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पलब्धपर्याप्तक और निगोव
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रहती है। ऐसा मूलाचार पर्याप्ति अधिकार की गाथा केवल निगोद मे ही नही, अन्य स्थावरों और त्रसों में भी १७५-१७८ और त्रिलोकप्रज्ञप्ति अधिकार ४ गाथा २६३४ होते है। जहां वे एक उच्छवास में १८ बार जन्म-मरण मे कहा है।
करते है। इसलिए एक श्वास में १८ बार जन्म-मरण जिस प्रकार सभी सम्मूच्छिम मनुष्य अलब्ध पर्याप्तक करना यह निगोदिया का कतई लक्षण नहीं है। किन्तु एक होते है और उनकी काय एक अंगुल के असंख्यातवें भाग- शरीरमे अनत जीवों का रहना यह निगोद का निर्बाध लक्षण प्रमाण की होती है, उस प्रकार से न तो सभी सम्मूच्छिम है। निगोद का ही दूसरा नाम साधारण वनस्पति है जिन्हें पचेद्रियतिर्यच अलब्धपर्याप्तक होते है और न उन सबकी अनंतकाय भी कहते है । एक शरीर में रहने वाले वे मनत काय एक अंगुल के असख्यातवें भाग की ही होती है। जीव सब साथ-साथ ही जन्मते है साथ-साथ ही मरते हैं बल्कि सम्मूच्चिम पचेद्रियतियच मत्स्य की काय तो एक
और साथ-साथ ही श्वास लेते है । एक श्वास में १५ बार हजार योजन की लिखी है। जबकि गर्भज तिर्यचो में
जन्म मरण करने वाले प्रलब्धपर्याप्तक जीव तो न तो साथकिसी भी तिर्यच की काय पाच सौ योजन से अधिक नहीं
साथ जन्मते-मरते है, न साथ-साथ श्वास लेते हैं और न लिखी है। तथा न केवल सम्मूच्छिम पचेद्रिय तिर्यच ही
उन बहुतसो का कोई एक शरीर ही होता है। हां अगर कि-तू एकेद्रिय से चौइद्रिय तक के तिर्यच भी सब ही
हा ये जीव साधारण-निगोद में पैदा होते है तो बेशक वहा वे पलब्धपर्याप्तक नही होते है। हा जो तिर्यच अलब्धपर्या
सब साथ-साथ ही जन्मते-मरते और श्वास लेते है। ये ही प्तक होते है उन सबकी काय अलवत्ता एक अगुल के
अलब्धपर्याप्तक जीव वहां एक श्वास में १८ बार जन्मअसख्यातवे भाग की होती है। किन्तु इसमे भी तरतमता
मरण करते है। इनसे अतिरिक्त अन्य जीव निगोद में रहती है। क्योकि असख्यातवे भाग के भी हीनाधिक भाग।
एक श्वास में १८ बार जन्म-मरण नहीं करते है। तात्पर्य होते है। इसलिए तो पागम में लिखा है कि-सबसे छोटा
यह है कि समस्त निगोद मे पर्याप्तक जीव भी होते है।
उनमें से अलब्ध पर्याप्तक जीव ही सिर्फ एक श्वास में १८ अगर सभी अलब्धपर्याप्तको के शरीरो का प्रमाण एक
बार जन्म-मरण करते हैं, पर्याप्तक नही। पर्याप्तक जीव समान होता तो केवल सूक्ष्मनिगोदिया का ही नाम नहीं भी वहां अनतानत है जिनकी संख्या हमेशह अलब्धपर्यालिखा जाता। (देखो त्रि० प्रज्ञप्तिद्वि० भाग पृ० ६१८)। प्तकों से अधिक रहती है। निगोद ही नहीं अन्यत्र सा
अलब्धपर्याप्तक जीव सूक्ष्म और बादर दोनो तरह के दिकों में भी जो प्रलब्धपर्याप्तक जीव होते है वे ही एक होते हैं। तथा ये प्रत्येक वनस्पति और साधारण वनस्पति श्वास मे १८ बार जन्म-मरण करते है, सब नही। सिद्धांतकायिक ही नहीं किन्तु सभी स्थावरकाय और सम्मूच्छिम- ग्रंथों मे इतना स्पष्ट कथन होते हुए भी लोगों में भ्रांत बसकाय के धारी होते है। तथा ये एक श्वास मे १८ धारणा क्यों हुई? हम
धारणा क्यों हुई? इसका कारण निम्नांकित उल्लेख बार जन्म-मरण करते है।
ज्ञात होते हैं :कितने ही शास्त्रसभा मे भाग लेने वाले जनी भाई यह
(१) स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा की संस्कृत टीका (शुभसमझे हुए है कि-जो १ श्वास मे १८ बार जन्म-मरण
चन्द्रकृत) पृ० २०५ गाथा २८४ में-निगोदेषु जीवो करते है वे निगोदिया जीव होते हैं। यह उनकी भ्रांत
अनंतकालं बसति । ननु निगोदेषुएतावत्कालपर्यन्त धारणा है । एक श्वास में १८ बार जन्म-मरण करना यह
स्थितिमान् जीवः एतावत्कालपरिमाणायुः किं वा अन्यदायुः निगोदिया जीव का लक्षण नहीं है। यह तो अलब्धपर्या
इत्युक्ते प्राह-"प्राउपरिहीणो" इति प्रायुः परिहीन: प्तक जीव का लक्षण है। ऐसे लब्धपर्याप्तक जीव तो
उच्छ्वासाष्टावकभागलक्षणान्तमुहूर्तः स्वल्पायुविशिष्टः ४. देखो स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा-उस्सासदारसमे, भागे- प्राणा
से भारे प्राणी। इसका हिन्दी अनुवादक जी ने कोई अनुवाद नहीं जो मरदि ण समाणेदिएक्को विय पज्जत्ती किया है, इसका हिन्दी अर्थ इस प्रकार है :-निगोद में लद्धि अपुण्णो हवे सो दु॥१३७॥
जीव अनंतकाल तक रहता है इससे क्या निगोद की इतनी