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साहित्य-समीक्षा
१. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास - भाग ४ लेखक डा० मोहनलालजी मेहता, प्रो० हीरा लालजी कापड़िया । प्रकाशक पार्श्वनाथ जैन शोध संस्थान जैनाथम हिन्दू यूनिवर्सिटी वाराणसी, पाकार डिमाई पुष्ट सस्था ४०० मूल्य १५ रुपया
प्रस्तुत ग्रंथ मे छह अधिकार है, कर्म साहित्य, आगमिक प्रकरण, धर्मोपदेश, योग और अध्यात्म अनगार और सागार का प्राचार, और विधि-विधान, कल्प मंत्र तत्र पर्व और तीर्थ
।
प्रथम अधिकार में कर्मसाहित्य का परिचय कराया गया है, जिससे जैन कर्मसिद्धान्त का परिचय सहज ही मिल जाता है दिगम्बरों के कर्मसाहित्य का और खट्खण्डागम कसायपाहुड का परिचय ८० पृष्ठो मे संक्षिप्त रूप मे कराया गया है। डा० मेहता अच्छे सुलेखक हैं उनकी लेखनी सद्भावपूर्ण स्पष्ट और सरल होती है। विषय का थोड़े शब्दो मे परिचय कराना यह उनकी विशेषता है। कर्म साहित्य का परिचय कराते हुए दिग म्वरीय कर्मसाहित्य की तालिका भी दी है। दिगम्बरीय कर्मसाहित्य के गोम्मटसार की दो टीकाओं का परिचय सम्भवतः मेहता जी को ज्ञात नहीं हो सका । अन्यथा वे उसका उल्लेख अवश्य ही करते। यद्यपि गोम्मट सार की प्राकृत टीका का परिचय अनेकान्त के वर्ष १४ किरण १ पु. २६ में मुस्तार साहबने कराया है, जो अजमेरके शास्त्र भंडार में सुरक्षित है। यह टीका अपूर्ण है इसी से वे उनके कर्तृव्य के सम्बन्ध में विशेष विचार नहीं कर सके हैं। पर उसके देखने से स्पष्ट बोध होता है कि यह टीका शक सं० २०१६ वि० सं० १९५१ में रचित गिरी कीर्ति की गोम्मट पजिका से पूर्ववर्ती है; क्योंकि कुछ वाक्यों की दोनों में समानता भी देखी जाती है। पंजिका का उल्लेख प्रा० प्रभयचन्द की मन्दप्रबोधिका टीका में निम्न वाक्यों में पाया जाता है :
" अथवा सम्मूच्छंन गर्भोपादात्तानाश्रित्य जन्म भव
तीति गोम्मट पंचिकाकारादीनामभिप्रायः । (गो० जी० म०प्र०टी० गा० ८३५० २०५ बड़ी टीका )
अभयचन्द की मन्दप्रबोधिका टीका का रचना काल ईसा की १३वी शताब्दी का तीसरा चरण (सन् १२७६ ) है । क्योंकि अभयचन्द्र का स्वर्गवास इसी समय हुआ है । इससे स्पष्ट है कि पत्रिका इससे पूर्ववर्ती है। पंजिकाकार गिरिकीर्ति ने उसका रचनाकाल शक संवत् १०१६ (वि० सं० ११५१ ) बतलाया है, जैसा कि उसकी निम्न गाथा से स्पष्ट है :
:
सोलह सहिय सहस्से गए सककाले पवमाणस्स । भाव समस्त समत्ता कत्तियणंदीसरे एसा | मेहताजी ने डड्ढा के संस्कृत पंचसंग्रह का रचना काल वि० की १७वी शताब्दी लिख दिया है, जो ठीक नहीं है, उड्ढा का पंचसंग्रह तो प्राचार्य प्रमितगति से भी पूर्ववर्ती है। सभवत: उसका समय विक्रम की दशवीं शताब्दी है ।
इसके अनन्तर श्वेताम्बर कर्मसाहित्य का परिचय कराया गया है उसके साहित्य की भी तालिका दी हुई है ।
दूसरे प्रागमिक प्रकरण के प्रारम्भ में ग्रंथों का परिचय दिया है उसमे बोधपाड की अन्तिम गाया के आधार पर विद्वान उन्हे भद्रबाहु का शिष्य मानते है । डा० सा० ने उस मान्यता को ठीक नहीं बतलाया, उस पर प्रामाणिक रूप से विचार करना श्रावश्यक था। डा० सा० ने उस वाक्य को चलती लेखनीसे ही लिख दिया जान पड़ता है। कुन्दकुन्दाचार्य भद्रवाह के साक्षात् शिष्य भले ही न हों किन्तु वे उनकी परम्परा के शिष्य थे। इससे कोई इंकार नहीं कर सकता। वे उनसे कुछ समय बाद हुए हों यह सम्भव है ।
तीसरे धर्मोपदेश प्रकरण में 'उपदेशमाला' जैसे ग्रंथों का परिचय कराया गया है और योग तथा अध्यात्म के प्रकरण में दोनों विषयों का अच्छा विवेचन किया गया