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संस्कृत सुभाषितों में सज्जन-दुर्जन
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प्रारम्भ गुरू यिणी क्रमेण,
बीतता है पर मूखों का समय बुरी आदतो, लड़ाई-झगडों लघ्वी पुरा वृद्धिमुपैति पश्चात् ।
और निद्रा में बीतता है'।' चौथे ने अपनी अनुभूति की दिनस्य पूर्षि पराध भिन्ना,
अभिव्यक्ति करते हुए कहा-'फल वाले वृक्ष झुकते है। छायेव मंत्री खल सज्जनानाम् ।।
गुणवान व्यक्ति नम्र होते है परन्तु सूखे वृक्ष और मूर्ख दुर्जनों की मित्रता प्रातःकालीन छाया सी है, जो
कभी भी नही भुकते है। सज्जनों और दुर्जनो के सम्बन्ध प्रारम्भ में बहुत बड़ी होती है पर कुछ काल बाद बारह
मे जो आकाश और पाताल जैसा अन्तर है, उसे निष्कर्ष
स्वरूप पाँचवे कवि के शब्दों में सक्षेप मे यो कहा जा बजते ही समाप्त हो जाती है और सज्जनो की मित्रता अपरान्ह कालीन छाया सी होती है, जो प्रारम्भ में बहुत
सकेगा-'महापुरुषो के (सज्जनों के) मन-वचन और
कार्य में एक रूपता पाई जाती है पर दुराचारियों के कम होती है और छह-सात बजे तक बराबर बढती ही
(दुर्जनों के) मन-वचन और कार्य में विविधता की ही विशेजाती है।
षता पाई जाती है।' सज्जनो और दर्जनो के स्वभाव मे जो विरोध पाया
सज्जनों और दर्जनों के प्रादि स्रोत जैसे साधनो को जाता है तथा उनका प्रत्येक बात को तौलने का, सोचने
हिन्दू धर्मग्रन्थों के अादिदेव भगवान् शंकर ने भी धारण समझने का जो दृष्टिकोण रहता है, उसे सस्कृत के सु
कर रखा है, उनके जीवन दृष्टिकोण से भी हम और प्राप कवियो ने अच्छी तरह समझाने का प्रयत्न किया है ।
शिक्षा ले तथा सज्जन-दुर्जन को यथोचित स्थान दे और जदाहरण के लिए एक ने कहा है-'दर्जन व्यक्ति की
स्वय शकर जो जैसे ही निर्विकार निलिप्त होकर रहेविद्या विवाद के लिए होती है और धन घमड करने के
जैसे सज्जनता के प्रतीक चन्द्रमा को शकर जी ने शीर्षस्थ लिए तथा शक्ति दूसरो को पीडित करने के लिए परन्तु सज्जन की विद्या ज्ञान के लिए होती है और धन परोप
स्थान दिया और दुर्जनता के प्रतीक विष को कण्ठ मे कार के लिए तथा शक्ति दूसरो की रक्षा के लिए। स्थान दिया (उसे न जबान पर रखा और न पेट मे ही
सनतासा कि दर्जन व्यक्ति शरदकालीन वाटल स्थान दिया क्योकि इससे विकृति की सम्भावना थी) वैसे के समान है, जो गरजता है पर बरसता नही है, वह कहता ही ममाज के लोग सज्जन-दुर्जन को स्थान दे। तो है पर करता नही है पर सज्जन व्यक्ति वर्षाकालीन गुण दोषौ बुधो गृहणन्निन्दुक्ष्वेडाविवेश्वरः। बादल के समान है, जो बिना आवाज किये ही बरस जाता शिरसा इलाघते पूर्व परं कण्ठे नियच्छति ॥ है, वह मुख से कहता नहीं है पर कर अवश्य देता है।'
आज इतना ही मुझे पाप से निवेदन करना है। तीसरे ने अपने अनुभव को व्यक्त करते हुए कहा है--
३ काव्य शास्त्र विनोदेन कालो गच्छति धीमताम् । 'बुद्धिमानों का समय काव्य-शास्त्र पर्दा और विनोद में
व्यसनेन तु मूर्खाणाम् निद्रया कलहेन वा। १ विद्याविवादाय घन मदाय, शक्ति. परेपॉ परिपीडनाय। ४ नमन्ति फलिनो वृक्षाः नमन्ति गुणिनी जनाः ।
खलस्य साधोविपरीतमेतज्ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय । शुष्क वृक्षाश्च मूखश्चि न नमन्ति कदाचन ।। २ शरदि न वर्षति गर्जति, वर्षति वर्षासु नि. स्वनो मेघः। ५ मनस्येक वचस्येक कर्मण्येक महात्मनाम् । नीचो वदति न कुरुते, न वदति सुजनः करोत्येव । मनस्यन्यद् वचस्यन्यद् कर्मण्यन्यद् दुरात्मनामू ।।
सुभाषितम्-विषयनि सेवत दुख भले, सुख न तुम्हारे जानु ।
अस्थि चवत निज रुधिर ते, ज्यों सुख मान स्वानु ।। जिनही विषयनि दुखु दियो, तिनही लागत धाय । माता मारिउ बाल जिम, उठि पुनि पग लपटाय ॥