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गुणस्थान, एक परिचय
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कर्म, (१४) मन्तिम संहनननामकर्म, (१५) स्त्री वेद, निर्णय कर लेती है, निर्णय के साथ ही चतुर्थ गुणस्थान (१६) नपुंसक वेद । कुछ प्राचार्य इससे भी ज्यादा कर्म मा जाता है यह फिर पहले गुणस्थान में पहुँच जाता है। प्रकृतियों के बन्धन का प्रभाव मानते हैं। क्या यह लाभ इस गणस्थान में संस्थान सहनन चारों गतियों का पायुष्य कम है? इसके अलावा प्रथम गुणस्थान से दूसरे गुण- अनुवर्ती भादि कई प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है। कई स्थान में क्षयोपशम के बोल चार नये पाते हैं। कुल प्राचार्य इसमें चुहत्तर कर्म प्रकृतियों का बन्ध मानते हैं। मिलाकर दूसरे गुणस्थान की स्थिति लाभप्रद है, किन्तु कई इससे भी कम प्रकृतियों का बन्ध होना स्वीकार है स्वल्पकाल स्थायी।
करते हैं। तीसरा मित्रगुणस्थान
चौषा अविरति सम्पदृष्टि गुणस्थानइसे नाम से ही पहिचाना जा सकता है । जिस यह गुणस्थान प्रात्माकी सम्यक्त्वावस्था का है । जब अवस्था में न सम्यक्त्व के भावपूर्ण हैं, और न मिथ्यात्व मात्मा कर्मों से कुछ हल्की होती है, कुछ न्यून प्रर्ष पुद्गल का पूरा अन्धकार है उस पात्म अवस्था को मिश्र गुण- परावर्तन में मोक्ष जाने की स्थिति बन जाती है। जैन स्थान कहते हैं। प्राचार्य रत्लशेखरसूरी ने गुणस्थान दर्शन में सम्यक्त्व का बहुत बड़ा महत्व है। क्रिया की क्रमारोह नामक ग्रन्थ में इस गुणस्थान के लिए बतलाया पूर्ण सफलता सम्यक दर्शन युक्त ही मानी गई है । सम्यक् है, जैसे घोड़ी और गधे के संयोग से एक तीसरी जाति दर्शन के प्रभाव में की जाने वाली धार्मिक क्रिया न्यून पैदा हो जाती है खच्चर की। दही और गुढ़ मिलाने फल देने वाली ही सिद्ध होती है। तामली तापस के से एक अन्य स्वभाव वाली रसायन बन जाती है, इसी प्रकरण में टीकाकारों ने कहा है-इतनी तपस्या इन प्रकार मिथ्यात्व'और सम्यक्त्व के मिल जाने से एक परिणामों से अगर सम्यक्त्वी करता है तो एक नहीं सात तीसरा ही रूप निखर पाता है, इसे मित्र गुणस्थान प्राणी मोक्ष चले जाते । किन्तु तामली तापस एकाभवकहते हैं।
तारी (एक भववाद मोक्षगामी) ही बन सके । सम्यक्त्व बह गुणस्थान अमर है
का महत्व इस घटना से स्वतः सिद्ध हो जाता है। पूर्ण संदिग्ध अवस्था में होने के कारण यह गुणस्थान अध्यात्म में सम्यक् दर्शन की उपादेयता असंदिग्ध है। है। इस गुणस्थान में न पायुष्य का बन्धन होता है, और क्रिया चाहे कितनी ही शुभ है शरीर के साथ अवश्य ही न मायुष्य पूर्ण । इसीलिए यह गुणस्थान अमर कहलाता छटने वाली है, किन्तु सम्यक्त्व मुक्त अवस्था में भी है इस गणस्थान का कालमान मन्तर मुहूतं मात्र माना विद्यमान है। क्रिया प्रात्मस्वरूप प्राप्त करने में साधन जाता है। इस अन्तरमुहूर्त में मात्मा सम्यक्त्व के काफी मात्रा
काफी मात्र बन सकती है, किन्तु पात्म स्वरूप नहीं है। सम्य
मक नजदीक पढेच कर भी सम्यक्त्व दर्शन अवस्था को नहीं क्त्व स्वयं मारमावस्था है। पा सकता। मिथ्यात्व के दस बोलों में से नौ को सम्यक् परिभाषा समझ लिया। सिर्फ एक में सन्देह है, जब तक संशय है देवगह और धर्म पर यथार्थ श्रद्धा का नाम सम्यक्त्व तब तक मिश्रगुणस्थान है, मात्मा बहुत जल्दी उसका है। तत्व के प्रति यथार्थ श्रद्धा का होना सम्यक्त्व का ही ५. जात्यान्तर समुद्भूति वंड़वाखरयोर्यथा । गडदनोः फालत ह । सम्यक्त्व के अभाव में यथाथ बया का मी समायोगे, रसभेदान्तरयथा-१४ । गुण.
प्रभाव रहता है। नौ तत्व और पट् द्रव्य की यथार्थ ६. मिश्रकर्मोदयाज्जीवे, सम्पमिथ्यात्वमिश्रितः । ८. भगवती टीका। यो भावोन्त-महतं स्यातन्मित्रस्थानमुच्यते-१३ । ६.मरिहंतो महादेवो, जावज्जीवं सुसाहणो गुरुणो।
जिणपणतं तत्तं, इय सम्मतं मयेगहियं । म. ७. पायुर्वघ्नाति नो जीवो, मिश्रस्थोप्रियतेन वा। १०. तत्त सद्दहाणं सम्मत्तं । पंचा० । १
सदृष्टिा कुदृष्टिा , भूत्वामरणमश्नुते-१६ । गुण. म. प्र. कोशिक
गुण.