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________________ गणस्थान, एक परिचय मुनि श्री सुमेरमल जी जैन दर्शन माध्यात्मवाद पर टिका हुआ है। वह आत्म- फिर भी चौदहवां गुणस्थान सकर्मा है । भकर्मावस्था एक सत्ता को ही परम सत्य मान कर चला है। प्रात्म-शक्ति मात्र निर्वाण ही है । निर्वाण को हम मंजिल का रूप का विकास ही जैन साधना पद्धति का फलित है। प्रात्म तो गुणस्थान को उस तक पहुँचने के लिए पमोडियां कह शक्ति की विकसित तथा अल्प विकसित रूप अवस्था को सकते है । जो जितनी पोडियां चढा वह निर्वाण (मंजिल) ही जैन दर्शन ने गुणस्थान के रूप मे बतलाया है। क्रमशः के उतना ही नजदीक पहुँच गया। प्रस्तुत निबन्ध में चौदह प्रात्म विकास की ओर बढ़ना ही गुणस्थान रोहण कह- गुणस्थानो की सक्षिप्त मीमांसा की गई है। लाता है। विश्व में ऐसा कोई प्राणी नही जो सर्वथा चौवह गुणस्थानों के नामअविकसित हो, कुछ न कुछ विकास की किरपा हर प्रात्मा १. मिथ्यात्वीगुणस्थान । में विद्यमान है। फिर चाहे वह एकेन्द्रिय है या अभव्य है। २. सास्वादन सम्यक्दृष्टि गुणस्थान । इन्द्रिय सत्ता सब संसारी मे है। गुणस्थान का प्रारम्भ भी ३. मिथ गुणस्थान। वही से होता है । शरीरधारी जीवो मे ऐसा कोई भी नहीं ४. अविरति सम्यक दृष्टि गुणस्थान । है जो गुणस्थान से बाहर हो । प्रव्यवहार राशि के जीव ५. देशव्रती श्रावक गुणस्थान । भी प्रथम गुणस्थानवर्ती है । अल्प नही अत्यल्प ही सही ६. प्रमत्त संयति गुणस्थान । क्षयोपशम की मात्रा तो उनमे भी है । वह क्षयोपशम ७. अप्रमतसंयति गुणस्थान । ही गुणस्थान है गुणस्थान की परिभाषा भी हमे यही ८. निवृत्तबादर गुणस्थान । बतलाती है-गुणनामस्थान-गुणस्थानम् । गुणों के स्थान ६. अनिवृत्त बादर गुणस्थान । को गुणस्थान कहा जाता है। निष्कर्ष की भाषा मे १०. सूक्ष्म संपराय चारित्र गुणस्थान । गुणो को ही गुणस्थान कहा जाता है। प्रात्म-विकास की ११. उपशांत मोह गुणस्थान । भूमिका का ही पर्यायवाची नाम गुणस्थान है। १२. क्षीण मोह गुणस्थान । प्रात्म' विकास की भूमिकाएं चौदह है। कुछ भूमि- १३. सयोगी केवली गुणस्थान । बाएं दर्शन से सम्बन्धित है, कुछ चारित्र से और कुछ १४. अयोगी केवली गुणस्थान । भूमिकाएँ भी निर्जरण तथा योग निरोध सापेक्ष है। इस प्रकार प्रत्यल्प विकास की प्रगति करता हुप्रा प्राणी पूर्ण प्रथम गुणस्थान - विकास की अवस्था को प्राप्त करता है। प्रात्मस्वरूप के मात्मा के न्यूनतम विकास में रहने वाले प्राणी प्रथम पूर्ण विकास का नाम ही निर्वाण है। बन्धन विमक्ति है। गुण स्थानवती हुमा करते हैं । यह गुणस्थान वैसे दर्शन से यह गुणस्थान से कार की अवस्था है । गुणस्थानो मे कुछ न सम्बन्धित है, जब तक मिथ्या दर्शन के दश बोलों में से । एक भी बोल यदि विपरीत समझता है, तब तक उसमें कुछ बन्धन जरूर है । चाहे समाप्त प्राय भी क्यों न हो? चौदहवे गुणस्थान में प्रवशिष्ट चारकर्म विलीन प्रायः हैं . पहला गुणस्थान है। यह तो व्यवहारकी बात हुई, निश्चयमें जब तक अनन्तानु १. विसोहिमग्गणपडउच्च चउद्दसगुण ठाणापन्न-बंधी क्रोध मान,माया-लोभ, मिथ्यात्व मोहनीय मिश्रमोहनीय तास०१४। सम्यक्त्व मोहनीय, इन सात प्रकृत्तियों का उपशम, अयोप
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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