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अनेकान्त
वंदिवि सिरि जस कित्ति प्रसंगो।
सम्बन्ध में कुछ नही लिखा। इनका समय सं० १४८०
-सन्मति जिनच० से १५१० तक तो है ही, उसके बाद वे कब तक इस भूभाग यशःकोति प्रसंग (परिग्रह रहित) भव्य रूप कमलों को अलंकृत करते रहे यह अन्वेषणीय है। प्रापके अनेक को विकसित करने के लिये मूर्य के समान थे, वे यशःकीर्ति शिष्य थे । और आपने अनेक देशों में विहार करके जिन वन्दनीय हैं। काष्ठासंघ माथुर गच्छ की पट्टावली में भी शासन को चमकाने का प्रयत्न किया था। यह प्रतिष्ठाउनकी अच्छी प्रशंसा की गई है। जिनकी गुणकीर्ति प्रसिद्ध चार्य भी थे । आपके द्वारा प्रतिष्ठित अनेक मूर्तियां होंगी। थी । पुण्य मूर्ति और कामदेव के विनाशक अनेक शिष्यों किन्तु उनका मुझे दर्शन नहीं हमा। ग्वालियर भट्टारकीय से परिपूर्ण, निर्ग्रन्थ मुद्रा के धारक, जिनके चितग्रह में भंडार मे उनके द्वारा रचित अन्य ग्रन्थ भी उपलब्ध हो जिन चरण-कमल प्रतिष्ठित थे-जिन भक्त थे और सकते हैं। और मूर्तिलेख भी, ग्वालियर का भट्टारकीय स्याद्वाद के सत्प्रेक्षक थे। इनकी इस समय चार कृतियां मन्दिर बन्द होने से मैं उनके लेखादि नहीं ले सका । इनके उपलब्ध हैं। पाण्डव पुराण, हरिवंश पुराण, आदित्यवार समय में कवि रइधु ने अनेकों ग्रन्थों की रचना की है। कथा और जिन रात्रि कथा ।
मलयकोति-यह यशःकीति के पट्टधर थे। अच्छे प्रापके द्वारा लिखवाए हुए दो ग्रंथ विबुध श्रीधरकृत विद्वान और प्रतिष्ठाचार्य थे। कवि रइधु ने प्रापका निम्न भविष्यदत्त चरित्र और सुकमाल चरिउ स० १४८६ में लिखे वाक्यों से उल्लेख किया है :गए थे। आपने अपने गुरु को अनुमति से महाकवि स्वयं
उत्तम खम वासेण प्रमंदउ, भदेव के खडित एवं जीर्ण-शीर्ण दशा को प्राप्त हरिवश
मलयकिस्ति रिसिवर चिरुणंदउ । पुराण का ग्वालियर के समीप कुमार नगर मे पणियार के
-सम्मइ जिन चरिउ जिन चैत्यालय में श्रावक जनों के व्याख्यान करने के लिये
काष्ठासंघ स्थित माथु रगच्छ पदावली में भी, दीक्षा उद्धार किया था। इनकी दोनों पुराण रचना स. १४६७ देने में सुदक्ष, सहृदय, सच्चरित, मुक्तिमार्गी, लोभ, क्रोध, और १५०० की है। यह भ० पद पर कब प्रतिष्ठित हुए और मायारूप मेघों को उड़ाने के लिये मारुति (वायु) देव और कब उसका परित्याग कर अपने शिष्य मलयकीर्ति थे। वे मलयकीति जयवन्त हों। को उस पर प्रतिष्ठित किया, इसका कोई प्रामाणिक
२. तं जसकित्ति-मुणिह उद्धरियउ, उल्लेख नहीं मिलता है । कवि रघु ने भी इनकी मृत्यु के
णिएवि सुत्तु हरिवसच्छचरिउ । काष्ठासंघे माथुरान्वये पुष्करगणे प्राचार्य श्री सहस णिय-गुरु-सिरि-गुणकित्ति-पसाएं, (स) कीति देवास्तत्प? प्राचार्य गुणकीर्तिदेवास्त- किउ परिपुण्णु पणहो प्राणुराए । च्छिष्य श्री यशःकीर्तिदेवास्तेन निजज्ञानावरणी सरह सणेद (?) सेठि पाएस, कर्मक्षयार्थ इद भविष्यदत्त-पंचमी कथा लिखापितम् । कुमर-णयरि प्राविउ सविसेसें।
-जैन नया मन्दिर धर्मपुरा, दिल्ली गोवग्गिरिहे समीवे विसालए, स० १४८६ वर्षे प्राश्वणि वदि १३ सोमादिने पणियारहे जिणवर-चेयालए। गोपाचलदुर्ग राजा डूगरेन्द्रसिंह देव राज्य प्रवर्तमाने सावयजणहो पुरउ वक्खाणिउ, श्री काष्ठासघे माथुरान्वये पुष्करगणे प्राचार्य श्री दिद मिच्छत्तु मोहु अवमाणिउ । हरिवंश पुराण प्र. भावसेनदेवास्तत्प? थीसहस्रकीतिदेवास्तत्पटे ३. दीक्षादाने सुदक्षोवगतगुरु शिष्यवा क्षेत्रनाथ । श्रीगुणकीर्तिदेवास्तशिष्येन श्रीयशःकीर्तिदेवेन ध्यायतन्त श्रान्त शिष्टं चरित सहृदयो मुक्तिमार्गे।। निजज्ञानावरणी कर्म क्षयार्थ इद सुकमालचरित
यो लोभक्रोध मायाजलद विलयने मारुतो माथुरेशः । लिखापितम् कायस्थ याजन पुत्र थलू लेखनीयं ।
काष्ठासघे गरिष्ठो जयति स मलयाद्यस्तत: कोतिसूरिः। -सुकमालचरित प्रश.
-काष्ठासघ मा०प्र०