Book Title: Abhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 06
Author(s): Priyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
Publisher: Khubchandbhai Tribhovandas Vora
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस षष्ठम खण्ड अ. रा. कोष १ अ. रा. कोष m अ. रा. कोष ५. अ. रा. कोष ७ अ. रा. कोष २ क अ. रा. कोष ६ अ. रा. कोष ४ डॉ. प्रियदर्शनाश्री डॉ. सुदर्शना श्री Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'विश्वपूज्य श्री' : जीवन-रेखा जन्म : ई. सन् 3 दिसम्बर 1827 पौष शुक्ला सप्तमी राजस्थान की वीरभूमि एवं प्रकृति की सुरम्यस्थली भरतपुर में जन्म-नाम : रत्नराज । माता-पिता : केशर देवी, पारख गौत्रीय श्री ऋषभदासजी दीक्षा : ई. सन् 1845 में श्रीमद् प्रमोदसूरिजीम. सा. की तारक निश्रा में झीलों की नगरी उदयपुर में । अध्ययन : गुरु-चरणों में रहकर विनयपूर्वक श्रुताराधन ! व्याकरण, न्याय, दर्शन, काव्य, कोष, साहित्यादि का गहन अध्ययन एवं 45 जैनागमों का सटीक गंभीर अनुशीलन ! आचार्यपद : ई. सन् 1868 में आहोर (राज.) । क्रियोद्धार : ई. सन् 1869, वैशाख शुक्ला दसमी को जावरा (म. प्र.) तीर्थोद्धार : श्री भाण्डवपुर, कोराजी, स्वर्णगिरि जालोर एवं तालनपुर । नूतनतीर्थ-स्थापना : श्री मोहनखेड़ा तीर्थ, जिला-धार (म. प्र.) । ध्यान-साधना के मुख्य केन्द्र : स्वर्णगिरि, चामुण्डवन व मांगीतुंगी-पहाड़। साहित्य-सर्जन : अभिधान राजेन्द्र कोष, पाइयसद्दम्बुहि, कल्पसूत्रार्थ प्रबोधिनी, सिद्धहैम प्राकृत टीकादि 61 ग्रन्थ | विश्वपूज्य उपाधिः उनके महत्तम ग्रंथराज अभिधान राजेन्द्र कोष के कारण 'विश्वपूज्य' के पद पर प्रतिष्ठित हुए। दिवंगत : राजगढ़ जि. धार (म.प्र.) 21 दिसंबर 1906 1 समाधि स्थल : उनका भव्यतम कलात्मक समाधिमंदिर मोहनखेड़ा (राजगढ़ म.प्र.) तीर्थ में देव -विमान के समान शोभायमान है । प्रति वर्ष लाखों श्रद्धालु गुरु-भक्त वहाँ दर्शनार्थ जाते हैं । मेला पौष-शुक्ला सप्तमी को प्रतिवर्ष लगता है । इस चमत्कारिक मंदिरजी में मेले के दिन अमी-केसर झरता है । लन्दन में जैन मंदिर में उनकी नव-निर्मित प्रतिमा लेटेस्टर में प्रतिष्ठित हैं। विश्वपूज्य प्रेम और करुणा के रूप में सबके हृदय-मंदिर में विराजमान हैं। विश्वपूज्य ने शिक्षा और समाजोत्थान के लिए सरस्वती-मंदिर, सांस्कृतिक उत्थान के लिए संस्कृति केन्द्र- मंदिर एवं ग्राम-ग्राम, नगर-नगर पैदल विहार कर अहिंसात्मक क्रान्ति और नैतिक जीवन जीने के लिए मानवमात्र को अभिप्रेरित किया। विश्वपूज्य का जीवन ज्योतिर्मय था । उनका संदेश था - 'जीओ और जीने दो' – क्योंकि सभी प्राणी मैत्री के सूत्र में बँधे हुए हैं। 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' की निर्मल गंग-धारा प्रवाहित कर उन्होंने न केवल भारतीय संस्कृति की गरिमा बढ़ाई, अपितु विश्व-मानस को भगवान् महावीर के अहिंसा और प्रेम का अमृत पिलाया । उनकी रचनाएँ लोक-मंगल की अमृत गगरियाँ हैं। उनका अभिधान राजेन्द्र कोष विश्वसाहित्य का चिन्तामणि-रत्न हैं। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वपूज्य प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि शताब्दि-दशाब्दि महोत्सव के उपलक्ष्य में षष्ठम खण्ड अभिधान राजेन्द्र कोष में, * सात-सधारस ANSXSXSANSAR षष्ठम खण्ड दिव्याशीष प्रदाता : परम पूज्य, परम कृपालु, विश्वपूज्य प्रभुश्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. आशीषप्रदाता : राष्ट्रसन्त वर्तमानाचार्यदेवेश श्रीमद्विजय जयन्तसेनसूरीश्वरजी म. सा. XRESS प्रेरिका : प. पू. वयोवृद्धा सरलस्वभाविनी साध्वीरत्ना श्री महाप्रभाश्रीजी म. सा. लेखिका : साध्वी डॉ. प्रियदर्शनाश्री, (एम. ए. पीएच-डी.) साध्वी डॉ. सुदर्शनाश्री, (एम. ए. पीएच-डी.) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुकृत सहयोगी श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय सकल श्रीसंघ, धाणसा (राजस्थान) जिला-जालोर प्राप्ति स्थान श्री मदनराजजी जैन द्वारा - शा. देवीचन्दजी छगनलालजी आधुनिक वस्त्र विक्रेता सदर बाजार, भीनमाल-३४३०२९ फोन : (०२९६९) २०१३२ __ प्रथम आवृत्ति वीर सम्वत् : २५२५ राजेन्द्र सम्वत् : ९२ विक्रम सम्वत् : २०५५ ईस्वी सन् : १९९८ मूल्य : ७५-०० प्रतियाँ : २००० अक्षराङ्कन लेखित १०, रूपमाधुरी सोसायटी, माणेकबाग, अहमदाबाद-१५ मुद्रण सर्वोदय ओफसेट प्रेमदरवाजा बहार, अहमदाबाद. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: . kikikik AWA OO.०-८ k OYAL अनुक्रम कहाँ क्या ? (५०, TOTATOPA O ॐ.. १. समर्पण - साध्वी प्रिय-सुदर्शनाश्री शुभाकांक्षा - प.पू.राष्ट्रसन्त श्रीमद्जयन्तसेनसूरीश्वरजी म.सा. मंगलकामना - प.पू.राष्ट्रसन्त श्रीमद्पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. ४. रस-पूर्ति - प.पू.मुनिप्रवर श्री जयानन्दविजयजी म.सा. ९ ५. पुरोवाक् - साध्वीद्वय डॉ. प्रिय-सुदर्शनाश्री आभार - साध्वीद्वय डॉ. प्रिय-सुदर्शनाश्री सुकृत सहयोगीश्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय सकल श्रीसंघ, धाणसा (राजस्थान) जिला-जालोर ( ८. आमुख - डॉ. जवाहरचन्द्र पटनी मन्तव्य - डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी ॐ (पद्मविभूषण, पूर्वभारतीय राजदूत-ब्रिटेन) *.. १०. दो शब्द - पं. दलसुखभाई मालवणिया (* ११. 'सूक्ति-सुधारस': मेरी दृष्टि में - डॉ. नेमीचंद जैन । १२. मन्तव्य - डॉ. सागरमल जैन *. १३. मन्तव्य - पं. गोविन्दराम व्यास * १४. मन्तव्य - पं. जयनंदन झा व्याकरण साहित्याचार्य १५. मन्तव्य - पं. हीरालाल शास्त्री एम.