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________________ भगवान ऋषभदेव परमानन्द शास्त्री भारतीय वाङ्मय में जैनधर्म के प्राद्य प्रतिष्ठापक, के कारण व्रात्य नाम से, उल्लेखित किये जाते थे। प्रादि ब्रह्मा, प्रजापति, जातवेदस, विधाता, विश्वकर्मा, ऋषभदेव जन्मकाल से ही विशिष्ट प्रतिभा के धनी थे। हिरण्यगर्भ, विश्ववेदिस, व्रात्य, स्वयंभू, कपर्दी पौर वात. अतएव उन्होने जीने की इच्छा करने वाली प्रजा को रशना प्रादि नामों से जिन ऋषभदेव का संस्तवन किया असि, मषि, कृषि, सेवा, विविध शिल्प, पशुपालन और गया है। वे ऋषभदेव ऐतिहासिक महापुरुष हैं, जो आदि वाणिज्यादि का उपदेश दिया था। उन्होने जनता को ब्रह्मा और माद्य योगी के नाम से प्रसिद्ध है। ऋग्वेदादि लोक शास्त्र और व्यवहार की शिक्षा दी थी। और उस में इनकी स्तुति की गई है। ऋग्वेद में उन्हे 'केशी बत- धर्म की स्थापना की जिसका मूल अहिंसा है । इसी कारण लाया है और वातरशना का जो उल्लेख है वह भी ऋषभ- वे प्रादि ब्रह्मा कहलाते थे। उनकी दो पत्नियां थी। देव के लिए प्रयुक्त हुमा जान पड़ता है। महाभारत मे नन्दा और सुनन्दा । नन्दा से भरतादि निन्यानवे पुत्र और इन्हें पाठवां अवतार माना गया है। और भागवत के एक पुत्री ब्राह्मी का जन्म हुआ था। सुनन्दा से बाहुबली पंचम स्कध में ऋषभावतार का वर्णन है। विष्णुपुराण में "सैपा हिरण्यमयी वृष्टिः धनेशेन निपातितः । भी ऋषभावतार का कथन है। और उन्हीं के उपदेश से विभोहिरण्यगर्भवमिव बोधयितं जगत् ।।" जैनधर्म की उत्पत्ति बतलाई है। इन सब प्रमाणों से महापु० ५० १२, ६५ ऋषभदेव की महत्ता का स्पष्ट भान होता है, वे उस काल "गब्भट्ठि अस्स जस्सउ हिरण्णवुट्ठी सकचणा पडिया। के महान योगी थे। तेणं हिरण्णगब्भो जयम्मि उवगिज्जए उसभो॥" भगवान ऋषभदेव सर्वार्थसिद्धि नामक स्वर्गसे अवधि पउमचरिउ, ३-६८ समाप्त होने पर इस भूमण्डल के जम्बूद्वीपान्तर्गत भरत "दिग्वासा वातरशनो निर्ग्रन्थेशोनिरम्बरः ।" क्षेत्र के मध्य देशस्थ प्रयोध्या नगरी मे महाराज नाभि -महापुराण राज के घर मरुदेवी के गर्भ से चैत्र वदी नवमी के दिन २ प्रजापतिर्गः प्रथम जिजीविषु सशास कृष्यादिषु कर्मअवतरित हुए थे। इनके गर्भ मे आने से षट् मास पूर्व ही सुप्रजाः । -वृहत्स्वयभू स्तोत्र नाभिराज का सदन इन्द्र द्वारा की हुई रत्न दृष्टि से भर ३ पुरगाम पट्टणादी लोलिय सत्थं च लोय व्यवहारो। पूर हो गया था। इस कारण वे लोक में 'हिरण्यगर्भ' नाम घम्मो वि दयामूलो विणिम्मियो प्रादि बम्हेण ॥ से प्रसिद्ध हुए। ऋषभदेव जन्म से ही तीन ज्ञान के -त्रिलोकसार ८२० धारक थे। अतएव वे जातवेदस कहे जाते थे। स्वयं ज्ञानी ४ वायुपुराण में लिखा है कि भगवान ऋषभदेव से वीर होने के कारण स्वयंभू और महाव्रतों का अनुष्ठान करने भरत का जन्म हुमा, जो कि अन्य नव से पुत्रों से बड़ा था। भरत के नाम से इस देश का नाम भारतवर्ष १ ऋग्वेद मं० १० सू० १२१ में-हिरण्यगर्भः सम- पड़ापर्वताने' रूप से उल्लेख किया है। 'हिरण्यगर्भयोगस्य ऋषभाद् भरतोजज्ञे वीरः पुत्र शताग्रजः । वक्ता नान्यः पुरातमः ।" तस्मात् मारतं वर्ष तस्य नाम्ना विदुर्बुधा ।। महाभारत शान्तिपर्व०म० ३४६ -५२, वायुपुराण
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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