SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 99
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८६ अनेकान्त "प्रायो, हम सब मिलकर चलें, मिलकर बैठें, मिल- आधारशिला है। जहाँ मानवता एवं सर्वोदय की भावना कर समस्याओं का हल करें, कन्धे से कन्धा मिलाकर नहीं वहाँ 'धर्मत्व' नहीं। जब मानवता का जीवन में सब कल्याण-पथ पर आगे बढ़ते चलें ताकि हम मानव साक्षात्कार हो जाता है तब प्रत्येक मानव का यह ध्येय मिलकर रहे । परस्पर विचार्गे मे भेद है, कोई भय नही, मन्त्र बन जाता है कि-'मैं सर्वप्रथम मानव हूँ। मै कार्य करने की पद्धति भिन्न है, कोई खतरा नहीं, सोचने अपना मानव धर्म समझे और मानव-समाज के कल्याण का तरीका अलग है, कोई डर नहीं क्योंकि सबका तन के लिए जीऊं-यह मेरा पहला कर्तव्य है क्योंकि सभी भले ही भिन्न हों पर मन सबका एक ही है, हमारे सुख- धर्म महान् है लेकिन मानवधर्म उससे भी महानतम है । दुख एक-से हैं । हमारी समस्याएं समान है। क्योंकि हम जब मानवधर्म का जीवन मे साक्षात्कार हो जाता है तब सब मानव है और मानव एक साथ ही रह सकते हैं, अपने माने हुए राष्ट्र, समाज व धर्म के क्षुद्र सीमा-बधन बिखर कर नहीं, बिगड़ कर नही।" टूट जाते है और 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की विराट भावना जो अणु-अस्त्र या युद्ध मे विश्वास करता है वह स्वतः पैदा हो जाती है। यह महान् मानवधर्म इतना भौतिक शक्ति का पुजारी है, वह अपनी जीवन-यात्रा अणु- सीधा-सादा है कि उसे एक ही वाक्य 'प्रात्मवत् सर्वभूतेषु' अस्त्र पर चला रहा है लेकिन जो सह-अस्तित्व एव पार- में प्रकट कर सकत है। स्परिक सहयोग में विश्वास करता है वह अध्यात्मवादी भ. महावीर समता, शान्ति, श्रमशीलता को अपना है। पश्चिमी राष्ट्र अधिक भौतिकवादी है जब कि पूर्व जीवन ध्येय बनाकर 'श्रमण' बन थ और उनकी श्रमणअध्यात्मवादी है। एक देह पर शासन कर रहा है और सस्कृति का मूलमन्त्र भी सह-अस्तित्व एव विश्व शाति था। दूसरा देही पर । एक तीर-तलवार मे विश्वास करता है आज से करीबन ढाई हजार वर्ष पूर्व मानवता एव और दूसरा मानव के अन्तर मन मे, मानव के सहज स्वा. समानता क प्रखर स्वरवाहक, हिसक समाज-क्रान्ति के भाविक स्नेह-शीलता में। एक मुक्का तानकर सामने अग्रदूत महामानव महावीर ने आध्यात्मिकता के आधार प्राता है और दूसरा मिलने के लिए प्यार का, शान्ति पर हिसा, अनेकान्त एव अपरिग्रह द्वारा "जीमो और तथा मत्री का हाथ बढाता है। जीने दो" का जीवन-सन्देश दिया था। महामानव महाआखिर जीवन-धम क्या है ? सब के प्रति मगल वीर ने मानवधर्म का स्वरूप बतलाते हुए स्पष्ट उद्घोभावना, शुभ कामना । सबक सुख मे सुखबुद्धि और दुःख षणा की थी- 'धम्मो मंगलमक्किट्ठ अहिंसा, संजमो, मे दःखद्धि । समता-योग की, सदिय की इस विराट तवो। जो धर्म अहिंसा, संयम एवं तप प्रधान होता है एव पवित्र भावना को 'धर्म' के नाम से सबोधित किया वह विश्वकल्याणकारी-मगलमय ही होता है । उनके समग्र गया है । अहिंसा, सयम एव तपमूलक मंगलधर्म के पालन जीवन एव उपदेश का सार प्राचार मे सम्पूर्ण अहिंसा एवं से ही विश्वकल्याण सभवित है। विचार में अनेकान्तवाद था। अहिंसा द्वारा विश्वशान्ति सभी धर्म केवल मानव-मानव के बीच ही नही, समग्र और अनेकान्त द्वारा विश्वमैत्री का मूलमन्त्र दिया था। विश्व प्राणियो के प्रति स्नह-सद्भाव, मैत्रीभाव, गुणिजनों भ. महावीर ने जीवन की समता एवं शान्ति के लिए के प्रति प्रमोदभाव, दुःखी प्राणियों के प्रति करुणाभाव एवं अहिंसा के तीन रूप बताये है :-समानता, प्रेम, और दुश्मनों के प्रति माध्यस्थभाव स्थापित करने के लिए हैं। सेवा। जो धर्म रगभेद, जातिभेद, वर्णभेद या क्षेत्रभेद को लेकर समानता मानव-मानव के बीच दरार डालते हैं, तिरस्कार, नफरत प्रत्येक प्राणी को प्रात्मतुल्य समझो यही सामाजिक पंदा करते है वे वास्तव मे धर्म ही नहीं हैं, ये तो केवल भावना का मूलाधाम है। उनका यह उद्देश्य था किधर्मभ्रम है। मनुष्य धर्म का इसलिए पालन करता है कि सध्ये पाणा पियाउया, सुहसाया, दुक्ख-पडिकूला। वह सच्चे अर्थ में 'मानव' बने । मानवता ही धर्म की अप्पियवहा, पियजीवणो, जीवि कामा।
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy