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२६४, वर्ष २२ कि०५
अनेकान्त
युक्त्यनुशासन है. जो दार्शनिक विषय का एक मौलिक लगभग इसी प्रकार के अभिप्राय को प्रगट करते हुए स्तवन है। उनकी सभी कृतियाँ मौलिक और महत्वपूर्ण प्रात्मानुशासन (२३६-४०) में यह कहा गया है कि शुभहैं। दार्शनिक क्षेत्र में उनकी महत्ता का स्पष्ट निदर्शन अशुभ, पुण्य-पाप और सुख-दुख; इन छह में से प्रादि के है। प्रस्तावना लेखक प्रो. डा० दरबारीलाल जी कोठिया तीन-शुभ, पुण्य और सुख-हितकर होने से अनुष्ठेय हैं म्यायाचार्य एम० ए० पी० एच० डी० हैं। डा० साहब तथा शेष तीन-अशुभ, पाप और दुख-अहितकर होने ने प्रस्तावना में युक्त्यनुशासन पर अच्छा विचार किया से परित्यज्य हैं। उनमें भी वस्तुतः प्रथम (अशुभ) ही है। उसकी कितनी ही कारिकामों के हार्द्र को भी स्पष्ट परित्याज्य है-उसका परित्याग हो जाने पर शेष दो किया है और समन्तभन्द्र से पूर्ववर्ती युग में अनेकान्त को (पाप और दुख) स्वयमेव विलीन हो जाने वाले है, सप्तभंगी का भी उल्लेख करते हुए सदद्वाद, शाश्वत- क्योंकि उनका जनक वह अशुभ ही है। अन्त में शुद्ध प्रशाश्वत प्रादि वादों का भी विचार किया है। उनकी स्वरूप के प्राप्त हो जाने पर शुभ को भी छोड़कर परम सभी कृतियों का संक्षिप्त परिचय भी दिया है।
पद की प्राप्ति होने वाली है। विवेचक पं० मूलचन्द जी ने प्राचार्य विद्यानन्द की प्रस्तुत ग्रंथ पर यद्यपि प्राचार्यप्रमृतचन्द्र की प्रात्मटीका का प्राश्रय लेकर हिन्दी में उसका अच्छा विवेचन ख्याति और जयसेनाचार्य की तात्पर्य वृत्ति ये दो संस्कृत किया है। जिससे स्वाध्यायी जनों को उसके अध्ययन में टीकाएं तथा पं० जयचन्द्र जी और राजमल जी पांडे सरलता हो गई है। ग्रन्थ के दोनों भाग मंगाकर पढ़ना की हिन्दी टीकाएं भी उपलब्ध है, फिर भी सर्वसाधाचाहिए । क्षुल्लक की का प्रयास स्तुत्य है ।
रण जो उक्त टीकानों से ग्रंथ के मर्म को हृदयंगम नहीं -परमानन्द शास्त्री कर सकते हैं ऐसे प्रात्म-हितैषीजनों को लक्ष्य में रखकर
पूज्य पं० गणेशप्रसाद जी वर्णी ने प्रकृत प्रवचन को लिखा (५) समयसार ( प्रवचन सहित)-प्रवचनकार है। समयसार यह वर्णी जी का अतिशय रुचिकर ग्रंथ प्राध्यात्मिक सन्त गणेशप्रसाद जी वर्णी, सम्पादक पं० रहा है व उसका उन्होंने खूब मनन किया है। इस प्रवपन्नालाल जी साहित्याचार्य, प्रकाशक ग० वर्णी जैन चन में उन्होंने दोनों संस्कृत टीकात्रों का परिशीलन कर ग्रंथमाला वाराणसी, बड़ा प्राकार, पृष्ठ ४६४४०६, उनके प्राधार से तथा अपने अनुभव के बल पर भी विषय :न्य १२ रुपया।
का सरल भाषा में अच्छा स्पष्टीकरण किया है। प्राचार्य कुन्दकुन्द विरचित समय प्राभूत (समयसार) ग्रन्थ का सम्पादन अनेक ग्रन्थों के सम्पादक व अनुएक सुप्रसिद्ध अध्यात्म ग्रंथ है। इसमे निश्चयनय की वादक श्री प० पन्नालाल जी साहित्याचार्य के द्वारा हमा प्रधानता से नौ अधिकारों के द्वारा जीव-जीव, कर्त- है। उन्होंने अपनी प्रस्तावना में ग्रंथ के अन्तर्गत विषय कर्मता, पुण्य-पाप, पासव, सवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष का अधिकार क्रम से परिचय भी करा दिया है। इससे
और सर्वविशुद्ध ज्ञान का विवेचन किया गया है। यहाँ ग्रंथ में और भी विशेषता प्रा गई है। कहा गया है कि मात्मा न प्रमत्त है और न अप्रमत्त है, वर्णी ग्रंथमाला ने ऐसे उत्तम ग्रन्थ को प्रकाशित कर वह तो एक मात्र ज्ञाता है। उसके सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्तुत्य कार्य किया है। इस प्रथमाला के सुयोग्य मन्त्री हैं, यह भी व्यवहाराश्रित कथन है। यह वस्तुस्थिति ही डॉ० दरबारीलाल जी कोठिया उसकी प्रार्थिक कठिनाई है: फिर भी जो अधिकांश प्राणी व्यवहार मार्ग का अनु- को हल करने के लिए पर्याप्त परिश्रम कर रहे हैं। इसका सरण करते हुए देखे जाते हैं वे इस व्यवहार का अनुसरण ही यह परिणाम है जो उसके द्वारा अभी हाल में २-३ करते हुए भी उक्त वस्तुस्थिति को लक्ष्य में रक्खें, उसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित किये जा चुके है। अंथ का भूलें न; इस प्रकार के विवेक को उत्पन्न करना, यह मुद्रण मादि भी अच्छा हुमा है। प्रस्तुत ग्रंप का प्रयोजन रहा है।
-बालचन्द सिमान