SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४ अनेकान्त सुदृढ़ और अलकृत दुर्ग होता था, जिसके चारों ओर एक पोसत क्षत्रप या सामन्त का प्रतीक अवश्य माना जा योजनाबद्ध भवनो की पक्तियाँ होती थी। नगरी में ज्यों- सकता है। इस लेख में पाये विवरण स्त्रियों की दशा ज्यों बाहर से भीतर की ओर बढ़ा जाता, त्यो-त्यों भवनों पर भी अच्छा प्रकाश डालते है। बहपत्नी प्रथा का उन की ऊँचाई भी बढती जाती थी। भवनों की गणना रेखा- दिनों जोरदार प्रचलन था. पर स्त्रियो में सदाचार पर गणित के प्रांधार पर की जा सकती थी। सार्वजनिक जनिक बल दिया जाता था वे विविध कलाओं में जिनमे रतिकला उपयोग के लिए सभाएं (विशाल हाल) होते थे। उनमे की प्रमुखता थी, निपुण होती थी। से सुधर्मा सभा, उपपाद सभा, अभिषेक सभा, अलकार इस लेख में पाये विवरणों से तत्कालीन धार्मिक सभा और मन्त्र सभा उल्लेखनीय थी। भवनो की साज मान्यता का भी अच्छा परिज्ञान होता है। प्रत्येक नगरी सज्जा रत्नों, स्वर्ण, चित्रकारी, पताकामो आदि द्वारा में जैन मन्दिर अवश्य हा करता था। उन दिनो तक होती थी और उनमे नृत्य संगीत आदि के प्रायोजन होते यक्षों और देवों की पूजा का प्रचलन नही हुया था, उनकी रहते थे। उपवनों मे अशोक, सप्तवर्ण, चम्पक, ग्राम मान्यता तीर्थकरों के भक्तो के रूप मे थी। वे जैन मन्दिरों आदि की प्रधानता थी। चैत्य वृक्ष को विशेष महत्व दिया मे जाकर समय-समय पर धर्मोत्सवों का आयोजन करते जाता था। थे । सुधर्मा सभा कदाचित् धार्मिक व्याख्यानो और स्वा____ गुप्त युग के जो कुछ मन्दिर आज भी ध्वंसावशिष्ट ध्याय के उपयोग मे पाती थी। इसी प्रकार अभिषेक है। उन्हे देखकर यह कल्पना नहीं की जा सकती कि उस सभा मे कदाचित् तीर्थकर की मूर्ति के अभिषेक आदि समय यहाँ भवन-निर्माण कला इतनी विकसित हो चुकी अनुष्ठान सपन्न होते थे। थी। परन्तु, दूसरी ओर काल का कराल परिपाक, मौसम तिलोयपण्णत्ती में द्वितीय जम्बूदीप आदि जैसे कुछ के निर्दय थपेड़ों और प्राततायियों की निर्मम तोडफोड़ और भी से विषय है जिनका उल्लेख अन्यत्र नही का स्मरण पाते ही मजुर करना पड़ता है कि तिलोय- मिलता, इस दृष्टि से भी यह प्रथ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। पण्णत्ती और तत्सदश ग्रन्थो के विवरण कागज पर ही न प्राशा. है. इस तथा ऐसे ही ग्रथो को धार्मिक अध्ययन रहते होगे उन पर अमल भी किया जाता होगा। के ही दायरे से निकाल कर इतिहास, भूगोल, खगोल, प्रस्तुत लेख में पाये विवरणों मे देवों के रहन सहन, सस्कृति, समाज आदि के अध्ययन का भी विषय बनाया तौर-तरीकों, धार्मिक मान्यता, वर्ग-विभाग प्रादि पर जायगा । विशद प्रकाश पड़ता है। यदि इन विवरणों का प्रादर्श २०. देखिए 'ति०प०' (सोलापुर), भाग २, प्रस्तावना, तत्कालीन मनुष्यों से लिया गया माना जाय तो गुप्त पृ०१५। कालीन संस्कृति और सभ्यता हमारे समक्ष और भी २१. 'हरिवश' (५, ४१६) मे ऐसी ही सभाओ मे एक अधिक विस्तृत, स्पष्टतर एवं सप्रमाण हो उठेगी । विजय व्यवसाय सभा का भी उल्लेख है, जो आजकल के नामक देव की तत्कालीन सम्राट् का तो नही, पर उसके बाजार या मडी के रूप में प्रयुक्त होती होगी। आत्म अनुभव की महत्ता कविवर भागचन्द आतम अनुभव आवै जब निज, आतम अनुभव पावै । और कछू न सुहावै ।।टेक।। रस नीरस हो जात ततच्छिन, अक्ष विषय नहीं भावै ।।१।। गोष्ठी कथा कौतूहल विघट, पुद्गल प्रीति नसावै ।।२।। राग दोष जुग चपल पक्षजुत, मन पक्षी मर जावै ।।३।। ज्ञानानन्द सुधारस उमग, घट अंतर न समावै ॥४॥ 'भागचंद' ऐसे अनुभव के हाथ जोरि सिरनावै ।।६।।
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy