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________________ शहडोल जिले में जैन संस्कृति का एक अज्ञात केन्द्र प्रो० भागचन्द्र जैन 'भागेन्दु', एम. ए., शास्त्री वर्तमान मध्यप्रदेश के छत्तीसगढ सम्भाग में भारतीय इतिहास, कला और संस्कृति की अनेक अनुपम निधियाँ अब भी अछूती हैं। शहडोल जिला इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है । शहडोल जिले में पर्यटन करने का अवसर मुझे गत माह मिला और इसी सन्दर्भ में, मैंने एक महत्वपूर्ण स्थान का पर्यवेक्षण किया । शहडोल जिले में, दक्षिण-पूर्वी रेलवे के अनूपपुर जकशन से चिरमिरी जाने वाली ब्राञ्च लाइन पर कोतमा एक महत्वपूर्ण एवं समृद्ध व्यापारिक और राजनैतिक केन्द्र है । कोतमारेलवे स्टेशन से पांच मील पूर्व की श्रोर 'किवई' नामक रमणीय नदी बहती है । इस नदी के तट पर अनेक महत्वपूर्ण प्राचीन स्थान होने की सूचनाएं मुझे स्थानीय लोगों से मिली। उनमें से एक स्थान का सर्वेक्षण मैने किया है, वह यहाँ प्रस्तुत है कोतमा से पांच मील पूर्व में 'किवई नदी' के तटवर्ती प्रदेश को अब रण्डही और गड़ई नामों से पुकारा जाता है । 'रण्डही ' अरण्य का 'गड़ई' गढ़ी का अपभ्रंश हो सकता है । कदाचित् पहले इस स्थान पर कोई गढ़ी ( छोटा किला) रही होगी, जो भब ध्वस्त हो गई है । वर्तमान में इस तटवर्ती प्रदेश को अरण्य संज्ञा सरलता से दी जा सकती है । यह स्थान निकटवर्ती ग्रामों ― चन्दोरी से एक मील पूर्व में. ऊरा से एक मील उत्तर-पश्चिम में तथा कठकोना से एक मील दक्षिण-पश्चिम मे किवई नदी के पूर्वी तट पर है । इस स्थान का चारों श्रोर काफी दूर तक पर्यवेक्षण किया । लेखक का दृढ़ विश्वास है कि प्राचीन काल में यह एक समृद्ध केन्द्र था । प्राचीन नागरिक सभ्यता के अवशेष पर्याप्त मात्रा में अब भी यत्र-तत्र दिखाई देते हैं । तांबे तथा लोहे की प्रचीन वस्तुए, पकी मिट्टी के खिलौने तथा गृहोपयोगी पत्थर श्रादि की वस्तुएं भूमि के अन्दर तथा ऊपर प्रचुरता से प्राप्त होती हैं । । यदि इस स्थान पर उत्खनन कार्य कराया जाय तो निश्चित ही नई सामग्री उपलब्ध होगी यहाँ उलब्ध कलाकृतियों और पुरातात्त्विक अवशेषों से यह निश्चय पूर्वक कहा जा सकता है कि इस प्रदेश में शैव मौर जैन-धर्मो का अच्छा प्रभाव था । यद्यपि शैव धर्म से सम्बन्धित शिवलिंग ही यहाँ उपलब्ध होते हैं जबकि जैन तीर्थकर मूर्ति वहाँ विशेष कही जा सकती है । प्रस्तुत निबन्ध में इस प्रदेश में विशेष रूप से प्रसिद्ध और मान्यता प्राप्त एक जैन तीर्थकर प्रतिमा का विश्लेषण उपस्थित किया जा रहा है । प्रथम जैन तीर्थंकर ऋषभनाथ की यह प्रत्यन्त सुन्दर और प्राचीन प्रतिमा इस प्रदेश में "ठाकुर बाबा" के नाम से विख्यात है । वर्तमान में यह एक बेल के वृक्ष के निकट नवनिर्मित चबूतरा सम्प्रति दो फुट तीन इच ऊँचा, छह फुट नौ इंच लम्बा और पाठ फुट तीन इच चौड़ा है । इसी चबूतरे के मध्य में कुछ पुराने मूर्ति खण्डों और अन्य शिलाखण्डों के सहारे उक्त तीर्थकर प्रतिमा टिकी हुई है। भगवान् ऋषभनाथ की यह प्रतिमा किंचित् हरित् वर्ण, चमकदार, काले पाषाण से निर्मित है। यह पत्थर वैसा ही है जैसा कि खजुराहो की मूर्तियों के निर्माण में प्रयुक्त हुआ है। मूर्तिफलक की ऊंचाई दो तीन इंच, फुट चौड़ाई एक फुट दो इंच तथा मोटाई छह इंच है। पद्मासनस्थ इस जिन प्रतिमा के छह इंच ऊंचे पादपीठ में (दोनों श्रोर) शार्दूलों के मध्य भूलती हुई मणिमाला के बीचोंबीच तीर्थंकर का लाञ्छन बृषभ बहुत सुन्दरता से कित है । इसके ऊपर बायें एक श्रावक और दायें एक श्राविका अपने हाथों में फल ( कदाचित् नारियल ) लिए हुए भक्तिविभोर और श्रद्धावनत हो उठे है । कदाचित् ये प्राकृतियाँ मूर्ति समर्पकों या प्रतिष्ठापकों की होंगी। पादपीठ में ही दायें गोमुख यक्ष तथा बायें चक्रेश्वरी
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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