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अनेकान्त
चित्तौड़ के रहने वाले थे और कार्यवश अचलपुर चले नाम लुद्दपाल था। इनमे हिमपाल अधिक धर्मात्मा था, गए थे। और वहाँ पर उन्होंने स० १०४४ मे 'धर्म- उसकी धर्मपत्नी का नाम 'रइयाही' था जो नियम और परीक्षा' का निर्माण किया था। घर्कट वश दिल्ली के शील सयम से युक्त थी । वे दोनो दिल्ली में रहते थे वहीं पास-पास रहा नही जान पड़ता, किन्तु वह मारवाड़ उनके वाधू नाम का पुत्र हुअा। इसी बीच काल के राजपूताने और गुजरात आदि में रहा है । मालव देश को प्रकोप से लोग क्षीण वैभव हो गए। धनिक वर्ग भी दुख समद्ध नगरी सिन्धूवर्षी में भी धर्कट वंश के तिलक मधुसूदन के सागर में पड़ गए और अपने नियम धर्म का परित्याग श्रेष्ठी के पुत्र तक्खडु और भरत थे, जिनकी प्रेरणा से वीर करने लगे।
र करने लगे । समस्त पृथ्वी करभार से पीडित हो गई। कवि ने जम्बस्वामी चरित की रचना की थी। भविष्यदत्त बसे हए सेठ साहकार अपने निवास स्थान को छोड़कर कथा का रचयिता भी संभवतः उनमें से किसी एक प्रदेश में
चारो दिशानों मे भागकर दूर देशों में जा बसे । उस रहा हो। इस वश का उल्लेख दि० श्वे. दोनों ही सम्प्र- समय दिल्ली में प्रचण्ड राजा मुहम्मद शाह तुगलक का दायों में पाया जाता है।
राज्य था, जिसने राजारों का मानमर्दन कर बहत दिनों डा. देवेन्द्रकुमार जी ने आगरा की जिस लिखित तक एक छत्र राज्य किया था। प्रति की प्रशस्ति से रचनाकाल विक्रम की १४वी शताब्दी मुहम्मद शाह तुगलक वंश का अच्छा शासक था, बतलाया है उस पर भी यहां थोड़ासा विचार करना उप- जहाँ वह बुद्धिमान, बहभाषाविज्ञ, तर्क, न्याय आदि युक्त जान पड़ता है, जो डा० देवेन्द्रकुमार के लेख का विद्यानो में निपुण था और विद्वानो का समादर करता प्रमुख प्राधार है, और जिस पर से अन्य विद्वानों के था, वह उदार, स्वतत्र विचारक, दानशील, प्रजा हितैषी, समयादिक को अमान्य ठहराया है। वह प्रशस्ति भविसदत्त वीर योद्धा और सदाचारी था। वहां वह क्रोधी, उताकथा लिखाने वाले अग्रवाल साहु वाधू की है जो दफराय वला, अदूरदर्शी, अव्यवहारिक, अत्यन्त निर्दयी और बाद मे लिखी गई है।
कठोर शासक था, इसमे सन्देह नहीं कि वह न्यायी शासक प्रशस्ति-परिचय
था, किन्तु विद्रोहियो को कडे से कडा दण्ड देता था। प्रशस्ति में मगलाचरण के बाद बतलाया गया है कि उसने अपने दोनों भानजो और कई उच्च पदाधिकारियों -'जम्बू द्वीप भारत.क्षेत्र मे अत्यन्त धन-धान्य से परि. तथा एक काजी को भी खुले आम मृत्यु दण्ड दिया था। पूर्ण पासीयवण्णु, प्राशीय या पाशीवन नाम का नगर है, उसकी दण्ड व्यवस्था में अल्प या अधिक अपराध करने जो मन्दिर, उद्यान, ग्राम आदि से युक्त और धनकण से पर दण्ड मे कोई परिवर्तन नही होता था। सबको एक समृद्ध एव शोभायमान है। उस नगर में ऋद्धि-वृद्धि से सा दण्ड देता था। उसने सन् १३२७ (वि० स०१३८४) परिपूर्ण श्रेष्ठिजन, धर्मात्मा सज्जन अपने समस्त परिजनों में दौलताबाद (देवगिरि) मे राजधानी स्थानान्तरित के साथ सुखोपभोग करते हुए निवास करते थे । उससे करने के लिए दिल्ली को खाली करने का हक्म दिया पश्चिम दिशा मे साठ कोश की दूरी पर दिल्ली है वहाँ था। उससे जन-धन की जो बर्वादी हुई और जनता को जैन धर्म के पालन करने वाले अनेक लोग रहते हैं। उनमें कष्ट झेलने पड़े उसकी चर्चा से रोंगटे खड़े हो जाते है। जिनधर्म में अनुरक्त बुद्धिमान और कामदेव समान रूप- सन् १३४० (वि० स० १३६७) मे बादशाह ने पूनः वान वहा के निवासियो में प्रसिद्ध अग्रवाल कुल में समु- राजधानी स्थानान्तरित करने की महान गल्ती की थी। स्पन्न रत्नपाल नाम का सेठ था, उसका पुत्र महनसिंह जिसमे उसे भारी असफलता मिली, हजारो लोग कालपरोपकारी था, उसके चार पुत्र हुए, दुल्लहु (दुर्लभसेन) कवलित हो गए। और अनेक राजधानी छोड़कर यत्रणइपाल (नतपाल) सहजपाल और पजुणपाल । उनमे तत्र भाग गए । जन-धन से रिक्त हो दरिद्री बन गए । ज्येष्ट पुत्र दुर्लभसेन अत्यन्त गुणवान था। उसके तीन उसी समय उत्तरा पथ में भयकर दुष्काल पड़ा था। पुत्र थे। हिमपाल, देवपाल और सबसे कनिष्ठ पुत्र का सहस्रों लोग भूखों मर गए, यह उसकी अदूरदर्शिता का