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________________ ग्वालियर के कुछ काष्ठासंघी भट्टारक परमानन्द शास्त्री श्रमण संस्कृति युगादि देव (आदिनाथ) के समय से भट्टारक बराबर प्रेम से रहे है ।। दोनो के द्वारा प्रतिष्ठालेकर अन्तिम तीर्थंकर महावीर के परिनिर्वाण काल पित अनेक मूर्तियाँ मन्दिरों में विराजमान हैं। उन सब पश्चात् तक अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित रही है । और भट्टारको मे भट्टारक गुणकीति अपने समय के विशिष्ट उनके निर्वाण के बाद अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के समय विद्वान, तपस्वी और प्रभावक थे। उनके निर्मल चरित्र द्वादश वर्षीय भिक्षके कारण वह दिगम्बर श्वेताम्बर रूप और व्यक्तित्व का प्रभाव तोमर वंश के क्षत्रीय शासकों दो घाराप्रो में विभक्त हो गई। उक्त दोनों घारागों में भी पर अप्रतिहत रूप में पड़ा, जिससे वे स्वय जैनधर्म के प्रति परवर्ती कालों में अनेक अवान्तर सध और गण-गच्छों का निष्ठावान हुए। उनके तपश्चरण के प्रभाव से राज्य में माविर्भाव हुआ। इसका कारण दुभिक्ष के समय की सक्रान्ति और विरोध जैसे विकार पास मे भी नही फटक विकट परिस्थिति, विचार विभिन्नता और संकीर्ण मनो- सके। राजा गण अपने राज्य का संचालन स्वतन्त्रता वृत्ति हैं। संकुचित मनोवृत्ति से प्रात्म परिणति में अनु- और विवेक से करते रहे। राज्यकीय विपम समस्याओं दारता रहती है। संकीर्ण दायरे में अनेकान्त की सर्वोदयी का समाधान भी होता रहा। अपनी प्रजा का पालन समुदार भावना तिरोहित हो जाती है। इससे वह करते हुए राज्य वृद्धि मे सहायक हुए। जनता स्वतंत्रता परस्पर में सौहार्द को उत्पन्न नहीं होने देती प्रत्युत से अपने-अपने धर्म का पालन करती हुई सासारिक सुखकटुता को जन्म देती रहती है। दोनो ही परम्पराग्रो मे शान्ति का उपभोग करती थी। अनेक वरिष्ठ श्रेप्टि जन मत विभिन्नतादि कारणो से विभिन्न गण-गच्छ उत्पन्न राज्य के प्रामात्य और कोषाध्यक्ष जैसे उच्च पदो पर होते रहे हैं। और २४ सौ वर्षों के दीर्घ काल मे भी प्रतिष्ठित रहते हुए निरंतर राज्य की अभिवृद्धि और गण-गच्छों की विभिन्नता मे कोई प्रतर नही पा पाया है। अमन में सहायक हुए। उस समय के ग्वालियर राज्य को शिलाभेद के समान इन संघों की विभिन्नता परस्पर मे परिस्थिति का सुन्दर वर्णन कविवर रइधू ने पार्श्व नाथ अभिन्नता में परिणत नही हो सकी। यदि गण-गच्छादि चरित्र मे किया है। उससे उम समय की सुखद स्थिति के सम्बन्ध मे अन्वेषण किया जाय तो एक बड़े ग्रथ का का खासा आभास हो जाता है। निर्माण किया जा सकता है। यहाँ उन भट्टारको का जिनके नाम का उब्लेख कवियहाँ ग्वालियर के काष्ठा संघ के कुछ भट्टारकों का वर रइधू के प्रथों और मूर्ति लेखो में उपलब्ध होता परिचय दिया जाता है। है उनका सक्षिप्त परिचय देना ही इस लेख का प्रमुख ग्वालियर प्राचीन काल से दि० जैन संस्कृति का किया। केन्द्र रहा है। यहाँ के दिगम्बर जैन मन्दिरों में ११वी शताब्दी तक की धातु मूर्तिया उपलब्ध होती है । यहाँ १ भट्टारक वेवसेन-काष्ठामघ, माथुरान्वय, बालाकाष्ठा संघी भट्टारको की बडी गद्दी रही है जिनके द्वारा कारगण सरस्वती गच्छ के विद्वान भट्टारक उद्धरसेन के वहां आस-पास के प्रदेशो मे जैन धर्म और जैन संस्कृति पटधर एव तपस्वी थे। वे मिथ्यात्वरूप अधकार के का प्रसार हुआ है। अनेक विद्वान और भट्टारको द्वारा विनाशक, पागम और अर्थ के धारक तथा तप के निलय ग्रंथों की रचना हुई है। यहाँ मूलसंघी और काष्ठा सघी और विद्वानो मे तिलक स्वरूप थे। इन्द्रिय रूपी भजंगों
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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