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पण्डित शिरोमणिवास विरचित धर्मसार
शिष्य ललितकोति को छोड़कर शेष सभी भट्टारकों का प्रमाण है ग्रादिनाथ स्तोत्र की निम्न पंक्तियाँ'उल्लेख मिलता है। उक्त ललितकीति के साहित्यिक योगदान से भी हम परिचित नही। बलात्कार गण की जेरहट
मलसंघ को नायक सोहे सकलकोति गुरु बन्दी। शाखा के अन्तिम भट्टारक सुरेन्द्र कीर्ति थे जिनका उल्लेख
तस पट पाट पटोपर सोहे सुरेन्द्रकोति मुनि जागे जू॥ धर्मसार मे नही किया गया। यदि प्रतिलिपिकर्ता की भूल
संवत् सत्रासो छप्पण है मास कार्तिक शुभ जानौ जू । न मानी जाय तो सम्भव है कि सुरेन्द्र कीति के शिष्य ललि
बास बिहारी विनती गावे नाम लेत सुख पावे जू।। तकीर्ति रहे है। और चूंकि ललितकीति समाज अथवा साहित्य के क्षेत्र मे अधिक कार्य नही कर सके इसलिए
इसके अतिरिक्त सम्बन्धित सुरेन्द्रकीति के अन्य उल्लेख उनका उल्लेख नहीं मिलता। जो भी हो, जेरहट शाखा
मेरे देखने में नहीं पाये । पर इस उल्लेख से इतना तो की परम्परा में एक और प्राचार्य (भट्टारक) का नाम
निश्चित है कि स. १७५६ तक सुरेन्द्र कीति निश्चित ही रखा जा सकता है। इस दृष्टि से धर्मसार के उल्लेख का
गद्दी पर रहे होंगे। और उन्होंने अपने उत्तराधिकारी का महत्त्व निश्चित ही उल्लेखनीय है। इस उल्लेख से यह
चुनाव इसके पूर्व ही कर दिया होगा। उत्तराधिकारी भी पता चलता है कि जेरहट शाखा के अन्तिम भट्टारक
ललितकीति ने अपनी शिष्य परम्परा भी प्रारम्भ कर दी ललितकीर्ति रहे और उनके बाद उनके शिष्य-प्रशिष्य
होगी। उस शिष्य परम्परा में अग्रगण्य होगे पण्डित पण्डित कहे जाने लगे।
गंगादास । पण्डित गगादास स० १७५१ तक वृद्ध हो गये धर्मसार की प्रस्तुत प्रति मे स. १७३२ रचना काल
होंगे और उनके शिष्य पण्डित शिरोमणिदास युवक रहे दिया गया है। डॉ. प्रेमसागर ने जयपुर के वधीचन्द्र जी
होंगे। प्रतः निष्कर्ष यह हो सकता है कि धर्मसार का के मन्दिर में सरक्षित एक अन्य प्रति का भी उल्लेख किया लेखन काल सं० १७५१ ही हो, १७३२ नही। इस सदर्भ है जिसमे रचना सं० १७५१ लिखा है। स्व० प्रेमी जी में सिंहरौन नगर, जहाँ धर्मसार की रचना समाप्त हुई, के ने १७३२ को रचना काल और १७५१ को लेखन काल राजा देवीसिंह का उल्लेख भी महत्त्वपूर्ण है। उनका माना है । डॉ. प्रेमसागर ने इस सन्दर्भ में अपना मत समय भी यही है । स्पष्ट नही किया फिर भी, लगता है, प्रेमी जी की स्वीकृति
पण्डित शिरोमणिदास के दोनों ग्रन्थ धर्मसार और में ही उनकी स्वीकृति निहित है। परन्तु वे निष्कर्ष ठीक
सिद्धान्तशिरोमणि भाव और भाषा की दृष्टि से उत्तमनही दिखते। डॉ० विद्याधर जोहरापुरकर ने सुरेन्द्रकीर्ति
कोटि के है, दोनों ग्रन्थों के प्रकाशन से जहां तत्कालीन को बलात्कार गण की जेरहट शाखा का अन्तिम भट्टारक
जैनसमाज और संस्कृति का परिचय मिलेगा वहाँ भाषामाना है और उनका समय सं० १७५६ बताया है। इसका
विज्ञान की दृष्टि से भी वे उपयोगी सिद्ध हुए होंगे। . १. हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास, बम्बई, पृ. ६७ २. हिन्दी जैन-भक्ति काव्य और कवि, पृ. २७६ ___३. भट्टारक सम्प्रदाय, पृ. २०५
सुगुरु सीख हम तो कबहूं न हित उपजाये । सुकुल-सुदेव-सुगुरु-सुसगहित, कारन पाय गमाये ॥टेक।।
ज्यों शिशु नाचत आप न माचत, लखन हार बौराये। त्यों श्रुतबांचत पाप न राचत, औरन को समझाये ।।१।। सुजस-लाहकी चाह न तज निज, प्रभुता लखि हरखाये। विषय तजे न रजे निजपद में, परपद अपद लुभाये ॥२॥ पापत्याग जिन-जाप न कीन्हों, सुमनचापतप-ताये । चेतन तन को कहत भिन्न पर, देह सनेही थाये ॥३॥ यह चिर भूल भई हमरी अब, कहा होत पछिताये । दौल अजों भव-भोग रचौ मत, यों गुरु वचन सुनाये ॥४॥
कवि