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एक प्रतीकांकित द्वार
गोपीलाल अमर एम. ए.
मन्दिरों के प्रवेशद्वार पर अलकरण की परंपरा प्राचीन है । देव देवियों और तीर्थकरों की मूर्तियां भी प्रवेश द्वार पर उत्कीर्ण होती रहीं । कुछ प्रतीक भी उन पर स्थान पाते रहे । पर एक ऐसा भी प्रवेशद्वार है जिस पर ५६ प्रतीक, ८ बीजाक्षर और दो अभिलेख समूहबद्ध और शास्त्रीय रूप में उत्कीर्ण है ।
सागर ( म०प्र०) के चकराघाट मुहल्ले में 'बुघूब्या का दिगम्बर जैन मन्दिर' है । इस आधुनिक मन्दिर के दूसरे खण्ड पर १६३५ ई० मे यहाँ प्रसिद्ध दानवीर सिंघई रेवाराम ने एक वेदी स्थापित करायी जिस पर आठवें तीर्थकर चन्द्रप्रभ की सफेद संगमर्मर की मूर्ति स्थापित है ।
यह वेदी जिस गर्भगृह में है उसके प्रवेशद्वार ने आधुनिक होकर भी प्राचीन भारतीय कला की बेशकीमत विरासत सहेज रखी है । ५ फु० ७ इ० ऊंचा श्रौर ४ फु० १ इं० चौड़ा यह द्वार देशी पत्थर का बना है । उस पर बार्निश कर दिया गया है द्वार को जालीदार शटर से बंद किया जाता है ।
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द्वार की आधार शिला पर एक पंक्ति का अभिलेख तर्जनी दिखाता हुआ हाथ 'सिंघई उमराव श्रात्मज निरवाण सवत् २४६२
। इसके प्रादि और अत में अंकित है। अभिलेख के शब्द है बुद्धू लाल तत पुत्र रेवाराम वीर विक्रम संवत् १६६२ सन् १९३५' ।
बायें पक्ष पर ऊपर से नीचे, पहले से बारहवे तक और दायें पक्ष पर ऊपर से नीचे, तेरहवे से चौबीसवें तक तीर्थकर चिह्न उत्कीर्ण हैं। जन्मकाल में तीर्थंकर के दाये चरण के प्रगृठे पर जो चिह्न होता है उसी से उनकी मूर्ति की पहचान की जाती है । एक अन्य मान्यता के अनुसार जो व्यावहारिक भी है, तीर्थकर की ध्वजा पर जो चिह्न होता है उसी से उनकी मूर्ति भी पहिचानी जाती है। इन चिह्नों की परंपरागत सूचियों में कुछ अन्तर मिलता
है। यहां जो चिह्न उत्कीर्ण हैं वे सम्बद्ध तीर्थकर के साथ ये है : १. बैल - श्रादिनाथ, २. हाथी- अजित, ३. घोडासभव, ४. बंदर अभिनन्दन, ५. चकवा-सुमति, ६. कमलपद्मप्रभ, ७. स्वस्तिक- सुपार्श्व ८ चन्द्र-चन्द्रप्रभ, ६. मगरपुष्पदन्त, १०. कल्पवृक्ष - शीतल, ११. गेड़ा- श्रेयांस, १२. भैसा-वासुपूज्य, १३. सुनर-विमल, १४. भालू- अनन्त, १५. वज्र-धर्म, १६. हिरन - शान्ति, १७. बकरा- कुन्थु, १८. मछली परिह, १६. घड़ा-मल्लि, २०. कछवा मुनिसुव्रत, २१. नीलकमल नमि, २२. शख-नेमि, २३. सर्प-पावं, २४. सिंह- महावीर ।
ऊपर, तोरण पर अष्ट मंगल द्रव्य-उत्कीर्ण है : भृंगार कलश, व्यजन, स्वस्तिक, ध्वज, छत्र, चमर, दर्पण | शास्त्रीय दृष्टि से यह क्रम होना चाहिए था : भृगार, कलश, दर्पण, व्यजन, ध्वज, चमर, छत्र, स्वस्तिक । तीर्थकर के समवशरण की गन्धकुटी के प्रथम द्वार पर ये आठ मंगल द्रव्य शोभित होते है ।
इनके ऊपर एक पत्थर की जाली है जिसके मध्य मे एक श्रभिलिखित शिलाजड़ी है। उसके दो पक्तियो के अभिलेख के शब्द है : 'श्री सि० रज्जीलाल जी के उपदेश से निर्मित' ।
दोनों पक्षों के बाजू मे ३ फु० ६ इ० की ऊँचाई तक टाइल जड़े है जिन पर मयूर का रंगीन प्रकन है ।
इनके ऊपर बाये पहले से आठवे तक और दायें नवे से सोलहवेंतक, सोलह स्वप्नो का प्रकन है जिन्हे तीर्थकर की माता गर्भाधान के समय देखा करती है। ये स्वप्न और उनसे सूचित होने वाले गुण (तीर्थकर के ) ये है : १. हाथी - उच्चकोटि का आचरण, २. बैल धर्मात्मत्व, ३. सिह-पराक्रम, ४. लक्ष्मी प्रतिशयलक्ष्मी, ५. दो मालाएँशिरोधार्यता, ६. चंद्र-संतापहरण, ७. सूर्य तेजस्विता, ८. मछलियों का दो जोड़ा-सौन्दर्य, ६. दो कलश-कल्याण, १०.