ए. १६. मन्तव्य - डॉ. अखिलेशकुमार राय ॐ.. १७. मन्तव्य - डॉ. अमृतलाल गाँधी VANYOOOOO.OR40 toyoyATOYAYOGo) OYOGoalo HAN Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. मन्तव्य भागचन्द जैन कवाड, प्राध्यापक (अंग्रेजी) ३७ १९. दर्पण २०. 'विश्वपूज्य': जीवन-दर्शन २१. 'सूक्ति-सुधारस' (षष्ठम खण्ड) २२. प्रथम परिशिष्ट - (अकारादि अनुक्रमणिका) २३. द्वितीय परिशिष्ट - (विषयानुक्रमणिका) २४. तृतीय परिशिष्ट (अभिधान राजेन्द्रः पृष्ठ संख्या अनुक्रमणिका) २५. चतुर्थ परिशिष्ट - जैन एवं जैनेतर ग्रन्थः गाथा/ श्लोकादि अनुक्रमणिका २६. पंचम परिशिष्ट ('सूक्ति-सुधारस' में प्रयुक्त संदर्भ-ग्रन्थ सूची) २७. विश्वपूज्य प्रणीत सम्पूर्ण वाङ्मय २८. लेखिका द्वय की महत्त्वपूर्ण कृतियाँ ३९ ४३ ५५ २०९ २३९ २६७ २७७ २८९ २९३ २९९ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ READ S E AWATION THAN ADA विश्वपूज्य प्रातःस्मरणीय - प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. Page #8 --------------------------------------------------------------------------  Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । पू. राष्ट्रसन्त आचार्य श्रीमद् विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी म. सा. Page #10 --------------------------------------------------------------------------  Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम पूज्या सरलस्वभाविनी साध्वीरत्ना श्री महाप्रभाश्रीजी म. सा. Page #12 --------------------------------------------------------------------------  Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P-01 -01 समर्पण . - . . . रवि-प्रभा सम है मुखश्री, चन्द्र सम अति प्रशान्त । तिमिर में भटके जनके, दीप उज्जवल कान्त ॥ १ ॥ लघुता में प्रभुता भरी, विश्व-पूज्य मुनीन्द्र । करुणा सागर आप थे, यति के बने यतीन्द्र ॥ २ ॥ लोक-मंगली थे कमल, योगीश्वर गुरुराज । सुमन-माल सुन्दर सजी, करे समर्पण आज ॥ ३ ॥ अभिधान राजेन्द्र कोष, रचना रची ललाम । नित चरणों में आपके, विधियुत् करें प्रणाम ॥ ४ ॥ काव्य-शिल्प समझें नहीं, फिर भी किया प्रयास । गुरु-कृपा से यह बने, जन-मन का विश्वास ॥ ५ ॥ प्रियदर्शना की दर्शना, सुदर्शना भी साथ । राज रहे राजेन्द्र का, चरण झुकाते माथ ॥ ६ ॥ . -. . - श्री राजेन्द्रगुणगीतवेणु - श्री राजेन्द्रपदपद्मरेणु साध्वी प्रियदर्शनाश्री साध्वी सुदर्शनाश्री Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | शुभाकांक्षा ! विश्वविश्रुत है श्री अभिधान राजेन्द्र कोष । विश्व की आश्चर्यकारक घटना है। साधन दुर्लभ समय में इतना सारा संगठन, संकलन अपने आप में एक अलौकिक सा प्रतीत होता है। रचनाकार निर्माता ने वर्षों तक इस कोष प्रणयन का चिन्तन किया, मनोयोगपूर्वक मनन किया, पश्चात् इस भगीरथ कार्य को संपादित करने का समायोजन किया । । महामंत्र नवकार की अगाध शक्ति ! कौन कह सकता है शब्दों में उसकी शक्ति को । उस महामंत्र में उनकी थी परम श्रद्धा सह अनुरक्ति एवं सम्पूर्ण समर्पण के साथ उनकी थी परम भक्ति! . इस त्रिवेणी संगम से संकल्प साकार हुआ एवं शुभारंभ भी हो गया । १४ वर्षों की सतत साधना के बाद निर्मित हुआ यह अभिधान राजेन्द्र कोष । इसमें समाया है सम्पूर्ण जैन वाङ्मय या यों कहें कि जैन वाङ्मय का प्रतिनिधित्व करता है यह कोष । अंगोपांग से लेकर मूल, प्रकीर्णक, छेद ग्रन्थों के सन्दर्भो से समलंकृत है यह विराट्काय ग्रन्थ । ___ इस बृहद् विश्वकोष के निर्माता हैं परम योगीन्द्र सरस्वती पुत्र, समर्थ शासनप्रभावक , सत्क्रिया पालक, शिथिलाचार उन्मूलक, शुद्धसनातन सन्मार्ग प्रदर्शक जैनाचार्य विश्वपूज्य प्रातः स्मरणीय प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराजा ! सागर में रत्नों की न्यूनता नहीं । 'जिन खोजा तिन पाइयाँ' यह कोष भी सागर है जो गहरा है, अथाह है और अपार है । यह ज्ञान सिंधु नाना प्रकार की सूक्ति रत्नों का भंडार है । इस ग्रन्थराज ने जिज्ञासुओं की जिज्ञासा शान्त की। मनीषियों की मनीषा में अभिवृद्धि की। इस महासागर में मुक्ताओं की कमी नहीं । सूक्तियों की श्रेणिबद्ध पंक्तियाँ प्रतीत होती हैं। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6.6 - Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत पुस्तक है जन-जन के सम्मुख 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्तिसुधारस' (१ से ७ खण्ड) । मेरी आज्ञानुवर्तिनी विदुषी सुसाध्वी श्री डॉ. प्रियदर्शना श्रीजी एवं सुसाध्वीश्री डॉ. सुदर्शनाश्रीजी ने अपनी गुरुभक्ति को प्रदर्शित किया है इस 'सूक्ति-सुधारस' को आलेखित करके । गुरुदेव के प्रति संपूर्ण समर्पित उनके भाव ने ही यह अनूठा उपहार पाठकों के सम्मुख रखने को प्रोत्साहित किया है उनको । यह 'सूक्ति-सुधारस' (१ से ७ खण्ड) जिज्ञासु जनों के लिए अत्यन्त ही सुन्दर है । 'गागर में सागर है' । गुरुदेव की अमर कृति कालजयी कृति है, जो उनकी उत्कृष्ट त्याग भावना की सतत अप्रमत्त स्थिति को उजागर करनेवाली कृति है । निरन्तर ज्ञान-ध्यान में लीन रहकर तपोधनी गुरुदेवश्री 'महतो महियान्' पद पर प्रतिष्ठित हो गए हैं; उन्हें कषायों पर विजयश्री प्राप्त करने में बड़ी सफलता मिली और वे बीसवीं शताब्दि के सदा के लिए संस्मरणीय परमश्रेष्ठ पुरुष बन गए हैं 1 1 प्रस्तुत कृति की लेखिका डॉ. प्रियदर्शनाश्रीजी एवं डॉ. सुदर्शनाश्रीजी अभिनन्दन की पात्रा हैं, जो अहर्निश 'अभिधान राजेन्द्र कोष' के गहरे सागरमें गोते लगाती रहती हैं । 