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________________ भनेकान्त शम या क्षायिक नहीं हो जाता तब तक कोई जीव पहला नुबन्धी कषाय चतुष्क में से एक' का भी मनन्तानुबन्धा गुणस्थान नहीं छोड़ सकता। इन प्रकृतियों के उदय भाव उदय हो गया तो प्राणी सम्यक्त्व से निश्चित गिरेगा। में अन्य प्रकृतियों की क्षयोपशमावस्था प्रथम गुणस्थान है। सम्यक्त्व के मूल गुणस्थान से तो वह गिर चुका, मिथ्याकाल की अपेक्षा से इसमें चार में से तीन विकल्प पाते हैं त्वतक पहुँचा नहीं, उस बीच की अवस्था का नाम है -अनादि अनन्त प्रभव्य की अपेक्षा से अनादिशांत सास्वादन सम्यक्त्व'गणस्थान। इसका उत्कृष्ट कालमान भव्य की अपेक्षा से सादि शान्त प्रति पाति सम्यक्त्वा है छ: पावलिका मात्र, उदाहरणतः जैसे-किसी ने खीर की अपेक्षा से सादि अनन्त यह विकल्प इसमें नहीं पाता का भोजन किया और तत्काल किसी कारणवश उसे वमन है। पहले गुणस्थान की प्रादि तभी होती है, जब सम्यक्त्व हो गई. जमीन हो गई, उसमें खीर तो वापिस निकल गई, किन्तु कुछ से कोई गिर कर पहले गुणस्थान में पाए । भोर सम्यक्त्व प्रास्वादन प्रवशिष्ट कुछ समय के लिए जरूर रहता है। प्राप्ति जिसे होती है वह निश्चित मोक्षगामी हपा करता। बाद में वह भी समाप्त हो जाता है। इसी प्रकार है। प्रतः पहले गुणस्थान में प्राकर वह पुनः गुणस्थानारूढ़ सम्यक्त्व का तो वमन हो गया है। किन्तु उज्ज्वलता प्रव होता है। इसलिए पहले गुणस्थान की जहां प्रादि हो गई भी शेष है, प्रतः द्वितीय गणस्थानवर्ती बताया गया। प्रश्न वहाँ उसका अन्त अवश्यम्भावी है। -सास्वादन सम्यक्त्वी से प्रात्मा को क्या लाभ ? अगर कर्म प्रकृतियों का बन्धन - कोई लाभ नहीं है तो फिर प्रथम गुणस्थानवर्ती ही क्यों बन्धनाईकर्म प्रकृतियों का बन्धन सिर्फ तीन प्रकृतियों नहीं मान लिया गया ? उत्तर-गुणस्थानों का क्रम को छोड़कर शेष सभी प्रकृतियों का बन्धन पहले गुणस्थान प्रात्म अवस्था के साथ जुड़ा हुआ है। लाभ या नुकसान में होता है, जिन तीन प्रकृतियों का बन्धन पहले गुण- यह उसका गौण पक्ष है । सास्वादन सम्यक्त्व से तो कई स्थान में नहीं होता उसके नाम हैं ? तीर्थकर नाम कर्म, लाभ हैं। किन्तु अगर लाभ न भी हो फिर भी यह पाहारक शरीर पाहारक अंगोपांग नाम कर्म । उदय एक सच्चाई है, इसे कैसे नकारा जा सकता है। प्रात्मप्रायोग्य कर्म प्रकृतियों में पांच को छोड़कर शेष सभी पहले स्वरूप मिथ्यात्व में परिणत नहीं हुआ तब तक उसे गणस्थान में उदय पाती हैं। अनुदयशील पाँच प्रकृतियों मिथ्यात्वी कैसे कह सकते हैं। उसे सम्यक्त्वी ही मानना के नाम हैं-(१) मिश्रमोहनीय, (२) सम्यक्त्व मोहनीय, पडेगा, चाहे दो क्षण के लिए भी क्यों न हो। (३) माहारक शरीर, (४) माहारक अंगोपांग नामकर्म, (५) तीर्थकर नामकर्म इन पाँचों में से मिश्रमोहनीय का कर्म बन्धन के बारे में जब हम सोचते हैं तो इस उदय सिर्फ तीसरे गुणस्थान में होता है, अन्य किसी गुण गुणस्थान से लाभ निश्चित नजर माता है। प्रथम गुणस्थान में नहीं होता । सम्यक्त्व मोहनीय का उदय क्षयोप स्थान में बन्धने वाली कर्म प्रकृतियों में से सोलह कर्म शम सम्यक्त्व में रहता है। माहारक द्विक का उदय छठे प्रकृतियों का बन्ध, इस गुणस्थान में नहीं होता। वे और सातवें गुणस्थानवी माहारक लब्धिवाले संयति में प्रकृतियाँ हैं-(१) नर्कगति, (२) नरकायु, (३) नरही हो सकता है। अन्यत्र नहीं। तीर्थकर नाम कर्म का कानुपूर्वी, (४) एकेन्द्रिय, (५) द्वीन्द्रिय, (६) त्रिइन्द्रिय, उदय तीर्थकर के जन्म काल में होता है। द्रव्य तीथंकरों (७) चतुरिंद्रिय, (८) स्थावर नाम कर्म,(8) सूक्ष्मनाम कर्म, में भी गुणस्थान कम से कम चौथा पाता है। (१०) अपर्याप्त नाम कर्म, (११) साधारण नाम कर्म, इतरा सास्वादन सम्यक दृष्टि गुणस्थान (१२) प्राताप नाम कम, (१३) मन्तिम संस्थान नाम यह प्रतिपाती सम्यक्त्व की एक अवस्था है। अनन्ता२.अभव्याश्रित मिथ्यात्वे, मनाचनन्ता स्थितिर्भवेत् । ३. एक स्मिन्नु दिते मध्याच्छान्तानन्तानुबंधिनाम् गुण। • साव्याश्रितामिथ्यात्वेनादिशांता पुनर्मता- गु५० ४. समयादावनी षटकं. यापन्निध्यात्व भतलम। कमारोह। नासादयति जीवोयं, तावत्सास्वादनो भवेत्-१२गण. लाभ
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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