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हरिवंशपुराण की प्रशस्ति एवं वत्सराज
श्री रामवल्लभ सोमारणी
हरिवंशपुराण को पुन्नाट गच्छ के जिनसेनाचार्य ने नागभट्ट को राज्य विस्तार का मौका मिला था । लाट शक सं०७०५ मे पूर्ण किया था। इसकी बहुचचित के शासक अवनि जनाश्रय ने भी जुनैद से युद्ध किया था। प्रशस्ति में तत्कालीन भारत के राजामों का वर्णन है। उस समय कुछ समय के लिए अवन्ति प्रदेश नागभट्ट प्रथम इसको लेकर विद्वानों में बड़ा मतभेद रहा है। इसका के अधिकार में रहा था जिसे राष्ट्रकूट राजा दन्तिदुर्ग ने सामान्यतः यह अर्थ लेते हैं कि उस समय पूर्व में अवन्ति हस्तगत कर लिया था और इसके बाद कुछ समय तक क्षेत्र में वत्सराज शासक था। पश्चिम में सौराष्ट्र में वहाँ वापस प्रतिहारों का अधिकार नहीं हो सका था। जयवराह शासक था। दक्षिण में श्री वल्लभ (ध्रुव
वत्सराज के समय बड़ी राजनैतिक उथल पुथल हो निरुपम) एवं उत्तर में इन्द्रायुध । “पूर्वा श्री मदवन्ति
रही थी। दक्षिण के राष्ट्रकूट राजा गोविन्द द्वितीय को भूभृतिनृपे वत्सादिराजेऽपरां" पद का अर्थ यह भी लेते है
अपदस्थ करके उसका छोटा भाई ध्रुव निरुपम राज्य का कि पूर्व में प्रवन्ति का शासक एवं वत्सराज । प्रश्न यह है
अधिकारी हो गया था। भोर म्युजियम के शक सं० ७०२ कि वत्सराज अवन्ति का शासक था अथवा नही ! कई
(७८० ई.) के दानपत्र में वर्णित है कि ध्रुवराज ने विद्वान गुर्जर प्रतिहारों की इस शाखा कि राजधानी
मालवे के उस शासक को हराया जो उसके भाई के पक्ष अवन्ति मानते है किन्तु मै समझता हूँ कि यह मत गलत में था। यह वत्सराज से भिन्न था। गोविन्द तृतीय के
हार. शासक न इस शाखा राधनपुर' ७३० शकसं० (८०८ई०) एवं मन्ने के शकसं० की स्थापना की थी। पुरातन' प्रबन्ध संग्रह के एक वर्णन ७२४ (८०२ ई.) के दानपत्रों में उसके पिता ध्रुवराज के अनुसार इसकी राजधानी जालोर ही थी। इसके के लिए लिखा है कि उसने वत्सराज को हराया नहीं किन्तु उत्तराधिकारी कन्नौज राजधानी स्थिर होने तक यही से राजस्थान के रेगिस्तान की ओर बढ़ने को बाध्य कर शासन कर रहे थे। संजान के ताम्रपत्र में यह वर्णन है दिया। इसके पश्चात उसने आगे बढ़कर धर्मपाल को कि दन्तिदुर्ग ने जब अवन्ति में हिरण्य महायज्ञ किया था हराया और उसके छत्र और चवर छीन लिये। मालवे तब गर्जरेश्वर को द्वारपाल बनाया था इसी प्रकार वहाँ के शासक का उल्लेख गोविन्द तृतीय के उक्त दानपत्रों में गुर्जरेश्वर के महलों का भी उल्लेख मिलता है । गुर्जरेश्वर स्पष्टत: पाता है जो प्रतिहार शासकों से भिन्न था। को जो द्वारपाल के रूप में प्रतिष्ठापित किया वह केवल गोविन्द तृतीय के सामने उसने बिना युद्ध किये ही प्रात्ममूर्ति के रूप में रहा होगा। जयचंद ने भी इसी प्रकार समर्पण किया था। लेखों मे "नय प्रिय कह कर व्यग किया पृथ्वीराज की मूर्ति द्वारपाल के रूप में बना रखी थी। है। इस प्रकार स्पष्ट है कि उस समय प्रतिहारों का वहां परब माक्रमणकारी जुनैद के आक्रमण के बाद वस्तुतः अधिकार नही रहा था। अगर वत्सराज ने इसे कुछ १. अवंदादी नाहडतटाक कारयित्वा गर्जनप्रतोल्याः ।
समय के लिए जीत भी लिया हो तो उसकी यह विजय कपाटमादाय तत्र प्रचिक्षिपे । तथा जाबालिपरे राज- अस्थायी थी। वहां वत्सराज के अलावा कोई अन्य
धानिः कृता।" (पुरातनप्रबंध संग्रह भूमिका पृ० १५ . २. डा० दशरथ शर्मा-राजस्थान प्रदी ऐजज भाग १ ३. इंडियन एंटिक्वेरी Vol.5 एवं जैन लेख संग्रह भाग में प्रतिहारों का वर्णन ।
२ में प्रकाशित ।