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गुणस्थान, एक परिचय
तथा तीन गुप्तियों की सम्यक् पाराधना करने वाला ही सातवा अप्रमत्त संयति गुणस्थानमुनि कहलाता है । ध्यान" स्वाध्याय मुनिचर्या का प्रमुख प्रात्मा की सर्वथा अप्रमत्त अवस्था इस गुणस्थान में अंग है । साधना में निखार इन्ही से प्राता है।
पाती है। यहाँ प्रमाद का भी निरोध हो जाता है साभ
अध्यात्म के प्रति यहाँ पूर्ण उत्साह रहता है। यहाँ नियछठे गुणस्थान की भूमिका तक प्रात्मा को ले जाना
मतः धर्म या शुक्ल ध्यान मे से एक जरूर होता है। प्रसंसाधक के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। सम्यक्त्व प्राप्ति के यम से जब सयम की ओर प्रात्मा गति करती है, तो बाद साधक की छलांग संयम की पोर हा करती है। पहले सातवें गुणस्थान में जाती है, अन्तर मुहर्त के बाद संयमावस्था अध्यात्म का महत्वपूर्ण पक्ष है। यहां पहुँचने या तो आठवे गुणस्थान में चली जाती है। या छठे गुणके साथ ही पिछली सारी अव्रत समाप्त हो जाती है। स्थान म आ जाता । सातव
स्थान मे पा जाती है। सातवे गुणस्थान का कालमान अर्यात्-पांच पाश्रव में से दो पाश्रव बिलकुल रुक जाते अन्तर मु
अन्तर मुहूर्त मात्र का ही है, छदमस्थ साधक अनेकों बार हैं-मिथ्यात्व और प्रव्रत। छठे गुणस्थान में मृत्यु
इस गुणस्थान में माता और जाता है अगले भव का प्रायुष्य प्राप्त करने वाला मुनि जघन्यतः एक भव वाद मोक्षगामी
बन्ध इस गुणस्थान मे नही होता, छठे गुणस्थान मे प्रारम्भ उत्कृष्टतः पन्द्रह भववाद मोक्षगामी होता है। अर्थात्
किया हुआ आयुष्य सातवें गुणस्थान मे पूर्ण अवश्य छठे गुणस्थान में प्रायुष्य पूरा करने वाले साधक के भव
होता है । प्रायुष्य बन्ध का प्रारम्भ सातवे मे नही होता। ज्यादा से ज्यादा पन्द्रह ही होते है। पन्द्रहवें भव में तो
इसमे प्रमाद निरोध के साथ-साथ अशुभ योग का भी निरोष निश्चित रूप से मोक्ष चले ही जाते हैं। छठे गुणस्थान में ।
हो जाता है । लेश्या भी यहाँ तीन शुभ ही रह जाती है। आयुष्य पूरा करने के बाद जब तक मोक्षमें नही जाता तब
पाठवें निवृत्त बादर गुणस्थान मे पात्मा स्थूलकषायों तक देव और मनुष्य इन दो गतियों में ही जाते हैं । नरक से निवृत्त हो जाती है। यह अवस्था प्रमाद निरोध के और तिथंच गति में वे नहीं जाते हैं ।
बाद पाती है। पाठवाँ गुणस्थान साधक विशेष प्रयत्न कालमान
करके ही पाता है। यहाँ क्षयोपशम सम्यक्त्व समाप्त हो ___ छठे गुणस्थान का कालमान जघन्यतः अन्तर मुहूर्त
जाता है। आठवें गुणस्थान मे सम्यक्त्व या तो उपशम और उत्कृष्टतः नौ वर्ष कम करोड़ पूर्व की छद्मस्थ अवस्था
या क्षायिक हो जाता है । इसी गुणस्थान से साधक उपशम में संयति की सबसे अधिक लम्बी अवधि वाला यही गुणस्थान
क्षपक इन दो श्रेणियों में से एक पर प्रारूढ़ होता है। है । भिक्षु की बारह प्रतिमा व अन्यान्य अभिग्रह इसी इस
इसका भी कालमान अन्तर मुहर्त मात्र का है। गुणस्थान में किये जाते हैं । सामायिक पाठ से लेकर चौदह नौवा मनिवृत्त बादर गुणस्थान श्रेण्यारूढ़ मात्मा ही पूर्व तक का ज्ञान इसी गुणस्थान में सीखा जाता है। छठे प्राप्त करता है। उत्तम श्रेणियों में कर्म प्रकृतियों का गुणस्थान में पांच ज्ञान में से मति श्रत प्रवधि मनः पर्यय उपशमन होता है और क्षपक श्रेणी में प्रकृतियों का क्षय ये चार ज्ञान हो सकते हैं। छ: निर्ग्रन्थों में पूलाक वकश होता रहता है। नौवं गुणस्थान में दशवे गुणस्थान की पडि सेवणा, कसाय कुशील, ये चार निर्ग्रन्थ होते है। अपेक्षा तो कुछ मनिवृत्ति रह जाती है, वैसे अधिकांश पांच चारित्र में, सामायिक, छेदोपस्थापना, पडिहार- अशुभ प्रतिकृयों की निवृत्ति होती जाती है । अन्तर महतं विशुद्धि ये तीन चारित्र हो सकते हैं।
की स्थिति वाले इस गुणस्थान मे संज्वलन, क्रोध, मान, २७. सज्झायसज्जाणरयस्सताइणे, पावभावस्स तवेरयस्स ।
माया, नपुंसक वेद, स्त्री वेद, पुरुष वेद प्रादि अनेक प्रवविसुज्झइज सिमलं पुरे कडं, समीरियरुप्पमलवजोइणो ।
त्तियों का उपशम क्षय हो जाता है । दस का०७ दसवें सूक्ष्म संपराय गणस्थान में चारित्र मोहनीय
की सिर्फ एक प्रकृति संज्वलन लोभ ही शेष रह जाती है। दसवें गुणस्थान का कालमान पाठवें, नवें गुणस्थान