'जिन खोजा तिन पाइयाँ गहरे पानी पेठ' की उक्ति के अनुसार श्रम, समय, मन-मस्तिष्क सभी को सार्थक किया है श्रमणी द्वयने । मेरी ओर से हार्दिक अभिनंदन के साथ खूब - खूब बधाई इस कृति की लेखिका साध्वीद्वय को । वृद्धि हो उनकी इस प्रवृत्ति में, यही आकांक्षा । राजेन्द्र सूरि जैन ज्ञानमंदिर अहमदाबाद दि. २९-४-९८ अक्षय तृतीया - विजय जयन्तसेन सूरि अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 7 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नगल कामना विदुषी डॉ. साध्वीश्री प्रिय-सुदर्शनाश्रीजीम. आदि, अनुवंदना सुखसाता । आपके द्वारा प्रेषित 'विश्वपूज्य' (श्रीमद् राजेन्द्रसूरिः जीवन-सौरभ), 'अभिधान राजेन्द्रकोष में, सूक्ति-सुधारस' (1 से 7 खण्ड) एवं 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, जैनदर्शन वाटिका' की पाण्डुलिपियाँ मिली हैं। पुस्तकें सुंदर हैं । आपकी श्रुत भक्ति अनुमोदनीय है । आपका यह लेखनश्रम अनेक व्यक्तियों के लिये चित्त के विश्राम का कारण बनेगा, ऐसा मैं मानता हूँ । आगमिक साहित्य के चिंतन स्वाध्याय में आपका साहित्य मददगार बनेगा। उत्तरोत्तर साहित्य क्षेत्र में आपका योगदान मिलता रहे, यही मंगल कामना करता हूँ। उदयपुर 14-5-98 पद्मसागरसूरि श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र . कोबा-382009 (गुज.) अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6.8 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 888888888888 %888333333000 8000 जिनशासन में स्वाध्याय का महत्त्व सर्वाधिक है। जैसे देह प्राणों पर आधारित है वैसे ही जिनशासन स्वाध्याय पर । आचार-प्रधान ग्रन्थों में साधु के लिए पन्द्रह घंटे स्वाध्याय का विधान है। निद्रा, आहार, विहार एवं निहार का जो समय है वह भी स्वाध्याय की व्यवस्था को सुरक्षित रखने के लिए है अर्थात् जीवन पूर्ण रूप से स्वाध्यायमय ही होना चाहिए ऐसा जिनशासन का उद्घोष है । वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा इन पाँच प्रभेदों से स्वाध्याय के स्वरूप को दर्शाया गया है, इनका क्रम व्यवस्थित एवं व्यावहारिक है। श्रमण जीवन एवं स्वाध्याय ये दोनों-दूध में शक्कर की मीठास के समान एकमेक हैं । वास्तविक श्रमण का जीवन स्वाध्यायमय ही होता है । क्षमाश्रमण का अर्थ है 'क्षमा के लिए श्रम रत' और क्षमा की उपलब्धि स्वाध्याय से ही प्राप्त होती है। स्वाध्याय हीन श्रमण क्षमाश्रमण हो ही नहीं सकता । श्रमण वर्ग आज स्वाध्याय रत हैं और उसके प्रतिफल रूप में अनेक साधु-साध्वी आगमज्ञ बने हैं। प्रातःस्मरणीय विश्व पूज्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा ने अभिधान राजेन्द्र कोष के सप्त भागों का निर्माण कर स्वाध्याय का सुफल विश्व को भेंट किया है। उन सात भागों का मनन चिन्तन कर विदुषी साध्वीरत्नाश्री महाप्रभाश्रीजीम. की विनयरत्ना साध्वीजी श्री डॉ. प्रियदर्शनाश्रीजी एवं डॉ. श्री सुदर्शनाश्रीजी ने " अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस" को सात खण्डों में निर्मित किया हैं जो आगमों के अनेक रहस्यों के मर्म से ओतप्रोत हैं। साध्वी द्वय सतत स्वाध्याय मग्ना हैं, इन्हें अध्ययन एवं अध्यापन का इतना रस है कि कभी-कभी आहार की भी आवश्यकता नहीं रहती। अध्ययनअध्यापन का रस ऐसा है कि जो आहार के रस की भी पूर्ति कर देता है। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-609 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सूक्ति सुधारस' (१ से ७ खण्ड) के माध्यम से इन्होंने प्रवचनसेवा, दादागुरुदेव श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा के वचनों की सेवा, तथा संघ-सेवा का अनुपम कार्य किया है। 'सूक्ति सुधारस' में क्या है ? यह तो यह पुस्तक स्वयं दर्शा रही है। पाठक गण इसमें दर्शित पथ पर चलना प्रारंभ करेंगे तो कषाय परिणति का हास होकर गुणश्रेणी पर आरोहण कर अति शीघ्र मुक्ति सुख के उपभोक्ता बनेंगे; यह निस्संदेह सत्य है। साध्वी द्वय द्वारा लिखित ये 'सात खण्ड' भव्यात्मा के मिथ्यात्वमल को दूर करने में एवं सम्यग्दर्शन प्राप्त करवाने में सहायक बनें, यही अंतराभिलाषा. भीनमाल वि. संवत् २०५५, वैशाख वदि १० मुनि जयानंद अयान गोस्ट कप कि पुथा अप.०० अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 . 10 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लगभग दस वर्ष पूर्व जालोर - स्वर्णगिरितीर्थ - विश्वपूज्य की साधना स्थली पर हमनें 36 दिवसीय अखण्ड मौनपूर्वक आयम्बिल व जप के साथ आराधना की थी, उस समय हमारे हृदय-मन्दिर में विश्वपूज्य श्रीमद् राजेन्द्र सूरीश्वरजी गुरुदेव श्री की भव्यतम प्रतिमा प्रतिष्ठित हुई, जिसके दर्शन कर एक चलचित्र की तरह हमारे नयन-पट पर गुरुवर की सौम्य, प्रशान्त, करुणार्द्र और कोमल भावमुद्रा सहित मधुर मुस्कान अंकित हो गई । फिर हमें उनके एक के बाद एक अभिधान राजेन्द्र कोष के सप्त भाग दिखाई दिए और उन ग्रन्थों के पास एक दिव्य महर्षि की नयन रम्य छवि जगमगाने लगी। उनके नयन खुले और उन्होंने आशीर्वाद मुद्रा में हमें संकेत दिए ! और हम चित्र लिखितसी रह गईं । तत्पश्चात् आँखें खोली तो न तो वहाँ गुरुदेव थे और न उनका कोष । तभी से हम दोनों ने दृढ़ संकल्प किया कि हम विश्वपूज्य एवं उनके द्वारा निर्मित कोष पर कार्य करेंगी और जो कुछ भी मधु-सञ्चय होगा, वह जनता-जनार्दन को देंगी ! विश्वपूज्य का सौरभ सर्वत्र फैलाएँगी। उनका वरदान . हमारे समस्त ग्रन्थ-प्रणयन की आत्मा है । 16 जून, सन् 1989 के शुभ दिन 'अभिधान राजेन्द्र कोष' में, 'सूक्तिसुधारस' के लेखन -कार्य का शुभारम्भ किया । वस्तुतः इस ग्रन्थ-प्रणयन की प्रेरणा हमें विश्वपूज्य गुरुदेवश्री की असीम कृपा-वृष्टि, दिव्याशीर्वाद, करुणा और प्रेम से ही मिली है । 