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________________ बारह प्रकार के संभोग (पारस्परिक व्यवहार १२६ उवहि सुत मत्तपाणो, अंजलीपग्गहेति य। गिक साधुनों की वन्दना की जाती है। साध्वी को साधु दावणा यणिकाएव, अब्भटठाणेति यावरे ।२०७१। वन्दना नहीं करते । साध्वियों पाक्षिक क्षमा याचना मादि कितिकम्मस्स य करणे, वेयावच्चकरणेति य । कार्य के लिए साधुमों के उपाश्रय मे जाती हैं, तब साधुनों समोसरण सणिसेज्जा, कथाए य पबंधणे ।२०७२। को वन्दना करती हैं। जब वे भिक्षा मादि के लिए जाती निशीथ भाष्य के अनुसार स्थितिकल्प, स्थापनाकल्प हैं तब मार्ग में साधुनों के मिलने पर उन्हें वन्दना नहीं मोर उत्तरगुणकल्प-ये कल्प (माचार-मर्यादा) जिनके करती है। समान होते हैं, वे मुनि सांभोगिक कहलाते है और जिन वान-संभोगमुनियों के ये कल्प समान नही होते वे असांभोगिक या इस व्यवस्था के अनुसार समान कल्प वाले साधुनों विसांभोगिक कहलाते है। को शय्या, उपधि, पाहार, शिष्य प्रादि दिये जाते है । उपषि-संभोग सामान्य स्थिति में साध्वी को शय्या, उपधि, पाहार मादि इस व्यवस्था के अनुसार समान कल्प वाले साधुनों नहीं देते। के साथ उपधि-ग्रहण की मर्यादा के अनुसार उपधि का निकाचना-संभोगसंग्रह किया जाता है। निशीथ भाष्य के अनुसार सांभो- इस व्यवस्था के अनुसार समान कल्प वाले साधुमों गिक साध्वी के साथ निष्कारण अवस्था मे उपधि-याचना को उपधि, आहार आदि के लिए निमन्त्रित किया जाता का संभोग वजित है। श्रुत-संभोग अभ्युत्थान-संभोग__ इस व्यवस्था के अनुसार समान कल्प वाले साधुनों इस व्यवस्था के अनुसार समान कल्प वाले साधुओं को याचना दी जाती है। वाचनाक्षम प्रतिनी के न होने को अभ्युत्थान का सम्मान किया जाता है । पर प्राचार्य साध्वी को वाचना देते है'। कृतिकर्मकरण-संभोगभक्त-पान-संभोग इस व्यवस्था के अनुसार समान कल्प वाले साघुमों इस व्यवस्था के अनुसार समान कल्प वाले साधुमो का कृतिकर्म किया जाता है । इसमें खड़ा होना, हाथों से के साथ एक मण्डली भोजन किया जाता है । समान कल्प आवत्तं देना, सूत्रोच्चारण करना आदि अनेक विधियों का वाली साध्वी के साथ एक मण्डली में भोजन नही किया पालन किया जाता है। जाता। वैयावत्यकरण-संभोगअंजलि-प्रग्रह संभोग इस व्यवस्था के अनुसार समान कल्प वाले साधुओं इस व्यवस्था के अनुसार सांभोगिक या अन्य सांभो- को सहयोग दिया जाता है। शारीरिक और मानसिक १. वही, गाथा २१४६ । सभी प्रकार की समस्याओं के समाधान में योग देना वैयाठितिकप्पम्मि दसविहे, ठवणाकप्पे य दुविधमण्णयरे। वृत्यकरण है। जैसे आहार, वस्त्र प्रादि देना शारीरिक उत्तरगुणकप्पम्मि य, जो सरिकप्पो स सभोगो।। उपष्टभ है, वैसे ही कलह आदि के निवारण में योग देना २. निशीथ भाष्य, गाथा २०७८ । मानसिक उपष्टंभ है। सांभोगिक साध्वियों को यात्रा-पथ ३. निशीथ चुणि (निशीथ सूत्र, द्वितीय विभाग), ५. वही, पृ० ६४६ । पृ० ३४७ । ६. वही, पृ० ३४६ । संजतीण जइ प्रायरिय मोत अण्णा पवतिणीमाती ७. नशीथ चूणि (निशीथसूत्र, द्वतीय विभाग), वायंत्ति णत्यि, मायरियो वायगातीणि सवाणि पृ० ३५० : एताणि देति न दोसः । ८. वही, पृ० ३५० । ४. वही, पृ० ३४८ । ६. वही, पृ० ३५१ ।
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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