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________________ २६२, वर्ष २२ कि०६ अनेकान्त जाते है। यह जानने के लिए आप संस्कृत के सुकवि का बोषितोऽपि वह मुक्ति विस्तरः, निम्नलिखित श्लोक पढिये कि खलो जगति सज्जनो भवेत । प्रकरुणत्वमकारणविग्रहः, स्नापितो बहुशो नदी जलः, परधने परयोषिति च स्पृहा । गर्वभ. किम हयो भवेत् ॥ सुजन बन्धु जनेष्वसहिष्णुता, बहुत सी मुन्दर सूक्तियो द्वारा समझाये जाने पर प्रकृतिसिद्धमिदं हि दुरात्मनाम्॥ क्या दुष्ट व्यक्ति ससार मे सज्जन हो सकता है ? नहीं, अर्थात् निर्दय होना, बिना कारण लडाई-झगडा करना, कद पि नही । गघे को कितनी नदियों के जलसे स्नान क्यों दूसरे का धन चाहना, दूसरे की स्त्री की इच्छा करना, न कराया जाय पर वह घोडा बनने वाला नहीं । गधा तो सज्जन बन्धुप्रो के प्रति असहनशील होना, यह तो दुर्जनो गधा ही रहेगा। का जन्म सिद्ध अधिकार है । ___ यदि आप दुर्जनों को पहिचानना चाहे तो नीचे और तो और दर्जन से प्रेरित व्यक्ति सज्जनो का लिखा श्लोक पढे वैसे ही विश्वास नही करते है, जैसे दूध का जला बालक मुख पदलाकारं वाचा चन्दनशीतला । दही या छाछ को भी फक-फक कर पीता है। यह बात हृदयं क्रोध संयुक्तं त्रिविधं धूतलक्षणम् ॥ एक कवि ने श्लोक मे यो प्रथित की है। दुर्जन दूषित मनसा पुंसा, सुजनेऽपि नास्ति विश्वास । कमल के पत्ते जैसा मुख, चन्दन जैसी शीतल वाणी बालः वायस दग्धो दध्यपि फुत्कृत्य भक्षयति ॥ और क्रोधयुक्त हृदय, इत तीन लक्षणों से किसी भी धूर्त या दुर्जन को पहिचाना जा सकता है । सज्जन-दुर्जन दुर्जन व्यक्ति अपने नही दूसरों के ही दोष देखता है। सज्जनों और दुर्जना के कार्य को बतलाने के लिए यह बात सस्कृत भाषा के एक सस्कृत कवि ने इस प्रकार एक मुन्दर श्लोक हैकही है। अन कुरुतः खल सुजनावग्रिम पाश्चात्य भागयोः सच्याः । खलः सर्षपमात्राणि परच्छिद्राणि पश्यति । विदधाति रन्ध्रमेको गणवान्यस्त विदधाति ।। प्रात्मनो विल्व मात्राणि पश्यन्नपि न पश्यति ।। अर्थात् सुई के अगल-पिछले भागो के समान दुर्जन दुष्ट व्यक्ति दूसरो के तो सरसों के दाने जैसे भी और सज्जन काम करते है। सूई का अगला भाग दुर्जन दोष देख लेता है पर अपने बेल जैसे भी बड़े दोष देखता जमा करता है और पिटला भाग सज्जन जैसा उस हुप्रा भी नही देखता है। ___ छेद को बन्द करता है। इसलिए उसकी प्रकृति को बदलना असम्भव है। दूसरे शब्दों मे 'दुर्जन पुरुष वह मिट्टी का घडा है जैसे नीम का पेड़ घी-दूध से बार-बार सीचे जाने पर भी । जिसे तोडना जितना सरल है जोडना उतना ही जटिल है अपनी कटुता को नहीं छोड़ता है, वैसे दुर्जन व्यक्ति भी और सज्जन पुरुष वह सोने का घडा है, जिसे तोड़ना बहुत बार सेवा किये जाने पर भी, सज्जनो के सम्पर्क मे + सम्पक म कठिन है पर जोड़ना अतीव सरल है। यह बात प्राप प्राने पर भी अपनी दुर्जनता को नहीं छोडता है। यह बात एक कवि के शब्दों मे यो हृदयंगम कीजियेआप एक कवि के शब्दो में यो स्मरण रखिए मृदुघटवत् सुखभेद्यो दुःसन्धानश्च दुर्जनो भवति । न दुर्जनः सज्जनतामुपैति, बहुप्रकारैरपि सेव्यमानः - सुजनस्तु कनक घटवत् दुर्भधश्चाश सन्धयः॥ भूयोऽपि सिक्तः पयसा घृतेन, न निम्बवृक्षो मधुरत्वमेति ॥ सज्जनों और दर्जनो को मित्रता के सम्बन्ध मे एक दुर्जन को बदलना असम्भव ही है। यह बात एक बड़ा ही सुन्दर श्लोक संस्कृत वाङ्मय में मिलता है और दूसरे कवि ने और भी अच्छे ढंग से यों कही है वह यह है
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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