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________________ अंतरिक्ष पार्श्वनाथ विन ति सरोवर-वात्सल्य, ११. समुद्र-पूर्णज्ञान, १२. सिंहासन- प्रातिहार्यों के ऊपर जो माठ बीजाक्षर उत्कीर्ण है राज्याधिकार, १३. देव विमान देवो द्वारा सेवा, १४. उसका सकारण और सक्रम विवेचन कदाचित् उपलब्ध नागभवन-नागकुमार जाति के देवो द्वारा सेवा, १५. रत्न- नहीं। इनमे से तीसरा 'पों' सभी भारतीय धर्मों में मान्य समूह-गुणसमूह, १६. जाज्वल्यमान अग्नि-कर्मदाह । है। जैनवर्म में यह पाँच परमेष्ठियों प्रर्हन्त, अशरीरी श्वेताम्बर जैन मान्यता के अनुसार माता सोलह नहीं, (सिद्ध), प्राचार्य, उपाध्याय, मुनि (सर्वसाधु) के प्रथम चौदह स्वप्न देखती है। प्रथम तीर्थकर के ज्येष्ठ पुत्र अक्षरों की सन्धि से बना माना गया है। यहाँ का पांचा भरत चक्रवर्ती और सम्राट चन्द्रगुप्त (मौर्य) द्वारा भी बीजाक्षर 'णमो' है, जिसका अर्थ है नमस्कार । जैनधर्म सोलह-सोलह स्वप्न देखे गये थे, यद्यपि वे भिन्न-भिन्न थे। के आदिमन्त्र 'णमोकार' का प्रथम शब्द भी ‘णमो' है; इन स्वप्नो और उक्त जाली के ऊपर अप्ट प्रातिहार्य इसलिए यह बीजाक्षर सपूर्ण णमोकारमंत्र का प्रतीक उत्कीर्ण है। तीर्थकर की ऐश्वर्य सूचक विशेषताएं प्राति- मालूम पड़ता है। हार्य । वे ये है : सिहासन, अशोक वृक्ष, छत्रत्रय, प्रभामण्डल, दिव्य ध्वनि, पुष्पवृष्टि, चमर, देवदुन्दुभि । इस इस संक्षिप्त विवरण से भी स्पष्ट है कि यह द्वार द्वार पर उत्कीर्ण प्रातिहार्यों का क्रम (अशुद्ध) यह है : अपनी शैली और कला मे अनुपम है। भारतीय प्रतीकों दिव्य ध्वनि, अशोक वृक्ष, छत्रत्रय, सिहासन, पुष्पवृष्टि, का अध्ययन इस द्वार के सन्दर्भ के बिना अपूर्ण ही चमर, प्रभामण्डल, देवदुन्दुभि । रहेगा। अंतरोक्ष पार्श्वनाथ विनंती नेमचन्द धन्नूसा जैन श्रुत पचमी के दिन उपेक्षित कई हस्त लिखित पोथी था इस लिए इसका नाम (लेड-न-पास) 'लेडनपास' ऐसा मे से एक गुटका हाथ लगा। सहज ही धूल झटकते हुए रखा गया। इस तीर्थ की वंदना से क्या क्या लाभ होते उसको खोला तो पृष्ठ ८० पर लिखा हुअा बांचा-'इति है यह अत में बताया है। अतरिक्ष पार्श्वनाथ विनती समाप्त ।।' यह बाच कर जो शिरपुर के अतरिक्ष पार्श्वनाथ प्रतिमा का और इस हर्प हुआ, लिख नही सकता। न मालूम ऐसी कितनी तीर्थ का कोई सम्बन्ध नही है तो भी अंतिम पुष्पिका सामग्री अभी अप्रकाशित है। यह एक ऐसी सामग्री है वाक्य मे 'अंतरिक्ष' शब्द का प्रयोग क्यों ? इसपर विद्वानों जिसमें कुमुदचन्द्र जी ने बताया है कि डभोई नगर के को विचार करना चाहिए। साथ ही उस काल सम्बन्धी पार्श्वनाथ की प्रतिमा सागरदत बनजारा के स्वप्नो में माहित्य और इतिवृत्त का भी अनुसंधान पावश्यक आई। यह प्रतिमा वालुकामय थी। और डाली थी एक है। क्या यह लेडन पास की प्रतिमा कभी अतरिक्ष जलकूप में। ऊपर निकालने का मार्ग बतलाया गया था थी? इसका समाधानहोना चाहिए और इस प्रतिमा कि-कच्चे सूत को कूप में छोड़ना उसमे बैठ कर प्रभू जी को स्थापन करने वाले सागरदत्त वनजारा का स्थल ऊपर आए, जयजयकार हुमा । अनेक मंगल वाद्य के साथ काल का पता चलना चाहिए। डभोई क्षेत्र में इस वनजारा ने हाथ पर उस प्रतिमा को ले जाकर डभोई बाबत इससे अधिक इतिहास विदित हो तो उसे प्रकाश में नगर में स्थापन किया। इस प्रतिमा का भार कुछ नहीं लाना चाहिए । अस्तु ।
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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