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________________ ८ . भनेकान्त एक समय भगवान 'पुरिमतालपुर' (प्रयाग) नामक सुनते थे। जो उपदेश होता था उसे सभी जीव अपनी-अपनी नगर के उद्यान में ध्यानावस्थ थे। उस समय उन्हें केवल- भाषा में समझ लेते थे, यही उस वाणी की महत्ता थी। ज्ञान की प्राप्ति हुई। इस तरह वे पूर्णज्ञानी बन गए। इस तरह भगवान ने जीवन पर्यन्त विविध देशों-काशी, भगवान बड़े भारी जन समुदाय के साथ धार्मिक उपदेश अवन्ति, शल, सुह्य, पुण्ड, चेदि, बङ्ग, मगध, प्राध्र, देते हुए विचरण करने लगे। उनकी व्याख्यान सभा मद्र, कलिंग, पाचाल, मालव, दशार्ण और विदर्भ मादि में 'समवसरण' कहलाती थी। और उनकी वाणी 'दिव्य- विहार कर जनता को कल्याणमार्ग का उपदेश दिया ध्वनि' कहलाती थी, जिसका स्वभाव सब भाषा रूप परि- था। और कैलाश पर्वत से माघ कृष्णा चतुर्दशी को निर्वाण णत होना है। पद प्राप्त किया। भगदान प्रादि नाथ ही श्रमण सस्कृति समवसरण सभा की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि के पाद्य प्रणेता बतलाए गए है। हिन्दू पुराणो मे भी उसमे पशुओं को भी स्थान मिलता था, उसमे सिंह जैसे कैलाश पर्वत से उनका मुक्ति प्राप्त करना लिखा है। भयानक और हिरण जैसे भीरू तथा बिल्ली चहा जैसे । १ काशी अवन्ति कोशलसुह्यपुण्ड्रान् । जाति विरोधी हिंसक जीव भी शान्ति से बैठकर धर्मोप चेद्यङ्ग वङ्गमगधान्ध्रकलिङ्गमहान् । देश का पान करते थे। क्योकि भगवान ऋषभदेव अहिंसा पञ्चालमालवदशार्णविदर्भदेशान् । की पूर्ण प्रतिष्ठा को पा चुके थे । जैसा कि पतजलि ऋाष सन्मार्गदेशनपरो विजहार धीरः ।। के निम्न सूत्र से स्पष्ट है कि 'अहिसा प्रतिष्ठाया तत्स -महापुराण २४-२८७ न्निधौ वर त्यागः ।' आत्मा मे अहिंसा की पूर्ण प्रतिष्ठा २ कैलाशे विमले रम्ये वृषभोऽयं जिनेश्वरः । होने पर वैर का परित्याग हो जाता है। यही कारण है चकार स्वावधार च सर्वज्ञः सर्वगः शिवः ।। कि समरसी भगवान ऋषभदेव की वाणी मनुष्य, तिर्यंच -प्रभास पुराण (पशु-पक्षी वगैरह) देव देवाङ्गनाए आदि सभी जीव १५ जुलाई १९६६ हृदय की कठोरता. चिन्तन-सहकार ! तेरा सौन्दर्य समग्र संसार को प्राकर्षित कर रहा है ! तेरी प्राकृति का निरीक्षण करने के लिए जनता उत्सक रहती है। जहाँ तेरा गमन होता है, सभी सोत्साह तेरे से हाथ मिलाना चाहते हैं। तेरे मधुर रस का आस्वादन करने के लिए रसना उतावली हो उठतो है और उसकी अभिकांक्षा को शान्त करने के लिए तू अपना स्वत्व विसजित करने का प्रशंसनीय प्रयास भी करता है । तू अपनी अपरिमित परिमल के द्वारा दिग् मण्डल को सुरभित करता हुआ जन मानस का केन्द्र बिन्दु बन रहा है । इन सब विशेषताओं के साथ यदि तेरे में एक साधारणता नहीं होती तो क्या तेरा सुयश अनिल की भाँति इससे भी अधिक प्रसारित नहीं होता ? सहकार-विज्ञवर ! जो कहा गया, क्या वह शतशः सत्य है ? चिन्तक-स्वयं की स्खलना स्वयं गम्य नही होती, इसी अमर सिद्धान्त के अनुसार मैं यह कह सकता हूँ कि स्वयं को अपना दोष ज्ञात नहीं होता । तू सजगता से अपना निरीक्षण कर । तेरा हृदय कैसा है ? वह पाषाण की भाँति कठोर है या नवनीत की भॉति कोमल ? ऊपर की अधिक कोमलता व सरसता क्या तेरी आन्तरिक कठोरता की प्रतीक नहीं है ? अपने अहं का अनुभव करते हुए सहकार के मुंह से सहसा ये शब्द निकल पड़-हाय ! मेरा हृदय कठोर है। मेरे अन्तस्थल में यह गांठ नहीं होती तो आज मैं जन-जन के दाँतों से क्यों पीसा जाता और क्यों मुझे अंगारों की शय्या पर सुला कर जलाया जाता। -मुनि कन्हैया लाल
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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