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धनपाल को भविष्यदत्त कथा के रचना काल पर विचार
जिससे भविष्य में इस प्रकार की भूलों की पुनरावृत्ति न हो, इस वाक्य से स्पष्ट है कि कवि ने पंचमी कया और साहित्यिक विद्वान खूब सोच समझ कर लिखें। प्रात्महित के लिए की है। किसी अन्य के द्वारा वह नही
लिपिकार की प्रशस्ति की भाषा का मलग्रन्थकार की बनवाई गई। कवि ने अपने उक्त परिचय के साथ, राजा भाषा से भी कोई सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता। वह काना
का नाम, रचनास्थल और रचनाकाल नही दिया । अन्यथा मगलाचरण के साथ एक जुदी प्रशस्ति है, मूलग्रन्थ के साथ यह विवाद ही उपस्थित नहीं होता। उसका कोई सम्बन्ध नही है। प्रशस्ति में प्रयुक्त 'लिहिय' डा० देवेन्द्रकुमार जी ने अपने लेख के पु० २७ पर शब्द ग्रंथ लिखने या लिखाने का वाचक है, रचने का लिखा है कि-"प्रथम धनपाल का जन्म जिस वश में नहीं । मूलग्रथकार ने 'विरइउ' शब्द का प्रयोग किया है हुआ था, उसी मे जम्बूस्वामी के रचयिता महावीर, धर्म'लिहिय' शब्द का नहीं । मूलपथकार ने अपने को 'धर्कट' परीक्षा के कर्ता हरिषेण आदि उत्पन्न हुए है।" धक्कड वंश का वणिक सूचित किया है। और प्रतिलिपि- आपके इस निष्कर्ष मे प्रथम धनपाल के समान जम्ब कार ने दिल्ली के अग्रवाल वश का श्रेष्ठी हिमपाल का स्वामीचरित के रचयिता कवि वीर को भी धर्कट वश पुत्र साहू वाधु । इतना स्पष्ट भेद रहने पर भी डा० देवेन्द्र (धक्कड वंश) का लिखना अति साहस का कार्य है। वीर कुमार का ध्यान उस पर नहीं गया । उसका कारण कवि का वश 'लाल वागड' था घट या धक्कड नहीं । सभवतः स० १४८० का प्रतिलिपिकार का समय है उसी
जम्बूस्वामीचरित की रचना में प्रेरक तक्खडु श्रेष्ठी के कारण उक्त भ्रम हुआ जान पडता है । अनेक ग्रथो में
अवश्य घर्कट वश के थे। वे मालव देश की धन-धान्य प्रतिलिपिकारो द्वारा, पूर्व लिपि प्रशस्ति भी मूलग्रंथ के
समृद्ध सिन्धु वर्षी नगरी के निवासी पक्कड वश के तिलक साथ लिपि की हुई मिलती है। उदाहरण के लिए स० मधुसूदन के पुत्र थे। इनके भाई भरत ने भी उसे पूष्ट १४९४ में लिखित मलयगिरिकृत मुलाचार प्रशस्ति किया था। ऐसी भूले झट-पट कलम चलाने से हो जाया भी १७ वी शताब्दी में लिखी जाने वाली प्रतियो करती है। डा० सा० जैसे उदीयमान विद्वानो को अच्छी मे मिलती है। लिपि प्रशस्ति की भाषा मल प्रथ की तरह से विचार कर ही निष्कर्ष निकालना आवश्यक है। भाषा से कुछ घटिया दर्जे की है, और सरल है।
कवि का धर्कट वंश एक प्राचीन ऐतिहासिक वश है। मूल ग्रथकार ने ग्रन्थ के अत मे अपना सक्षिप्त परि- यह वश परम्परा पूर्व काल में अच्छी प्रतिष्ठित रही है। चय निम्न पद्य मे दिया है, जिसमें अपने को धक्कड़ इसमे अनेक प्रतिष्ठित पुरुष हुए है। इसका निकास सिरि (धर्कट) वशी वणिक बतलाया है और अपने पिता का उजपुर' या सिरोज (टोंक) से निर्गत बतलाया है। नाम माएसर (मातेश्वर) और माता का नाम 'घनसिरि' धर्मपरीक्षा के कर्ता हरिषेण (१०४४) भी इसी धर्कट (धनश्री) प्रकट किया है।
वशीय गोवर्द्धन के पुत्र और सिद्धसेन के शिष्य थे। यह धक्कड़ वणिवसि माएसरह समम्भिविण । धणसिरि देवि सुएण विरइउ सरसइ संभविण ॥
२. देखो, जम्बूस्वामी चरित प्रशस्ति ।
३. अहमालवम्मि धणकण दरिसि, प्रशस्ति के अन्तिम धत्ते में तथा सधि पुष्पिकामो मे ।
नयरी नामेण सिन्धुवरिसी । भी अपना नाम धनपाल बतलाया है।
तहिं धक्कडवग्ग वश तिलउ, निसुणंत पड़तह परचिततह अप्पहिय ।
महमूयण नंदणु गुण निलउ । षणवालि नेण पचमि पंच पयार किय॥
नामेण सेट्ठि तक्खड वसइ.. १. इय भविसयत्त कहाए पयडिय धम्मत्थ काम मोक्खाए
-जंबूस्वामीचरितप्रशस्ति । वुह घणवाल कयाए पंचमि फल वण्णणाए। ४. इह मेवाड देशे जण सकुले, कमलसिरि भविसदत्त भविसाणुरूव मोक्खगमणोणाम सिरि उजपुर णिग्गय धक्कड कुले। बावीसमो संघी परिच्छेप्रो सम्मत्तो।
-धर्मपरीक्षा प्रशस्ति ।