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पाण्डे लालचन्द का वरांगचरित
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और कवियों के अत्यन्त प्रिय नायक रहे है । उनके चरित तउग्रहीन के सुपुष्य हेत मै कियो सही ।। का प्राधार लेकर संस्कृत, प्राकृत व हिन्दी में पुस्कल- वरांग भूप के बड़े चरित्र को प्रबन्ध है। सृजन हुआ हैं । उसमे जटासिंहनन्दि का (७वीं शती) वरांग- सुधीन के सुचित कूहरै सदीव ग्रंथ है ॥१३-६७॥ चरित अधिक प्रसिद्ध है । यह संस्कृत भाषा में ३१ सर्गो भट्टारक श्री वर्धमान अत ही विसाल मति । मे निबद्ध है। और माणिकचन्द ग्रंथमाला से प्रकाशित कियौ संस्कृत पाठ ताहि समझ न तुच्छ मति ।। हो चुका है।
ताही के अनुसार अरथ जो मन मैं प्रायो। पाण्डे लालचन्द ने जिस वरांगचरित का प्राधार निज पर हित सुविचार लाल भाषा कर गायौ ।। लिया है भट्टारक वर्धमान द्वारा सस्कृत में रचित वरांग- जो छन्द अर्थ अनमिल कहं वरन्यौ सुजान के । चरित है। यह ग्रन्थ मराठी अनुवाद के साथ प्रकाशित हो लीजो संवार वधजन सकल यह विनती उर मानि के। चुका है परन्तु प्रयत्न करने के बावजुद उसे देखने का ग्रंथ संक्षेपसुअवसर नहीं मिल सका । अतः कहा नहीं जा सकता कि समूचा ग्रन्थ १३ सर्गों में विभक्त है। सक्षिप्त कथा पाण्डे जी ने इस ग्रंथ का अविकल हिन्दी पद्यानुवाद किया इस प्रकार हैहै अथवा उसका प्राधार लेकर नये ग्रंथ का निर्माण किया प्रथम सर्ग-मंगलाचरण तथा ग्रंथ के आधार है। प्रथम विकल्प अधिक सम्भावित है। उन्होंने लिखा आदि के विषय में लिखने के बाद कवि कथा प्रारम्भ
करता है । जम्बू द्वीप में भरत क्षेत्रवर्ती सोम्याजो वराग की कथा कही आग गन नायक । चल पर्वत के पास रम्या नामक नदी है। उसके किनारे अति विस्तार समेत मनोहर सुमति विधायक ।। कोतपुर नामक नगर बसा है। जैन मन्दिर व मुनियों से सोई काव्य अनूप काव्य रचना कर ठानी। शोभित उस ग्राम का अनोखा सौन्दर्य है। महिलायें भी भट्रारक श्री वर्धमान पडित वर ज्ञानी।।
रूप की निधान है । कोतपुर नगर (जटासिंहनन्दि के अनुतिनही को पुनि अनुसार ले मैं भाषा रचना करू। सार उत्तमपुर) का राजा हरिवंशोत्पन्न धर्मसेन था। जिन पर हित सुविचार के,,
उसकी ३०० पत्नियां थीं। उनमें मृगसेना और गुणदेवि कछ अभिमान निजि प्रघरूं ॥१-१२॥ मुख्य थी। महिषी गुणदेवि को पुत्र हुँप्रा जिसका नाम कहां श्री वरांग नाम भूपति की कथा,
वरांग रखा गया। वरांग की वाल्यावस्था और युवावस्था यह अति ही कटिन वर सस्कृत वानी हैं। का मुन्दर वर्णन है। इस सर्ग का नाम वंशोत्पत्ति है। कहां पून निहचै म अल्प मात्र मेरी मति,
द्वितीय सर्ग-युवक वरांग बिवाह के योग्य हुमा। ताकै कहिवे को निज मनसा में ठानी है।।
सभा में एक दिन भूपति के पास एक वणिक माया । उसने जैसै कल्पतरू साखा फल नभ पर,
समृद्धपुर नरेश घृतसेन और महाराज्ञी अतुला की राजसत वामन नर तीरी चाहै मूढता सुजानो है। कूमारी अनूपमा का उल्लेख किया। वणिक को विदाकर तैसे बाल ख्याल सम ग्रथ मै प्रारम्भ कीनौ,
धर्म सेन ने मन्त्रियों से विचार-विमर्श किया फलतः ललितवुधजन हासीकर कहैगो अज्ञानी हैं ।।१-३१॥
पुर नरेश देवसेन, वरांग के मामा विद्धपुर नरेश महेन्द्रदत्त, ग्रन्थ के अन्त में भी कवि ने स्पष्ट कर दिया है कि सिन्धुपुर नृपति तप, अरिष्टपुर नृपति सनतकुमार, मलय यह रचना भट्टारक वर्धमान द्वारा वरांगचरित के प्राधार देशाधिपति मकरध्वज, चक्रतुर नपति सुरेन्द्रदत्त, गिरिव्रजपुर पर प्रसूत हुई है
वज्रायुध, कौसलेश सिंघमित्र एवं अंगदेशाधिपति विनयमूल ग्रंथ अनुसार सब कथन आदि अवसान । वरत के पास निमन्त्रण भेजे । उक्त सभी राजा क्रमशः निज कपोल कल्पित कही वरनौ नाही सुजान ॥ सुनन्दा, वपुष्मती, यशोमति, वसुन्धरा, पनन्तसेना, प्रियसमस्त शास्त्र अर्थ को वियोज्ञ मौ विष नहीं। व्रता, सुकेसी और विश्वसेना नाम की अपनी-अपनी सुपुत्री