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________________ भनेकान्त का विव्य पालोक १३७ करते समय पर्याय की ओर भी दृष्टि रखनी पड़ती है। जहां उपादान की मुख्यता से कथन है वहां प्रात्मा के कहा जब मनुष्य एकान्त रूप से द्रव्य दृष्टि या पर्याय दृष्टि बन है। जहाँ द्रव्य की स्वकीय योग्यता को प्रधानता देकर जाता है तब उसके सामने अनेक समस्यायें खड़ी हो जाती कथन है वहा एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता नहीं है, ऐसा हैं । जब यह प्राणी, मनुष्यादि पर्यायों को ही सर्वस्व समझ कहा है परन्तु जहां निमित्त नैमित्तिक भाव की अपेक्षा उनमे राग-द्वेष करने लगता है तो उसे द्रव्यदृष्टि से उप- कथन है वहां प्रात्मा की रागादि रूप परिणति में परद्रव्य देश दिया जाता है और जब द्रव्य को निर्विकार या शुद्ध कर्म को कारण कहा है । द्रव्यादिक नय की अपेक्षा पदार्थ मानकर स्वच्छन्द होता है तब उसे पर्याय दृष्टि का पाल- नित्य, एक तथा अभेद रूप है परन्तु पर्यायार्थिक नय की म्बन लेकर उपदेश दिया जाता है। नय परार्थश्रुतज्ञान अपेक्षा द्रव्य अनित्य अनेक और भेद रूप है। के विकल्प है। जिससे दूसरे के प्रज्ञान निवृत्तिरूप प्रयो- स्याद्वाद न केवल जैन शास्त्रों में किन्तु लोक में सर्वत्र जन की सिद्धि होती है उसे परार्थश्रुत ज्ञान कहते हैं। बिखरा हुआ है । जो स्यावाद का विरोध करते हैं वे भी और जिससे अपना अज्ञान दूर होता है उसे स्वार्थश्रुत- स्याद्वाद के द्वारा ही अपनी लोक यात्रा सचालित करते ज्ञान कहते है। श्रत ज्ञान स्वार्थ के सिवाय चारों ज्ञान है। इन्दुमोहन के पुत्र हुमा। वह इष्टजनों को समाचार स्वार्थ रूप है परन्तु श्रत ज्ञान स्वार्थ और परार्थ के भेद देते सयय पिता को लिखता है-पापके पोता हमा है. से दो प्रकार का होता है। किस समय किसके लिए किस साले को लिखता है-पापके भानेज हुआ है, भाई को नय से उदेश देना चाहिए इसका उल्लेख कुन्दकुन्द स्वामी लिखता है-पापके भतीजा हुआ है। अरे! हा तो समयसार के प्रारम्भ मे ही कर देते है। वे आगे बढ़ने के एक ही बच्चा है पर वह इन सब रूप कैसे हो गया? पहले ही सूचनापट्ट लगा देते है कि शुद्धनय से किसे और अनेक सम्बन्धियो की अपेक्षा ही तो अनेक रूप है। व्यवहारनय से किसे उपदेश देना चाहिए : गीता के दो प्रकरण मनन करने योग्य है .सुद्धो सुद्धादेशो णायव्वो परमभावदरिसीहि । महाभारत की तैयारी थी। श्रीकृष्ण चाहते थे कि ववहारदेसिदा पुण जेदु अपरमेट्ठिदा भावे ॥ किसी प्रकार युद्ध टल जावे। इसी उद्देश्य से वे सन्धि कारक रूप मे दुर्योधन के पास गये। उन्होने दुर्योधन को अर्थात् परमभाव-प्रात्मा को निर्विकार दशा का अवलोकन करने वाले महानुभावों के द्वारा–पर पदार्थ के अनेक प्रकार से समझाया। देख, ससार में किसी के दिन एक से रहने वाले नहीं है। आज राज्य तेरे हाथ में है सम्बन्ध से अनुत्पन्न वस्तु स्वभाव को कथन करने वाला और युधिष्ठिरादि वनवासी हैं पर समय परिवर्तित हो निश्चय नय ज्ञातव्य है परन्तु जो अपरमभावहीन दशा में हो सकता है। युधिष्ठिरादि कोई दूसरे नहीं हैं, तेरे ही विद्यमान हैं वे व्यवहार नयके द्वारा उपदेश देने के योग्य है। कुन्दकुन्द स्वामी के इस सूचना पट्ट को पढ़े बिना जो हैं। इनसे द्वेष रखना तुझे लाभदायक नहीं है। श्रीकृष्ण आगे बढ़ते हैं उन्हें पद-पद पर विरोध मालूम होता है। की इस हितावह देशना को सुनकर दुर्योधन शान्त तो नहीं समयसार में एक जगह लिखा है कि रागादिक पुद्गल के हुआ किन्तु उन्हें पाण्डवों का पक्षपाती समझ उनके साथ हु हैं और एक जगह लिखा है कि रागादिक प्रात्मा के हैं। दुर्व्यवहार करने लगा। इधर देखिये-श्रीकृष्ण कह रहे थे-संसार में सबके दिन एक सदश नहीं बीतते, परिव. एक जगह लिखा है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का तित होते रहते हैं। कुछ नहीं करता और एक जगह स्फटिक का दृष्टान्त देते दूसरा प्रकरण देखिये-श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथि हुए लिखा है कि प्रात्मा रागादि रूप परिणमन स्वयं नहीं बनकर युद्धभूमि मे पहुँच चुके है। अर्जुन उनसे कहते हैंकरता है परन्तु अन्य कर्मों के द्वारा करता है। भगवन् ! सामने खडे हुए लोगों का परिचय कराइये । इत्यादि विरोधी बातों का समन्वय नय विवक्षा को श्रीकृष्ण परिचय देते हुए कहते हैं-ये सामने भीष्मपितामह समझे बिना नहीं हो सकता। जहां निमित्त की मुख्यता हैं. ये बगल में द्रोणाचार्य हैं और ये उनके वाज़ में अमुक से कथन है वहां रागादिक को पुद्गल के कहा है और (शेष पु०४१ पर)
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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