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________________ १४० अनेकान्त संस्कृति मानव के भूत, वर्तमान और भावी जीवन कण में समाये हुए हैं जिसे आगमों, वेदों और उपनिषदों का निर्माण करती है जीने की कला सिखलाती है। वह ने ध्याया है। क्रूरता से सुख न मिलने पर दया का प्रादुकल्पना मात्र नहीं है, जीवन का प्राणभूत तत्व है । नाना- र्भाव हुआ है। सघर्ष शान्ति का कारण न होने से दान । विध रूपों का समुदाय है। "सत्यं शिवं सुन्दरम्" का भोग में सुख प्राप्त न होने से दमन की क्रिया ।। ये मूल प्रतीक है। यह कभी रुकता नही है, पीढी-दर-पीड़ी पागे से एक होकर भी अनेक धारापो की प्रतीक समझी जाती बढ़कर धर्म; दर्शन, साहित्य और कला को प्राप्त कर लेता है। शरीर एक होते हुए भी विभिन्न ज्ञानों का अवयवों है; क्योकि सस्कृति मे निष्टा होने से मन की परिधि का प्रतीक समझा जाता है। इसे धरोहर की सम्पत्ति विशाल-विस्तीर्ण हो जाती है, उदारता की भावना झल- कहा जा सकता है जो स्थिर होते हुए भी चलायमान है। कने लगती है अत: इसकी उपयोगिता परमावश्यक है, सस्कृति अनेक धाराओं मे बहने वाली है एक स्थिर होने संस्कृति एक वृक्ष है, व्यक्ति, समाज और राष्ट्र उसकी पर भी। वेद मार्ग वैदिक सस्कृति है, पिटक मार्ग बौद्धशाखायें है और सभ्यता पल्लवित पत्ते है । राजनीति, अर्थ सस्कृति है और आगम मार्ग जन संस्कृति है। ये एक शास्त्र और समाजशास्त्र प्राधार है। होकर भी वैदिक बौद्ध और पागम के रूप से अनेक सस्कृति समाज, देश की विकृति को हटाने का एक धागों में प्रवाहित है जो अपनी-अपनी विशेषता रखती सर्वश्रेष्ठ साधन है; मानव-जीवन का उत्कृष्ट तत्त्व है। है । वेद दान की, बौद्ध दया की और पागम दमन की। मानाप्रकार के धर्म साधनों मे सामजस्य, कलात्मक प्रयत्न, भारत की संस्कृति का मूल तत्त्व अहिंसा और अनेयोगमूलक अनुभूति और परिपूर्ण कल्पना शक्ति से पवि- कान्त, समता और समन्वय है जो हजारों वर्षों से चले पा त्रता की ओर ले जाने वाली है। जो मनुष्य की विजय रहे है, साथ ही मनुष्य को समय-समय पर जागरण कराते पताका बनकर लहराने लगती है। इसी की साधना के रहे है। ऋषभदेव से लेकर गम तक और राम से लेकर बल पर विकृति से सस्कृति और सस्कृति से विकास की वर्तमान मे गाँधी यूग तक । यह ठीक है कि बीच-बीच में पोर निरन्तर गतिशील रहता है। इसकी आवश्यकता रुकावटें भी पायी, परन्तु वे सही मार्ग को बदल न सकी। मनुष्य में मनुष्यत्व लाने, राग द्वेष प्रादि विकृतियां हटाने महावीर ने जन-चेतना के समक्ष अहिंसा और अनेकान्त के लिए एवं प्रात्म-शोधन के लिये है। को प्रस्तुत किया, समन्वयात्मक धारा को बहाया, उदारता भारतीय संस्कृति विश्वास, विचार, प्राचार की जीती- और सहिष्णुता को दर्शाया, जो सत्य सिद्ध कहे जा सकते जागती महिमा है। जो संसार में मधुरता और सरसता हैं। दूसरों के मतों को प्रादर से देखना और समझना को फैलाने वाली है, स्नेह, सहानुभूति, सहयोग और सह- अनेकान्तवादी कहा जा सकता है। उदाहरण के तौर पर अस्तित्व को जाग्रत करने वाली है, अन्धकार से प्रकाश की सम्राट अशोक और हर्षवर्धन; जिन्होंने समान रूप से पोर ले जाने वाली है, पापसी भेद-भावरूपी कीचड़ से सभी धर्मों की सेवा की। मध्य युग में सम्राट अकबर ने निकालकर स्वच्छ जल से भिन्न कमल की ओर ले जाने और नवयुग में गांधी जी साक्षात् सिद्ध, सफल अभिनेता वाली है, विवेक की ओर ले जाने वाली है। ऐसे हितकारी रहे। जो दढ निश्चय विचारवादी थे, जन-जन को पावनमहिंसा के पुजारी, सत्य के प्रागार, समन्वय के आधार, पवित्र बनाने वाले थे। स्नेह, सहानुभूति और सद्भाव मधुरता, करुणा और वैराग्य के प्रतीक राम, कृष्ण, महा- सादि समता के सिद्धान्त इन्ही लोगों ने चित्रित किये और वीर, बुद्ध और गांधी हैं। जीते-जागते ज्वलन्त उदाहरण परस्पर की कटुता को बाहर निकाला। हैं । जो इस सिद्धान्त की कोटि में पा सकते है। संस्कृति का सम्बन्ध सभ्यता के साथ जुड़ा हुआ है। संस्कृति का मूल माघार मात्मा है जिसे "दयतां दोनों एक होते हए भी विचार-प्रधान और प्राचार-प्रधान दीयतां, दम्यताम्" इस एक सूत्र में बांधकर दूसरे शब्दों की दष्टि से अलग है। संस्कृति का सही तात्पर्य मोह के में दया, दान, दमन कह सकते हैं । ये जन-जीवन के कण- मावरण को हटाना है और सभ्यता का-सुसंस्कृत विचारों
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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