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________________ भनेकान्त . अर्थ-चाहे पर्याप्त हो या अपर्याप्त हो सबही बादर मामास्वपि पक्वास्वपि विपच्यमानासु मांसपेशीषु । जीव भाषार के सहारे से रहते हैं । तथा पृथ्वी-जल-अग्नि- सातत्येनोत्पादस्तज्जातीनां निगोतानाम् ॥ ६७ ॥ वाय-नित्य निगोद और इतरनिगोद ये ६ सूक्ष्म जीव लोका- ग लाका- अर्थ-कच्ची, पक्की, पकती हुई मांस की डलियों में मांस ली पकी पस काश में सब जगह भरे है। जैसे वर्ण-रस-गध वाले निगोद जीव निरतर ही उत्पन्न नरक की ७वी पृथ्वी के नीचे एक राजप्रमाण क्षेत्र होते रहते हैं। में वातवलयों को छोड़कर बाकी सारा स्थान निराधार पुरुषार्थसिद्धयुपाय के इस श्लोक में प्रयुक्त "तज्जातीनां शून्यमय है। और बिना प्राधार के बादरजीव रहते नहीं निगोतानां" का अर्थ कोई ऐसा करते हैं कि जिस जाति है तो वहाँ बादर निगोद भी कैसे मानी जा सकती है?" के जीव का मांस होता है उसमे उसी जाति के जीव पैदा दूसरी बात यह है कि-गोम्मटसार जीवकाड गाथा १९६ होते हैं । जैसे बैल का मास हो तो उसमे बल जैसे ही में वनस्पतिकायिक विकलत्रय पचेन्द्रिय तिर्यच और मनुष्यों सूक्ष्म त्रस जीब पैदा होते है।" ऐसा अर्थ करने पर जब के (केवल शरीर-आहार शरीर को छोड़कर) शरीरो में निगोद शब्द के साथ सगति बैठती नही, क्योंकि निगोदिया बादर निगोदिया का स्थान बताया है और सातवीं पृथ्वी के नीचे वातवलयो को छोडकर शेष स्थान में न प्रत्येक जीव त्रस होते नहीं तब वे निगोत शब्द का लब्ध्यपर्याप्तक अर्थ करके सगति बैठाने का प्रयत्न करने लगते है पर वनस्पतिकायिक हैं और न स है इससे भी वहा बादर निगोत का लब्ध्यपर्याप्तक अर्थ किसी शास्त्र में देखने मे निगोद का प्रभाव सिद्ध होता है। प्राया नहीं है। यह गड़बड़ 'तज्जातीनां' शब्द का ठीक इससे यह भी प्रगट होता है कि जिस प्रकार प्रत्येक अर्थ न समझने की वजह से हुई है। इसलिए 'तज्जातीना' वनस्पति के प्राश्रित बादर निगोद होने से वह सप्रतिष्ठित का सही अर्थ यों होना चाहिए कि-"उसी मांस की कहलाती है। उसी तरह त्रस जीवों के शरीरों के आश्रित जाति के (न कि उसी जीव की जाति के) अर्थात् उस भी बादर निगोद जीव रहते हैं प्रतः प्रसकाय भी सप्र- मांस का जैसा वर्ण-रस-गंध है उसी तरह के उसमे निगोदतिष्ठित कहलाता है" गोम्मटसार की उक्त गाथा १६६ जीव पैदा होते है।" ऐसा अर्थ करने से कोई असगतता में यह भी लिखा है कि-पृथ्वी-जल-अग्नि-वायु इन चार नही रहती। जिस प्राकृत गाथा की छाया को लेकर पुरुस्थावरों के शरीर में, तथा देव शरीर, नारकी शरीर षार्थ सिद्धचपाय में उक्त पद्य रचा गया है उस गाथा में माहारक शरीर, और केवलीका शरीर सिर्फ इन पाठ भी मास में निरंतर निगोद जीवों की ही उत्पत्ति बताई शरीरों में निगोदिया जीव नहीं होते, शेष सब शरीरों में निगोदिया जाव नहा हात, शेष सब शराराम है। वह गाथा यह है है। व निगोद जीव होते हैं । इसलिए अमृतचद्र स्वामी ने पुरुषार्थ प्रामासु प्र पक्कासु अ विपच्चमाणासु मंसपेसीम् । सिद्धघुपाय के निम्न श्लोक में मास में निगोद जीव सययं चिय उववामो भणिमो उ निगोमजीवाणं ।। होने का कथन किया है यह गाथा श्वेताम्बराचार्य हेमचंद्र ने योगशास्त्र के तीसरे १०. चर्चा समाधान (चर्चा नं. ६५) में सातवे नरक के प्रकाश में उद्धत की है। स्याद्वादमंजरी के पृष्ठ १७६ पर नीचे बादर निगोद (पंचगोलक) का प्रभाव बताया भी यह गाथा उद्धत हुई है। तथा पुरुषार्थ सिडधुपाय की है। सुदृष्टि तरगिणी में भी प० टेकचन्द जी सा० ने पंडित टोडरमल जी साव ने वनिका लिखी है। उसमें लिखा है कि सातवें नरक के नीचे बादर निगोद उक्त पद्य नं०-६७ का अर्थ इस प्रकार किया है-" माली बताने वाले भोले जीव हैं। होउ, अग्निकरि पकाइ होउ, अथवा पकती होउ, कछु एक ११. प्रनगार धर्मामृत पृ० ४६१ में मलपरीषह प्रकरण में पकी होउ, ऐसे सबही जे मांस की डली तिनविष उसही लिखा है:-उइवर्तन (उबटन, मैल उतारने) में जाति के निगोदिया अनंते जीव तिनका समय-समय विष बादर प्रतिष्ठित निगोद जीवों का घात होता है। निरंतर उपजना होय है। सर्व अवस्था सहित मांस की
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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