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मलम्बपर्याप्तक पौर निगोद
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डलिनी विषं निरंतर वैसे ही मांस सारिखे नये-नये अनंत पर्याप्तक नहीं होते-थे पर्याप्तक भी होते हैं। इस तरह दोनों जीव उपज हैं।"
में विषमता होने से यह भी नहीं कह सकते कि जैसी यहां टोडरमल जी साव ने भी मास में मांस जैसे ही उत्पत्ति लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यों की है। वैसी ही तिर्यंचों निगोद जीव की उत्पत्ति लिखी है । न कि लब्ध्यपर्याप्तको की भी है। यद्यपि प्रागम मे पंचेद्रिय तिर्यचों के गर्भज की। और देखिये सागारधर्मामृत अध्याय २ श्लोक ७ मे और सम्मूच्छिम ऐसे दो भेद जरूर किये है। पर इसका पं० प्राशाधर जी भी मांस में प्रचुर निगोद जीव बताते मतलब यह नहीं है कि जो बैल, हाथी, घोडे गर्भजन्म से हुए निगोत का अर्थ साधारण-अनतकाय लिखते है। पैदा होते है वे ही सम्मूच्छिम भी होते है। सम्मूच्छिम लब्ध्यपर्याप्तक नहीं लिखते । यहा यह भी समझना कि- पचेन्द्रिय तियंच और ही होते है -- जिस जाति के गर्भज जैसे स्थावर वनस्पतिकाय मे जो बादर निगोदजीव पैदा तिर्यच होते है उसी जाति के सम्मूच्छिम तिर्यंच नही होते होते है । वे भी तो उस वनस्पति के रूप-रस-गंध जैसे ही ऐसा कहने में कोई बाधक प्रमाण नजर नहीं पाता है । पैदा होते हैं। वैसे ही उस जीवो के कलेवरो मे समझ रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्लोक ६६ की टीका मे पं० लेना चाहिए। यह एक जुदी बात है कि-तिर्यचो के सदासुख जी ने लिखा है :-"मनुष्य तिर्यंचनि के मास का मांस में निगोदजीवों के अतिरिक्त लब्ध्यपर्याप्तक और एक कण में एत्ते बादर निगोदिया जीव है जो त्रैलोक्य के पर्याप्तक कृमि आदि त्रस जीव भी पैदा हो जाते है। यहा एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक जितने जीव है उनसे अनंतगुणे तक की उसमें सम्मूच्छिम पचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यच है ताते अन्न जलादिक असख्यात वर्ष भक्षण करे तिसमें तक पैदा हो सकते है। परन्तु इसका मायना यह नहीं है जो एकेन्द्रिय हिंसा होय ताते अनंतगुणे जीवन की हिंसा कि बैल के कलेवर में बैल जैसे पचेद्रिय सूक्ष्म लब्ध्य- सूई की अणीमात्र मास के भक्षण करने में है पृ० १८१।" पर्याप्तिक जीव पैदा होते है । ऐसा कोई पार्षप्रमाण हो प. सदासुख जी साब ने भी मांस मे जो निगोदिया जीव तो बताया जावे । मनुष्य के कलेवर मे लब्ध्यपर्याप्तक सतत उत्पन्न होते है उन्हे एकेन्द्रिय ही माना है। किन्तु मनुष्यों का पैदा होना ऐसा तो शास्त्रों मे स्पष्ट कथन "श्री जिनागम" पुस्तक के पृ. ३२३ पर देशाई जी ने इस मिलता है। परन्तु जिस जाति के तिर्यच का कलेवर कथन की पालोचना की है जो ठीक नहीं है। पं० सदासुख हो उसमें उसी तिर्यच जाति के लब्ध्यपर्याप्तक सूक्ष्म जीव जी का कथन प्रागमानुसार है। पैदा होते है ऐसा कथन नहीं मिलता है । तथा जिस प्राशा है बहुश्रुतज्ञ विद्वान और त्यागी वर्ग इस निबंध प्रकार सभी सम्मूच्छिम मनुष्य नियमतः लब्ध्यपर्याप्तक पर गहरे चिंतन के साथ अपने विचार प्रकट करने कि ही होते है। उस तरह सभी सम्मूच्छिम तिर्यच लब्ध्य- कृपा करेगे ।
विजोलिया के जैन लेख
श्री रामवल्लभ सोमानी बिजोलिया क्षेत्र भीलवाडा जिले का ऊपर माल क्षेत्र मांडलगढ़ और भीलवाडा पाते समय मै यहाँ ठहरा था का भाग है । इतिहास की दृष्डि से यह बड़ा प्रसिद्ध है। तब कुछ लेख देखे थे उनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है:पाश्चर्य नहीं कि गुजरात के लेखकों ने कुमारपाल के (i) वि० सं० १२२६ का प्रसिद्ध चौहान लेख :पूर्व भव में जन्म इसी क्षेत्र में माना है। यहाँ के कई शव इस लेख का प्रकाशन एपिग्राफिमा इंडिका में श्री अक्षयपौर दिगम्बर जैन लेख मिले हैं। कई वर्षों पूर्व बून्दी से कीति व्यास के सम्पादन में हुआ है । मूल लेख में ३०