'सूक्ति' शब्द सु + उक्ति इन दो शब्दों से निष्पन्न है। सु अर्थात् श्रेष्ठ और उक्ति का अर्थ है कथन । सूक्ति अर्थात् सुकथन । सुकथन जीवन को सुसंस्कृत एवं मानवीय गुणों से अलंकृत करने के लिए उपयोगी है। सैकड़ों दलीलें एक तरफ और एक चुटैल सुभाषित एक तरफ । सुत्तनिपात में कहा 'विञ्चात सारानि सुभासितानि' 1 सुभाषित ज्ञान के सार होते हैं । दार्शनिकों, मनीषियों, संतों, कवियों तथा साहित्यकारों ने अपने सद्ग्रन्थों में मानव को जो हितोपदेश दिया है तथा 1. सुत्तनिपात - 2/21/6 . अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 11 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महर्षि-ज्ञानीजन अपने प्रवचनों के द्वारा जो सुवचनामृत पिलाते हैं - वह संजीवनी औषधितुल्य है। ____नि:संदेह सुभाषित, सुकथन या सूक्तियाँ उत्प्रेरक, मार्मिक, हृदयस्पर्शी, संक्षिप्त, सारगर्भित अनुभूत और कालजयी होती हैं । इसीकारण सुकथनों । सूक्तियों का विद्युत्-सा चमत्कारी प्रभाव होता है । सूक्तियों की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए महर्षि वशिष्ठ ने योगवाशिष्ठ में कहा है - "महान् व्यक्तियों की सूक्तियाँ अपूर्व आनन्द देनेवाली, उत्कृष्टतर पद पर पहुँचानेवाली और मोह को पूर्णतया दूर करनेवाली होती हैं ।"1 यही बात शब्दान्तर में आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव में कही है - "मनुष्य के अन्तर्हृदय को जगाने के लिए, सत्यासत्य के निर्णय के लिए, लोक-कल्याण के लिए, विश्व-शान्ति और सम्यक् तत्त्व का बोध देने के लिए सत्पुरुषों की सूक्ति का प्रवर्तन होता है ।" । सुवचनों, सुकथनों को धरती का अमृतरस कहें तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी । कालजयी सूक्तियाँ वास्तव में अमृतरस के समान चिरकाल से प्रतिष्ठित रही हैं और अमृत के सदृश ही उन्होंने संजीवनी का कार्य भी किया है। इस संजीवनी रस के सेवन मात्र से मृतवत् मूर्ख प्राणी, जिन्हें हम असल में मरे हुए कहते हैं, जीवित हो जाते हैं, प्राणवान् दिखाई देने लगते हैं। मनीषियों का कथन हैं कि जिसके पास ज्ञान है, वही जीवित है, जो अज्ञानी है वह तो मरा हुआ ही होता है । इन मृत प्राणियों को जीवित करने का अमृत महान् ग्रन्थ अभिधान-राजेन्द्र कोष में प्राप्त होगा । शिवलीलार्णव में कहा है - "जिस प्रकार बालू में पड़ा पानी वहीं सूख जाता है, उसीप्रकार संगीत भी केवल कान तक पहुँचकर सूख जाता है, किन्तु कवि की सूक्ति में ही ऐसी शक्ति है, कि वह सुगन्धयुक्त अमृत के समान हृदय के अन्तस्तल तक पहुँचकर मन को सदैव आह्लादित करती रहती है। इसीलिए 'सुभाषितों का रस अन्य रसों की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ है ।' 4 अमृतरस छलकाती ये सूक्तियाँ अन्तस्तल 1. 2 अपूर्वाह्लाद दायिन्य: उच्चस्तर पदाश्रयाः । अतिमोहापहारिण्यः सूक्तयो हि महियसाम् ।। योगवाशिष्ठ 54/5 प्रबोधाय विवेकाय, हिताय प्रशमाय च । सम्यक् तत्त्वोपदेशाय, सतां सूक्ति प्रवर्तते ॥ ज्ञानार्णव कर्णगतं शुष्यति कर्ण एव, संगीतकं सैकत वारिरीत्या । आनन्दयत्यन्तरनुप्रविष्य, सूक्ति कवे रेव सुधा सगन्धा ॥ - शिवलीलार्णव नूनं सुभाषित रसोन्यः रसातिशायी - योग वाशिष्ठ 54/5 3. अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 12 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को स्पर्श करती हुई प्रतीत होती है । वस्तुतः जीवन को सुरभित व सुशोभित करनेवाला सुभाषित एक अनमोल रत्न है । सुभाषित में जो माधुर्य रस होता है, उसका वर्णन करते हुए कहा है - "सुभाषित का रस इतना मधुर [मीठा] है कि उसके आगे द्राक्षा म्लानमुखी हो गई । मिश्री सूखकर पत्थर जैसी किरकिरी हो गई और सुधा भयभीत होकर स्वर्ग में चली गई।" 1 ___अभिधान राजेन्द्र कोष की ये सूक्तियाँ अनुभव के 'सार' जैसी, समुद्र-मन्थन के 'अमृत' जैसी, दघि-मन्थन के 'मक्खन' जैसी और मनीषियों के आनन्ददायक 'साक्षात्कार' जैसी "देखन में छोटे लगे, घाव करे गम्भीर" की उक्ति को चरितार्थ करती हैं । इनका प्रभाव गहन हैं । ये अन्तर ज्योति जगाती हैं। वास्तव में, अभिधान राजेन्द्र कोष एक ऐसी अमरकृति है, जो देशविदेश में लोकप्रियता प्राप्त कर चुकी है। यह एक ऐसा विराट् शब्द-कोष है, जिसमें परम मधुर अर्धमागधी भाषा, इक्षुरस के समान पुष्टिकारक प्राकृतभाषा और अमृतवर्षिणी संस्कृत भाषा के शब्दों का सरस व सरल निरुपण हुआ है। विश्वपूज्य परमाराध्यपाद मंगलमूर्ति गुरुदेव श्रीमद् राजेन्द्र-सूरीश्वरजी महाराजा साहेब पुरातन ऋषि परम्परा के महामुनीश्वर थे, जिनका तपोबल एवं ज्ञान-साधना अनुपम, अद्वितीय थी। इस प्रज्ञामहर्षि ने सन् 1890 में इस कोष का श्रीगणेश किया तथा सात भागों में 14 वर्षों तक अपूर्व स्वाध्याय, चिन्तन एवं साधना से सन् 1903 में परिपूर्ण किया । लोक-मङ्गल का यह कोष सुधासिन्धु है। . इस कोष में सूक्तियों का निरुपण-कौशल पण्डितों, दार्शनिकों और साधारण जनता-जनार्दन के लिए समान उपयोगी है। इस कोष की महनीयता को दर्शाना सूर्य को दीपक दिखाना है । हमने अभिधान राजेन्द्र कोष की लगभग 2700 सूक्तियों का हिन्दी सरलार्थ प्रस्तुत कृति 'सूक्ति सुधारस' के सात खण्डों में किया है। 'सूक्ति सुधारस' अर्थात् अभिधान राजेन्द्र-कोष-सिन्धु के मन्थन से निःसृत अमृत-रस से गूंथा गया शाश्वत सत्य का वह भव्य गुलदस्ता है, जिसमें 2667 सुकथनों/सूक्तियों की मुस्कराती कलियाँ खिली हुई हैं । ऐसे विशाल और विराट कोष-सिन्धु की सूक्ति रूपी मणि-रत्नों को 1. द्राक्षाम्लानमुखी जाता, शर्करा चाश्मतां गता, सुभाषित रसस्याग्रे, सुधा भीता दिवंगता ॥ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6.13 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खोजना कुशल गोताखोर से सम्भव है। हम निपट अज्ञानी हैं - न तो साहित्यविभूषा को जानती हैं, न दर्शन की गरिमा को समझती हैं और न व्याकरण की बारीकी समझती हैं, फिर भी हमने इस कोष के सात भागों की सक्तियों को सात खण्डों में व्याख्यायित करने की बालचेष्टा की है। यह भी विश्वपूज्य के प्रति हमारी अखण्ड भक्ति के कारण । हमारा बाल प्रयास केवल ऐसा ही है - वक्तुं गुणान् गुण समुद्र ! शशाङ्ककान्तान् । कस्ते क्षमः सुरगुरु प्रतिमोऽपि बुद्ध्या कल्पान्त काल पवनोद्धत नक्र चक्रं । को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ॥ हमने अपनी भुजाओं से कोष रूपी विशाल समुद्र को तैरने का प्रयास केवल विश्व-विभु परम कृपालु गुरुदेवश्री के प्रति हमारी अखण्ड श्रद्धा और प.पू. परमाराध्यपाद प्रशान्तमूर्ति कविरत्न आचार्य देवेश श्रीमद् विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. तत्पट्टालंकार प. पूज्यपाद साहित्यमनीषी राष्ट्रसन्त श्रीमद् विजय जयन्तसेनसूरीश्वरजी महाराजा साहेब की असीमकृपा तथा परम पूज्या परमोपकारिणी गुरुवर्या श्री हेतश्रीजी म.सा. एवं परम पूज्या सरलस्वभाविनी स्नेह-वात्सल्यमयी साध्वीरत्ना श्री महाप्रभाश्रीजी म. सा. [हमारी सांसारिक पूज्या दादीजी] की प्रीति से किया है । जो कुछ भी इसमें हैं, वह इन्हीं पञ्चमूर्ति का प्रसाद है। ___ हम प्रणत हैं उन पंचमूर्ति के चरण कमलों में, जिनके स्नेह-वात्सल्य व आशीर्वचन से प्रस्तुत ग्रन्थ साकार हो सका है। हमारी जीवन-क्यारी को सदा सींचनेवाली परम श्रद्धया [हमारी संसारपक्षीय दादीजी] पूज्यवर्या श्री के अनन्य उपकारों को शब्दों के दायरे में बाँधने में हम असमर्थ हैं। उनके द्वारा प्राप्त अमित वात्सल्य व सहयोग से ही हमें सतत ज्ञान-ध्यान, पठन-पाठन, लेखन व स्वाध्यायादि करने में हरतरह की सुविधा रही है। आपके इन अनन्त उपकारों से हम कभी भी उऋण नहीं हो सकतीं। हमारे पास इन गुरुजनों के प्रति आभार-प्रदर्शन करने के लिए न तो शब्द है, न कौशल है, न कला है और न ही अलंकार ! फिर भी हम इनकी करुणा, कृपा और वात्सल्य का अमृतपान कर प्रस्तुत ग्रंथ के आलेखन में सक्षम बन सकी हैं। हम उनके पद-पद्मों में अनन्यभावेन समर्पित हैं, नतमस्तक हैं । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6.14 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसमें जो कुछ भी श्रेष्ठ और मौलिक है, उस गुरु-सत्ता के शुभाशीष का ही यह शुभ फल है। विश्वपूज्य प्रभु श्रीमद् राजेन्द्रसूरि शताब्दि-दशाब्दि महोत्सव के उपलक्ष्य में अभिधान राजेन्द्र कोष के सुगन्धित सुमनों से श्रद्धा-भक्ति के स्वर्णिम धागे से गूंथी यह षष्ठन सुमनमाला उन्हें पहना रही हैं, विश्वपूज्य प्रभु हमारी इस नन्हीं माला को स्वीकार करें। हमें विश्वास है यह श्रद्धा-भक्ति-सुमन जन-जीवन को धर्म, नीतिदर्शन-ज्ञान-आचार, राष्ट्रधर्म, आरोग्य, उपदेश, विनय-विवेक, नम्रता, तपसंयम, सन्तोष-सदाचार, क्षमा, दया, करुणा, अहिंसा-सत्य आदि की सौरभ से महकाता रहेगा और हमारे तथा जन-जन के आस्था के केन्द्र विश्वपूज्य की यशः सुरभि समस्त जगत् में फैलाता रहेगा। इस ग्रन्थ में त्रुटियाँ होना स्वाभाविक ही है, क्योंकि हर मानव कृति में कुछ न कुछ त्रुटियाँ रह ही जाती हैं। इसीलिए लेनिन ने ठीक ही कहा है : त्रुटियाँ तो केवल उसी से नहीं होगी जो कभी कोई काम करे ही नहीं। . गच्छतः स्खलनं क्वापि, भवत्येव प्रमादतः । ..... हसन्ति दुर्जनास्तत्र, समादधति सज्जनाः ॥ - श्री राजेन्द्रगुणगीतवेणु __- श्री राजेन्द्रपदपद्मरेणु डॉ. प्रियदर्शनाश्री, एम. ए., पीएच.-डी. डॉ. सुदर्शनाश्री, एम. ए., पीएच.-डी. अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 15 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .) | आभार हम परम पूज्य राष्ट्रसन्त आचार्यदेव श्रीमद् जयन्तसेन सूरीश्वरजी म. सा. "मधुकर", परम पूज्य राष्ट्रसन्त आचार्यदेव श्रीमद् पद्मसागर सूरीश्वरजी म. सा. एवं प. पू. मुनिप्रवर श्री जयानन्द विजयजी म. सा. के चरण कमलों में वंदना करती हैं, जिन्होंने असीम कृपा करके अपने मन्तव्य लिखकर हमें अनुगृहीत किया है। हमें उनकी शुभप्रेरणा व शुभाशीष सदा मिलती रहे, यही करबद्ध प्रार्थना है। इसके साथ ही हमारी सुविनीत गुरुबहनें सुसाध्वीजी श्री आत्मदर्शनाश्रीजी, श्रीसम्यग्दर्शनाश्रीजी (सांसारिक सहोदरबहनें), श्री चारूदर्शनाश्रीजी एवं श्री प्रीतिदर्शनाश्रीजी (एम.ए.) की शुभकामना का सम्बल भी इस ग्रन्थ के प्रणयन में साथ रहा है । अतः उनके प्रति भी हृदय से आभारी हैं। ____ हम पद्म विभूषण, पूर्व भारतीय राजदूत ब्रिटेन, विश्वविख्यात विधिवेत्ता एवं महान् साहित्यकार माननीय डॉ. श्रीमान् लक्ष्मीमल्लजी सिंघवी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करती हैं, जिन्होंने अति भव्य मन्तव्य लिखकर हमें प्रेरित किया है। तदर्थ हम उनके प्रति हृदय से अत्यन्त आभारी हैं। इस अवसर पर हिन्दी-अंग्रेजी के सुप्रसिद्ध मनीषी सरलमना माननीय डो. श्री जवाहरचन्द्रजी पटनी का योगदान भी जीवन में कभी नहीं भुलाया जा सकता है। पिछले दो वर्षों से सतत उनकी यही प्रेरणा रही कि आप शीघ्रातिशीघ्र 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस' [1 से 7 खण्ड], 'अभिधान राजेन्द्र कोष में जैनदर्शन वाटिका', 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, कथा-कुसुम' और 'विश्वपूज्य' (श्रीमद राजेन्द्रसूरिः जीवन-सौरभ) आदि ग्रन्थों को सम्पन्न करें। उनकी सक्रिय प्रेरणा, सफल निर्देशन, सतत प्रोत्साहन व आत्मीयतापूर्ण सहयोगसुझाव के कारण ही ये ग्रन्थ [1 से 10 खण्ड] यथासमय पूर्ण हो सके हैं। पटनी सा0 ने अपने अमूल्य क्षणों का सदुपयोग प्रस्तुत ग्रन्थ के अवलोकन में किया। हमने यह अनुभव किया कि देहयष्टि वार्धक्य के कारण कृश होती है, परन्तु आत्मा अजर अमर है। गीता में कहा है : नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारूतः ॥ कर्मयोगी का यही अमर स्वरूप है। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 16 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम साध्वीद्वय उनके प्रति हृदय से कृतज्ञा हैं । इतना ही नहीं, अपितु प्रस्तुत ग्रन्थों के अनुरूप अपना आमुख लिखने का कष्ट किया तदर्थ भी हम आभारी हैं। उनके इस प्रयास के लिए हम धन्यवाद या कृतज्ञता ज्ञापन कर उनके अमूल्य श्रम का अवमूल्यन नहीं करना चाहतीं । बस, इतना ही कहेंगी कि इस सम्पूर्ण कार्य के निमित्त उन्हें ज्ञान के इस अथाह सागर में बार-बार डुबकियाँ लगाने का जो सुअवसर प्राप्त हुआ, वह उनके लिए महान् सौभाग्य है । तत्पश्चात् अनवरत शिक्षा के क्षेत्र में सफल मार्गदर्शन देनेवाले शिक्षा गुरुजनों के प्रति भी कृतज्ञता ज्ञापन करना हमारा परम कर्तव्य है । बी. ए. [प्रथम खण्ड ] से लेकर आजतक हमारे शोध निर्देशक माननीय डॉ. श्री अखिलेशकुमारजी राय सा. द्वारा सफल निर्देशन, सतत प्रोत्साहन एवं निरन्तर प्रेरणा को विस्मृत नहीं किया जा सकता, जिसके परिणाम स्वरूप अध्ययन के क्षेत्र में हम प्रगतिपथ पर अग्रसर हुईं। इसी कड़ी में श्री पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध-संस्थान वाराणसी के निदेशक माननीय डॉ. श्री सागरमलजी जैन के द्वारा प्राप्त सहयोग को भी जीवन में कभी भी भुलाया नहीं जा सकता, क्योंकि पार्श्वनाथ विद्याश्रम के परिसर में सालभर रहकर हम साध्वी द्वय ने 'आचारांग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन' और 'आनन्दघन का रहस्यवाद' – इन दोनों शोधप्रबन्ध-ग्रन्थों को पूर्ण किया था, जो पीएच. डी. की उपाधि के लिए अवधेश प्रतापसिंह विश्वविद्यालय रीवा (म.प्र) ने स्वीकृत किये । इन दोनों शोधप्रबन्ध ग्रन्थों को पूर्ण करने में डॉ. जैन सा. का अमूल्य योगदान रहा है । इतना ही नहीं, प्रस्तुत ग्रन्थों के अनुरूप मन्तव्य लिखने का कष्ट किया । तदर्थ भी हम आभारी हैं। - इनके अतिरिक्त विश्रुत पण्डितवर्य माननीय श्रीमान् दलसुख भाई मालवणियाजी, विद्ववर्य डॉ. श्री नेमीचन्दजी जैन, शास्त्रसिद्धान्त रहस्यविद् ? पण्डितवर्य श्री गोविन्दरामजी व्यास, विद्वद्वर्य पं. श्री जयनन्दनजी झा, पण्डितवर्य श्री हीरालालजी शास्त्री एम. ए., हिन्दी अंग्रेजी के सुप्रसिद्ध मनीषी श्री भागचन्दजी जैन, एवं डॉ. श्री अमृतलालजी गाँधी ने भी मन्तव्य लिखकर स्नेहपूर्ण उदारता दिखाई, तदर्थ हम उन सबके प्रति भी हृदय से अत्यन्त आभारी हैं । अन्त में उन सभी का आभार मानती हैं जिनका हमें प्रत्यक्ष व परोक्ष सहकार / सहयोग मिला है । यह कृति केवल हमारी बालचेष्टा है, अतः सुविज्ञ, उदारमना सज्जन हमारी त्रुटियों के लिए क्षमा करें । पौष शुक्ला सप्तमी 5 जनवरी, 1998 - डॉ. प्रियदर्शना श्री - डॉ. सुदर्शनाश्री अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 17 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ gxxmom 303333333333888888888888888 श्रुतज्ञानप्रेमी, धर्मानुरागी सकल श्रीसंघ, धाणसा ! धन्यवाद का पात्र है श्रीसंघ जिन्होंने 'अभिधान राजेन्द्र कोष' में, 'सक्तिसुधारस' (षष्ठम खण्ड) के मुद्रण का लाभ लेकर अत्यन्त ही प्रशंसनीय कार्य किया है। पढमं नाणं तओ दया । - पहले ज्ञान फिर दया [आचरण] । यह श्रीसंघ का सर्वप्रथम लक्ष्य रहा है। श्रीसंघ की महिमा भी ज्ञानोपासना में निहित है। जैनधर्म के सप्तक्षेत्रों में जिनबिम्ब, जिनालय, जिनागम, साधुसाध्वी एवं श्रावक-श्राविका के पोषण का प्रभुने आदेश दिया है । श्रीसंघ, जिनशासन रूपी स्वर्ण-रजत-रत्नमय सुरथ के चकतुल्य है। कुमारपाल प्रतिबोध में कहा है - 'अणुदियहं दितस्सवि झिज्झन्ति न सायरस्स रयणाई'। - प्रतिदिन देते हुए भी सागर के रत्न कभी समाप्त नहीं होते। आवश्यक नियुक्ति में कहा है - नाणं पयासगं । ज्ञान प्रकाश करनेवाला है । ज्ञान से ही विवेक जगता है । उपाध्याय यशोविजयजी म. ने कहा है - 'ज्ञान' समुद्र मन्थन के बिना प्रादुर्भूत अमृत है, बिना औषधि का रसायन है और किसी की अपेक्षा नहीं रखनेवाला ऐश्वर्य है। बृहत्कल्प भाष्य में तो 'सूयं तइयं चक्खु'-अर्थात् श्रुतज्ञान को तीसरा नेत्र बताया है। इतना ही नहीं, सूक्तमुक्तावली में कहा है-ज्ञान दुनिया की आँख है। इस संसार में ज्ञान से बढ़कर अन्य कोई पवित्र वस्तु नहीं है । श्री संघ धाणसा को इस सुकृत के लिए हमारी जीवन-निर्मात्री परम पूजनीया साध्वीरत्ना श्री महाप्रभाश्रीजी म. सा. (पू. दादीजी म. सा.) आशीर्वाद प्रदान करती हैं। साथ ही हमारी ओर से आभार और धन्यवाद । हम आशा करती हैं कि श्रीसंघ, धाणसा इसीप्रकार भविष्य में भी सुकृत्यों में सदा सहयोग देता रहेगा । यही अभ्यर्थना ! - साध्वी डॉ. प्रियदर्शना श्री - साध्वी डॉ. सुदर्शना श्री अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 18 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m भूब - डॉ. जवाहरचन्द्र पटनी, एम. ए. (हिन्दी-अंग्रेजी), पीएच. डी., बी.टी. विश्वपूज्य श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी विरले सन्त थे। उनके जीवन-दर्शन से यह ज्ञात होता है कि वे लोक मंगल के क्षीर-सागर थे। उनके प्रति मेरी श्रद्धाभक्ति तब विशेष बढ़ी, जब मैंने कलिकाल कल्पतरू श्री वल्लभसरिजी पर 'कलिकाल कल्पतरू' महाग्रन्थ का प्रणयन किया, जो पीएच. डी. उपाधि के लिए जोधपुर विश्वविद्यालय ने स्वीकृत किया । विश्वपूज्य प्रणीत 'अभिधान राजेन्द्र कोष' से मुझे बहुत सहायता मिली । उनके पुनीत पद-पद्मों में कोटिशः वन्दन ! फिर पूज्या डॉ. साध्वी द्वय श्री प्रियदर्शनाश्रीजी म. एवं डॉ. श्री सुदर्शनाश्रीजी म. के ग्रन्थ - 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, जैनदर्शन वाटिका', 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस' [1 से 7 खण्ड], 'विश्वपूज्य' [श्रीमद् राजेन्द्रसूरि : जीवन-सौरभ), 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, कथा-कुसुम', 'सुगन्धित सुमन', 'जीवन की मुस्कान' एवं 'जिन खोजा तिन पाइयाँ' आदि ग्रन्थों का अवलोकन किया। विदुषी साध्वी द्वय ने विश्वपूज्य की तपश्चर्या, कर्मठता एवं कोमलता का जो वर्णन किया है, उससे मैं अभिभूत हो गया और मेरे सम्मुख इस भोगवादी आधुनिक युग में पुरातन ऋषि-महर्षि का विराट और विनम्र करुणाई तथा सरल, लोक-मंगल का साक्षात् रूप दिखाई दिया । श्री विश्वपूज्य इतने दृढ़ थे कि भयंकर झंझावातों और संघर्षों में भी अडिग रहे । सर्वज्ञ वीतराग प्रभु के परमपुनीत स्मरण से वे अपनी नन्हीं देहकश्ती को उफनते समुद्र में निर्भय चलाते रहें । स्मरण हो आता है, परम गीतार्थ महान् आचार्य मानतुंगसूरिजी रचित महाकाव्य भक्तामर का यह अमर लोक - 'अम्भो निधौ क्षुभित भीषण नक्र चक्र, पाठीन पीठ भय दोल्ला वाटनारनौ । रङ्गत्तरंग शिखर स्थित यान पात्रा - स्त्रासं विहाय भवतः स्मरणाद् व्रजन्ति ॥' अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6019 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे स्वामिन् ! क्षुब्ध बने हुए भयंकर मगरमच्छों के समूह और पाठीन तथा पीठ जाति के मत्स्य व भयंकर वड़वानल अग्नि जिसमें है, ऐसे समुद्र में जिनके जहाज लहरों के अग्रभाग पर स्थित हैं; ऐसे जहाजवाले लोग आपका मात्र स्मरण करने से ही भयरहित होकर निर्विघ्नरूप से इच्छित स्थान पर पहुँचते हैं। विदुषी डॉ. साध्वी द्वय ने विश्वपूज्य के विराट और कोमल जीवन का यथार्थ वर्णन किया है । उससे यह सहज प्रतीति होती है कि विश्वपूज्य कर्मयोगी महषि थे, जिन्होंने उस युग में व्याप्त भ्रष्टाचार और आडम्बर को मिटाने के लिए ग्राम-ग्राम, नगर-नगर, वन-उपवन में पैदल विहार किया। व्यसनमुक्त समाज के निर्माण में अपना समस्त जीवन समर्पित कर दिया । विदुषी लेखिकाओंने यह बताया है कि इस महर्षि ने व्यक्ति और समाज को सुसंस्कृत करने हेतु सदाचार-सुचरित्र पर बल दिया तथा सत्साहित्य द्वारा भारतीय गौरवशालिनी संस्कृति को अपनाने के लिए अभिप्रेरित किया । इस महर्षि ने हिन्दी में भक्तिरस-पूर्ण स्तवन, पद एवं सज्झायादि गीत लिखे हैं। जो सर्वजनहिताय, स्वान्तः सुखाय और भक्तिरस प्रधान हैं। इनकी समस्त कृतियाँ लोकमंगल की अमृत गगरियाँ हैं। गीतों में शास्त्रीय संगीत एवं पूजा-गीतों की लावणियाँ हैं जिनमें माधुर्य भरपूर हैं। विश्वपूज्य ने रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा एवं दृष्टान्त आदि अलंकारों का अपने काव्य में प्रयोग किया है, जो अप्रयास है। ऐसा लगता है कि कविता उनकी हृदय वीणा पर सहज ही झंकृत होती थी। उन्होंने यद्यपि स्वान्तः सुखाय गीत रचना की है, परन्तु इनमें लोकमाङ्गल्य का अमृत स्रवित होता है। उनके तपोमय जीवन में प्रेम और वात्सल्य की अमी-वृष्टि होती है । ____ विश्वपूज्य अर्धमागधी, प्राकृत एवं संस्कृत भाषाओं के अद्वितीय महापण्डित थे। उनकी अमरकृति – 'अभिधान राजेन्द्र कोष' में इन तीन भाषाओं के शब्दों की सारगर्भित और वैज्ञानिक व्याख्याएँ हैं । यह केवल पण्डितवरों का ही चिन्तामणि रत्न नहीं है, अपितु जनसाधारण को भी इस अमृत-सरोवर का अमृत-पान करके परम तृप्ति का अनुभव होता है। उदाहरण के लिए - जैनधर्म में 'नीवि' और 'गहुँली' शब्द प्रचलित हैं । इन शब्दों की व्याख्या मुझे कहीं भी नहीं मिली। इन शब्दों का समाधान इस कोष में है। 'नीवि' अर्थात् नियमपालन करते हुए विधिपूर्वक आहार लेना । गहुँली गुरु-भगवंतों के शुभागमन पर मार्ग में अक्षत का स्वस्तिक करके उनकी वधामणी करते हैं और गुरुवर के प्रवचन के पश्चात् गीत द्वारा गहुँली गीत गाया जाता है। इनकी अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 . 20 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्युत्पत्ति - व्याख्या 'अभिधान राजेन्द्र कोष' में मिलीं। पुरातनकाल में गेहूँ का स्वस्तिक करके गुरुजनों का सत्कार किया जाता था । कालान्तर में अक्षतचावल का प्रचलन हो गया । यह शब्द योगरूढ़ हो गया, इसलिए गुरु भगवंतों के सम्मान में गाया जानेवाला गीत भी गहुँली हो गया । स्वर्ण मोहरों या रत्नों से गहुँली क्यों न हो, वह गहुँली ही कही जाती है । भाषा विज्ञान की दृष्टि से अनेक शब्द जिनवाणी की गंगोत्री में लुढ़क - लुढ़क कर घिस - घिस कर शालिग्राम बन जाते हैं । विश्वपूज्य ने प्रत्येक शब्द के उद्गम स्रोत की गहन व्याख्या की है । अतः यह कोष वैज्ञानिक है, साहित्यकारों एवं कवियों के लिए रसात्मक हैं तथा जनसाधारण के लिए शिव प्रसाद है । - जब कोष की बात आती है तो हमारा मस्तक हिमगिरि के समान विराट् गुरुवर के चरण-कमलों में श्रद्धावनत हो जाता है । षष्टिपूर्ति के तीन वर्ष बाद 63 वर्ष की वृद्धावस्था में विश्वपूज्य ने 'अभिधान राजेन्द्र कोष' का श्रीगणेश किया और 14 वर्ष के अनवरत परिश्रम व लगन से 76 वर्ष की आयु में इसे