं जाहि, जिन जं भावइ करित जि ! कहते है । प्रात्मा में प्रात्मा का रमण तभी हो सकता है, केम्वइ मोक्खु ण अत्थि पर चित्तइ सुद्धि ण ज जि ॥" जब उचित्त वृत्ति निर्लिप्त हो । संस्कृत मे इसकी व्युत्पत्ति [हे प्राणिन् ! जहाँ तुम्हारी इच्छा हो जायो और १०. कषन्ति=घ्नन्ति इति कषायाः । जो आत्मा के शुद्ध जो इच्छा हो वह कार्य करो, किन्तु चित्त-शुद्धि पर ध्यान भावो की हिसा करे, उनको मैला कर दे । मूलतः दो। क्योंकि जब तक चित्त शुद्ध न होगा तब तक किसी वे चार है : क्रोध, मान, माया, लोभ । इनमें से भी प्रकार अपना चरम उत्कर्ष (मोक्ष) नहीं प्राप्त कर प्रत्येक के भी चार-चार भेद होते हैं। सकते हो। ११. कर्मों का अपने नियत विपाक समय के पूर्व तप आदि इस प्रकार संक्षेप में कह सकते है कि विश्व वात्सल्य के द्वारा व अन्य कारणों से उदय की प्रावलि में और विश्व बन्धुत्व का यह महापर्व हिंसा के विरुद्ध सम्पूर्ण लाकर बिना फल भोगे या फल भोगकर खिरा देना। जैन समाज का सामूहिक अभियान है। इस प्रकार के विस्तार के लिए देखिए अभियानों से विश्व-मैत्री और विश्व-शान्ति सहज ही प्राचार्य पूज्यपाद : सर्वार्थ सिद्धि, ८.३ । सम्भव है।
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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