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________________ साहित्य-समीक्षा है। विस्तार से अवयवों और दोषो का विचार प्रागे प्रमाण से भिन्न नहीं है-तदन्तर्गत ही है। चतुर्थ और पंचम अध्याय में किया गया है। तृतीय अध्याय मे वैशेषिक, मीमासक, सांख्य मौर जैसा कि प्रकृत ग्रंथ मे विवेचित है (पृ० २५-२६) बौद्ध सम्प्रदायो में जो अनुमान के भेद स्वीकार किये गये जैन आगम ग्रंथों मे उक्त अनुमान का कुछ विकसित रूा हैं उनके विषय में अकलंक, विद्यानन्द, वादिराज और अनुयोगद्वार सूत्र में उपलब्ध होता है । यहाँ प्रथमतः प्रभाचन्द्र इन जैन ताकिकों का क्या अभिमत रहा है। (सूत्र १३१) प्रमाण के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप इसका विश्लेषण करते हुए उक्त भेदों की समीक्षा की गई से चार भेद निर्दिष्ट किये गये है। इनमे से अन्तिम भाव है। तत्पश्चात् अनुमान के स्वार्थ और परार्थ भेदों की प्रमाण का विचार करते हुए उसके भी ये तीन भेद निर्दिष्ट चर्चा करते हए अनुमान की भित्तिभूत व्याप्ति के विषय किये गये है-गुणप्रमाण, नयप्रमाण और संख्याप्रमाण। में सूक्ष्मता से विचार किया गया है। इनमें गुणप्रमाण जीवगुणप्रमाण और अजीवगुणप्रमाण के चतुर्थ अध्याय में प्रतिज्ञा, हेतु, दृष्टान्त, उपनय और भेद से दो प्रकारका है। इनमे भी जीवगुणप्रमाण के निगमन ; इन अनुमानावयवों में से कितने किस सम्प्रदाय तीन भेद कहे गये हैं-ज्ञानगुणप्रमाण, दर्शनगुणप्रमाण में स्वीकृत है, इसका निर्देश करते हुए उनकी तुलनात्मक और चारित्रगुणप्रमाण, ज्ञानगुणप्रमाण भी प्रत्यक्ष, अनु- रूप से समीक्षा की गई है। इस प्रसंग मे यहाँ सर्वप्रथम मान, उपमान और पागम के भेद से चार प्रकारका तत्त्वार्थसत्र के अन्तर्गत दसवें अध्याय के "तदनन्तरमूवं है। इस प्रकार प्रसंग प्राप्त अनुमान के विवेचन में वहां गच्छत्या लोकान्तात्" आदि तीन (५-७) सूत्रों को उद्धृत उसके मूल में पूर्ववत्, शेषवत् पोर दप्टसावयंवत् ये तीन करके उनके अाधार से यह निष्कर्ष निकाला गया है कि भेद निर्दिष्ट किये गये हैं। इनके स्वरूप का विचार करते यद्यपि तत्त्वार्थसूत्राकार ने अनुमान के अवयव और उनकी हुए वहाँ उनके यथासम्भव अन्यान्य भेदों का भी उदा- संख्या का स्पष्टतया कोई उल्लेख नही किया है, फिर भी हरणपूर्वक उल्लेख किया गया है । उनकी रचना के क्रम को देखते हुए यह स्पष्ट प्रतिभासित मलधारीय हेमचन्द सूरि ने उसकी टीका में इन पूर्व होता है कि तत्वार्थसूत्रकार को प्रतिज्ञा, हेतु पोर दृष्टान्त वत् प्रादि पदो को मतप् प्रत्ययान्त माना है। यथा- ये तीन अनुमान के अवयव अभीष्ट रहे है। पूर्ववत् अनुमान के स्वरूप का स्पष्टीकरण करते हुए वे यहां यह विशेष स्मरणीय है कि उपर्युक्त तीन सूत्र कहते हैं कि पूर्व में उपलब्ध विशिष्ट चिह्न- जैसे क्षत दि० सूत्रपाठ का अनुसरण करते हैं, श्वे० सूत्रपाठ में (फोडा आदि) व्रण (घाव) और लांछन (स्वस्तिक उक्त तीन सूत्रों में से दृष्टान्त का सूचक अन्तिम सूत्र आदि) को पूर्व कहा जाता है । उससे युक्त, अर्थात् उसके "प्राविद्धकूलालचक्रवद..." प्रादि नहीं है। इसी प्रकार आश्रय से उत्पन्न होने वाले, अनुमान का नाम पूर्ववत् दि० सूत्रपाठ के अनुसार आगे भी जो लोकान्त के ऊपर है। इत्यादि। मुक्त जीव के गमनाभाव का साधक एक मात्र हेतु प्रवइस प्रथम अध्याय के अन्त में भारतीय अनुमान की यव रूप "धर्मास्तिकायाभावात्" सूत्र उपलब्ध होता है पाश्चात्य तर्कशास्त्र से भी कुछ तुलना की गई है। वह भी श्वे० सूत्र पाठ में संगृहीत नही है। हो, लोकान्त द्वितीय अध्याय में विविध प्राचीन सम्प्रदायों के प्राधार के ऊपर मुक्त जीव की गति क्यों सम्भव नही है, इस से प्रमाण के स्वरूप और उसके प्रयोजन का विचार करते शंका के समाधान में भाष्य में उन्हीं शब्दों (धर्मास्तिकाहुए समन्तभद्र आदि कितने ही जैन ताकिको के अभिमता- याभावात्) के द्वारा धर्मास्तिकाय का अभाव ही उसका नुसार प्रमाण के स्वरूप का पृथक्-पृथक् विवेचन किया कारण बतलाया गया है। इसी प्रकार भाप्य में कुलालगया है। साथ ही यहां यह भी स्पष्ट किया गया है कि चक्र, अग्नि, एरण्डबीज और मलावु ये दि० सूत्रोक्त कुछ प्रवादियों के द्वारा जो अर्थापत्ति, प्रभाव, सम्भव और दृष्टान्त भी संगृहीत है। प्रातिभ ये पृथक् प्रमाण माने गये हैं वे उक्त अनुमान प्रस्तुत ग्रन्थ में यहां जैन तार्किकों में अनुमानावयवों
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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