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________________ १३० प्रादि विशेष स्थिति में सहयोग दिया जाता है। द्रव्यास्तिकनय कथा। इसी प्रकार निश्चय कथा के भी दो समवसरण-संभोग प्रकार हैं-प्रपवाद कथा भौर पर्यायास्तिकनय कथा । इस व्यवस्था के अनुसार समान कल्प वाले साधु एक प्रथम तीन कथाएं साध्वियों के साथ नहीं की जाती किंतु साथ मिलते हैं। प्रवग्रह की व्यवस्था भी इसी से अनु- अन्य-प्रसांभोगिक, अन्यतीथिक व गृहस्थ सभी के साथ स्यूत है। प्रवग्रह (अधिकृत स्थान) तीन प्रकार के होते की जा सकती है। है-वर्षा-प्रवग्रह, ऋतुबद्ध-अवग्रह और वृद्धवास-प्रवग्रह। इस प्रकार इन बारह संभोगों के द्वारा समानकल्पी अपने सांभोगिक साधुओं के प्रवग्रह में कोई साधु जाकर साधु-साध्वियों तथा असमानकल्पी साधूत्रों के साथ व्यवशिष्य, वस्त्र प्रादि का जान-बूझकर ग्रहण करता है तथा हार की मर्यादा निश्चित की गई है। इन व्यवस्थानों का अनजान में गृहीत शिष्य, वस्त्र प्रादि अवग्रहस्थ साधुनों अतिक्रमण करने पर समानकल्पी साधु का सम्बन्ध-विच्छेद को नहीं सौपता तो उसे असांभोगिक कर दिया जाता। कर दिया जाता। उदाहरण के लिए उपघि-संभोग की पार्श्वस्थ पादि का प्रवग्रह शुद्ध साधुनों को मान्य नहीं व्यवस्था प्रस्तुत की जा रही हैहोता, फिर भी उनका क्षेत्र छोटा हो मोर क्षुब्ध साधुओं कोई साधु उपषि की मर्यादा का प्रतिक्रमण कर का अन्यत्र निर्वाह होता हो तो साधु उस क्षेत्र को छोड़ उपधि ग्रहण करता है। उस समय दूसरे साधुभों द्वारा देते हैं। यदि पार्श्वस्थों मादि का क्षेत्र विस्तीर्ण हो और सावधान करने पर वह प्रायश्चित् स्वीकार करता है तो शद्ध साधूमों का अन्यत्र निर्वाह कठिन हो तो उस क्षेत्र में उसे विसांभोगिक नही किया जाता। इस प्रकार दूसरी साधू जा सकते है और शिष्य, वस्त्र प्रादि का ग्रहण कर और तीसरी बार भी सावधान करने पर वह प्रायश्चित सकते हैं। स्वीकार करता है तो उसे विसाभोगिक नही किया जाता। संनिषधा-संभोग किन्तु चौथी बार यदि वह वैसा करता है तो उसे विसांइस व्यवस्था के अनुसार दो सांभोगिक प्राचार्य भोगिक कर दिया जाता है। जो मुनि अन्य सांभोगिक निषद्या पर बैठकर श्रुत-परिवर्तना प्रादि करते है। साधुनों के साथ शुद्ध या अशुद्ध-किसी भी प्रकार से उपधि कथा-प्रबन्ध-संभोग ग्रहण करता है और सावधान करने पर वह प्रायश्चित इसके द्वारा कथा सम्बन्धी व्यवस्था दी गई है। कथा स्वीकार नही करता तो उसे प्रथम बार ही विसांभोगिक के पांच प्रकार हैं-बाद, जल्प वितण्डा, प्रकीर्णकथा और किया जा सकता है और यदि वह प्रायश्चित स्वीकार कर निश्चयकथा प्रकीर्णकथा के दो प्रकार हैं-उत्सर्ग कथा और लेता है तो उसे विसाभोगिक नहीं किया जा सकता। चौथी बार वैसा कार्य करने पर पूर्वोक्त की भांति उसे १. वही, पृ० ३५१; समवायांग वृत्ति, पत्र २२। विसांभोगिक कर दिया जाता है। यह उपधि के प्राधार २. निशीथ चूणि (निशीथ सूत्र, द्वितीय विभाग), पृ० __३५३; समवायांग वृत्ति, पत्र २२ । पर संभोगिक और विसभोग की व्यवस्था है। ३. वही, पृ० ३५४; समवायांग वृत्ति, पत्र २३ । ४. वही, पृ० ३५४, ३५५ । ५. वही, पृ० ३४२ । - सन् १६७१ कीजनगणना के समय धर्मके खाना नं. १० में जैन लिखाकर सही आँकड़े इकट्ठा करने में सरकार की मदद करें।
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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