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था, सं० १२७५ मे जिनदत्त चरित की रचना की थी। और स० १३१३ में 'अणुवयरयण पव' की रचना की थी' । इन्ही सब कार्यों से इस जाति की सम्पन्नता और धार्मिकता पर प्रकाश पड़ता है। इस जाति के द्वारा प्रतिष्ठित अनेकमूर्ति लेख भी उपलब्ध होते हैं । जिनमे से कुछ यहा दिये जाते है जिनसे उनकी धर्मत्रियता और जिनभक्ति का परिचय मिल जाता है । परवार या पौरपट्ट परवार जाति का उल्लेख पौर पाटान्वय के रूप में मूर्तिलेखो में मिलता है । पर इसका निकास कब कहाँ और कैसे हुआ, इस पर अभी तक कोई प्रामाणिक विवेचन नहीं किया गया। कुछ लोग प्राग्वाट या पोरवाडी के साथ परवारो का सम्बन्ध बतलाते है । पर उसने कोई प्रामाणिक उल्लेख उपस्थित नही किया गया । पोरवाड और प्राबाट शव्द संभवतः एक
जैन समाज की कुछ उपजातियां
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५. बारह सय सत्तरयं पचोत्तर विक्कम कालवि दत्त पढम पक्व रविवार छट्टि सहारइ पूसमासे सम्मत्तउ ॥ विनदत्तचरितप्रदारित
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६. तेरह सब तेरह उत्तराल परगलिय विक्कमाइच्च काल ।
पर सम्वहं समय, कतिय मासम्म पसेपि सत्तमि दिन गुरु वारे समोए, पट्टमि खिमे साहिज्ज जोए || - प्रणुक्यरयण पईच प्रशस्ति ७. संवत् १२०३ माघमुदी १३ जैसवालान्वयं साहू खोने भार्या यशकरी सुन नायक साहु भ्रातृ पाल्हण पील्हे, माहू परने महिणी सुत श्रीरा प्रणमन्ति नित्यम् । सवत् १२०३ माचमुदी १३ जमवलान्वये साहु बाहड़ भार्या शिवदेवि सुत साहु सोमिनि भ्राता साहु माल्ह जन प्राह लालू साल्हे प्रणमन्ति नित्यम् । स० [१२०३ माघसुदी १३ जैसवानान्वये साहू खोने भार्या जसकरी सुत नायक साहू नान्तिपाल बोल्हे परये महिपाल मृत श्री प्रणयन्ति नित्यम् । सं० १२०७ माघवदी ८ जैसवालान्वये साहु तना तत्सुताः श्री देवकान्त-भूपसिंह प्रणयन्ति नित्यम् ।
प्रकार वर्ष १०, किरण २,३
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अर्थ के वाची हो सकते है, किन्तु पौरपट्ट नही । पौरपट्ट के साथ प्रष्ट शाखा और चतु शाखा का सम्बन्ध उल्लिखित मिलता है पर पोरवाड के साथ ऐसा कोई सम्बन्ध देखने में नहीं प्राया उपजातियों में गोभी की परम्परा है । वैयाकरण पाणिनी ने गोत्र का लक्षण 'अत्यन्त पौत्र प्रभुति गोत्रम् किया है। अर्थात् पौत्र से शुरू करके संतति या वंशजो को गोत्र कहते है । वैदिक समय से लेकर ब्राह्मण परम्परा में गोत्र परम्परा श्रखण्ड रूप से चली आ रही है। महाभारत में मूल गोत्र चार बतलायें है अंगिरा, काश्यप, वशिष्ठ और भृगु जन संख्या बहने पर गोत्र संख्या भी बढ़ने लगी। गोत्र परम्परा ब्राह्मण, क्षत्रिय और वंदयो मे उपलब्ध होती है। अन्य जातियों में गोत्र परम्परा किस रूप में प्रचलित है यह मुझे ज्ञात नही है । परवारो मे १२ गोत्र माने जाते है जो गोइल्ल, कामिल्ल, भारिल्ल, कोछल्ल और फागुल आदि है । किन्तु एक गोत्र के बारह बारह मूर होते है । अतएव मूरो की संख्या १४४ हो जाती है । मूर अन्य जातियों में भी प्रचलित है या नही कुछ ज्ञात नहीं होता उपजातियां का इतिवृत दशवी शताब्दी से पहले का देखने में नहीं पाता पचराई के शान्तिनाथ मन्दिर मे वि० सं० १९२२ का लेख है, उसमें पौर पट्टान्वय' का उल्लेख है :
पौर पट्टान्वये शुद्धं साधु नाम्ना महेश्वरः । महेश्वरे व विख्यातस्तत्युतः धर्म सज्ञकः ॥ " चन्देरी की ऋषभदेव की प्राचीन मूर्ति पर भी सं० ११०३ वर्षे माघ सुदि बुधे मूल संघे लिखा हुआ है । इससे पुरातन उल्लेख अभी प्राप्त नहीं हुए।
इस जाति मे भी अनेक विद्वान होते रहे है । उनमे से एक विद्वान की कृति के नाम के साथ संक्षिप्त परिचय दिया जाता है :
सं० १२७१ में कवि देने २६ पद्यात्मक एक चौबीसी छन्द नाम की कविता बनाई थी जो उपलब्ध है जिसका जन्म परवार जाति में हुआ था। इनके धर्मसाह, पंतसाह, उसाह तीन भाई थे । यह टिहडा नगरी के निवासी थे । इनके द्वारा बनवाए हुए अनेक मन्दिर और मूर्तियां तथा ग्रन्थ रचना देखी जाती है। यह भी एक सम्पन्न जाति