________________
'पाल्मा कारोहप्रमाणत्व'
२५५
ra) एक निष्कर्ष यह भी है कि 'अनेकान्त' के जीवन में नाजुक है। पहले उसे पैसे का ही टोटा रहता था, अब * परमानन्द शास्त्री का योगदान अत्यन्त व्यापक भोर रचनामों का भी टोटा रहने लगा है। इसके कई कारण अनियादी है। २२५ खोजपूर्ण तथा बृहदाकार लेखों के हैं जिनपर रोशनी डालना यहां शायद बेमोके होगा।
साधारण उपहारकर्ता श्री शास्त्री कभी व्यवस्थापक, प्राशा है. इस लेख तथा इसी ग्रंक में प्रकाशित दोनों किभी प्रकाशक और कमी सम्पादक के रूप में 'भनेकान्त' सूचियों से विद्वज्जगत् लाभान्वित होगा और 'पनेकान्त'
को आगे बढ़ाते हैं । उन्हें 'भनेकान्त' का दूसरा मुख्तार' का महत्व स्पष्टतर होगा। विद्वानों को अनेकान्त के लिए कहना उपयुक्त होगा।
अपनी बहुमूल्य रचनाएं भेजनी चाहिए। पौर समाजको १६) इधर के कुछ अंक देखने से पता लगता है कि उसके अधिक से अधिक सदस्य बनकर भनेकान्त की प्रगति ''भनेकान्त' को हालत पहले की अपेक्षा माज अधिक में सहयोग देना प्रावश्यक है। *
आत्मा का देह-प्रमाणत्व
___ डा० प्रद्युम्नकुमार जैन
जैन दर्शन भारतीय दर्शन के इतिहास में अपनी की विशद व्याख्या तो करना सम्भव नहीं है, किन्तु तत्स दार्शनिक मान्यताओं की विलक्षणता के लिए विख्यात है। म्बन्ध में जिस बिन्दु पर बाल चितकों को सर्वाधिक विसंजैन दर्शन का प्रत्येक मुद्दा अनेकानेक ऐतिहासिक एवं गति का प्राभास होता है उसी का विशदीकरण यहां मभिताकिक-गुत्थियों का समुच्चय है, जिसे तनिक भी जल्द- प्रेत है । प्रात्मा के स्वरूप को सूत्रबद्ध करते हुए जैन बाजी मे समझने की कोशिश अनेक गलतफहमियां पैदा दार्शनिकों ने उसे निम्न प्रकार प्रकट किया है :करने का कारण हो सकती है। प्रात्मा एक ऐसा ही मुद्दा ।
(१) जीवो उपयोगममो प्रमुत्ति कत्ता सवेह परिमाणो। है जिसके सम्बन्ध में जैनदर्शन का वैलक्षण्य सर्वविदित
भोत्ता ससारत्थो सिद्धो सो विस्ससोडूढगई।' है। इस वैक्षणण्य पर जब जल्दबाजी में एकांगी दूरष्टिकोण से विचारने का प्रयास किया जाता है, तभी तत्स
अर्थात्-(मात्मा अथवा) जीव उपयोगमयी, प्रमूर्त, म्बन्धी भ्रांतियों का जन्म होता है। जैनों की प्रात्म
(कर्मों का) कर्ता, देहप्रमाण रहने वाला । (कर्मफल का) सम्बन्धी संबोधना वस्तुतः ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में ताकिक
भोक्ता तथा सिद्ध है तथा स्वभाव से ऊध्वंगति वाला है। समीचीनता की उदभावना है। अनेकान्तवादी जैन दूरष्टि (२) प्रणेगुरु देहप्रमाणो उपसहारप्यसप्पदो घेदा। तत्कालीन सभी दूरष्टियों की एक ऊहात्मक समष्टि है।
असमुहदो ववहारा णिच्चयणयदो पसंख देसो वा ।।' प्रात्मा को सम्बोधना उसी ऊहात्मक समष्टि का एक अर्थात् व्यवहारनय से चिदात्मा संकोच विस्तार गुण प्रमुख घटक है, जो अपनी समष्टि की ही प्रकृत्यानुरूप के कारण, समुद्घात के सिवाय अन्य सब अवस्थामों में स्वय भी सार्वभौमिक एवं बहमुखी है। अतः जैन दर्शन प्राप्त हुए छोटे या बड़े शरीर के प्रमाण ही रहता है। की मात्म-सबषी व्याख्या ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य मे ही पौर निश्चयनय से (लोक के बराबर) असंख्य प्रदेशी है। समझी जा सकती है। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में ही उसकी उहा की बहुमुखी प्रकृति पांकी भी जा सकती है। १. द्रव्य संग्रह, २
प्रस्तुत निबन्ध में स्थानाभाव के कारण भात्म-तत्त्व २. वही, १०