परिसम्पन्न किया । इनके इस महत्दान का मूल्याङ्कन करते हुए मुझे महर्षि दधीचि की पौराणिक कथा का स्मरण हो आता है, जिसमें इन्द्र ने देवासुर संग्राम में देवों की हार और असुरों की जय से निराश होकर इस महर्षि से अस्थिदान की प्रार्थना की थी। सत् विजयाकांक्षा की मंगल-भावना से इस महर्षि ने अनशन तप से देह सुखाकर अस्थिदान इन्द्र को दिया था, जिससे वज्रायुध बना । इन्द्र ने वज्रायुध से असुरों को पराजित किया । इसप्रकार सत् की विजय और असत् की पराजय हुई | 'सत्यमेव जयते' का उद्घोष हुआ । सचमुच यह कोष वज्रायुध के समान सत्य की रक्षा करनेवाला और असत्य का विध्वंस करनेवाला है । विदुषी साध्वी द्वय ने इस महाग्रन्थ का मन्थन करके जो अमृत प्राप्त किया है, वह जनता - जनार्दन को समर्पित कर दिया है । सारांश में. - यह ग्रन्थ 'सत्यं शिवं सुंदरम्' की परमोज्ज्वल ज्योति सब युगों में जगमगाता रहेगा यावत्चन्द्रदिवाकरौ । - इस कोष की लोकप्रियता इतनी है कि साण्डेराव ग्राम (जिला - पालीराजस्थान) के लघु पुस्तकालय में भी इसके नवीन संस्करण के सातों भाग विद्यमान हैं। यही नहीं, भारत के समस्त विश्वविद्यालयों, श्रेष्ठ महाविद्यालयों तथा पाश्चात्त्य देशों के विद्या संस्थानों में ये उपलब्ध हैं । इनके बिना विश्वविद्यालय और शोध संस्थान रिक्त लगते हैं । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 21 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदुषी साध्वी द्वय नि:संदेह यशोपात्रा हैं, क्योंकि उन्होंने विश्वपूज्य के पाण्डित्य को ही अपने ग्रन्थों में नहीं दर्शाया है; अपितु इनके लोक-माङ्गल्य का भी प्रशस्त वर्णन किया है। . ये महान् कर्मयोगी पत्थरों में फूल खिलाते हुए, मरूभूमि में गंगा-जमुना की पावन धाराएँ प्रवाहित करते हुए, बिखरे हुए समाज को कलह के काँटों से बाहर निकाल कर प्रेम-सूत्र में बाँधते हुए, पीड़ित प्राणियों की वेदना मिटाते हुए, पर्यावरण - शुद्धि के लिए आत्म-जागृति का पाञ्चजन्य शंख बजाते हुए 80 वर्ष की आयु में प्रभु शरण में कल्पपुष्प के समान समपित हो गए। .. श्री वाल्मीकि ने रामायण में यह बताया है कि भगवान् राम ने 14 वर्षों के वनवास काल में अछूतों का उद्धार किया, दु:खी-पीड़ित प्राणियों को जीवन-दान दिया, असुर प्रवृत्ति का नाश किया और प्राणि-मैत्री की रसवन्ती गंगधारा प्रवाहित की । इस कालजयी युगवीर आचार्य ने इसीलिए 14 वर्ष कोष की रचना में लगाये होंगे। 14 वर्ष शुभ काल है – मंगल विधायक है। महर्षियों के रहस्य को महर्षि ही जानते हैं । लाखों-करोड़ों मनुष्यों का प्रकाश-दीप बुझ गया, परन्तु वह बुझा नहीं है। वह समस्त जगत् के जन-मानसों में करूणा और प्रेम के रूप में प्रदीप्त विदुषी साध्वी द्वय के ग्रन्थों को पढ़कर मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि विश्वपूज्य केवल त्रिस्तुतिक आम्नाय के ही जैनाचार्य नहीं थे, अपितु समस्त जैन समाज के गौरव किरीट थे, वे हिन्दुओं के सन्त थे, मुसलमानों के फकीर और ईसाइयों के पादरी । वे जगद्गुरु थे। विश्वपूज्य थे और हैं। विदुषी डॉ. साध्वी द्वय की भाषा-शैली वसन्त की परिमल के समान मनोहारिणी है । भावों को कल्पना और अलंकारों से इक्षुरस के समान मधुर बना दिया है। समरसता ऐसी है जैसे - सुरसरि का प्रवाह ।। __दर्शन की गम्भीरता भी सहज और सरल भाषा-शैली से सरस बन गयी है। . इन विदुषी साध्वियों के मंगल-प्रसाद से समाज सुसंस्कारों के प्रशस्तपथ पर अग्रसर होगा। भविष्य में भी ये साध्वियाँ तृष्णा तृषित आधुनिक युग को अपने जीवन-दर्शन एवं सत्साहित्य के सुगन्धित सुमनों से महकाती रहेंगी! यही शुभेच्छा ! पूज्या साध्वीजी द्वय को विश्वपूज्य श्रीमद राजेन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. की पावन प्रेरणा प्राप्त हुई, इससे इन्होंने इन अभिनव ग्रन्थों का प्रणयन किया। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 . 22 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह सच है कि रवि-रश्मियों के प्रताप से सरोवर में सरोज सहज ही प्रस्फुटित होते हैं । वासन्ती पवन के हलके से स्पर्श से सुमन सौरभ सहज ही प्रसृत होते हैं। ऐसी ही विश्वपूज्य के वात्सल्य की परिमल इनके ग्रन्थों को सुरभित कर रही हैं। उनकी कृपा इनके ग्रन्थों की आत्मा है। जिन्हें महाज्ञानी साहित्यमनीषी राष्ट्रसन्त प. पू. आचार्यदेवेश श्रीमद्जयन्तसेनसूरीश्वरजी म. सा. का आर्शीवाद और परम पूज्या जीवन निर्मात्री (सांसारिक दादीजी) साध्वीरत्ना श्री महाप्रभाश्रीजी म. का अमित वात्सल्य प्राप्त हों, उनके लिए ऐसे ग्रन्थों का प्रणयन सहज और सुगम क्यों न होगा ? निश्चय ही। वात्सल्य भाव से मुझे आमुख लिखने का आदेश दिया पूज्या साध्वी द्वय ने । उसके लिए आभारी हूँ, यद्यपि मैं इसके योग्य किञ्चित् भी नहीं हूँ। इति शुभम् ! पौष शुक्ला सप्तमी 5 जनवरी, 1998 कालन्द्री जिला-सिरोही (राज.) पूर्वप्राचार्य श्री पार्श्वनाथ उम्मेद कॉलेज, फालना (राज.) अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6.23 - Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9 मन्तब्य • डो. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी (पद्म विभूषण, पूर्व भारतीय राजदूत - ब्रिटेन) ― आदरणीया डॉ. प्रियदर्शनाजी एवं डॉ. सुदर्शनाजी साध्वीद्वय ने "विश्वपूज्य' (श्रीमद् राजेन्द्रसूरि : जीवन-सौरभ ) ', "अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्तिसुधारस " (1 से 7 खण्ड), एवं अभिधान राजेन्द्र कोष में, जैनदर्शन वाटिका" की रचना में जैन परम्परा की यशोगाथा की अमृतमय प्रशस्ति की है । ये ग्रंथ विदुषी साध्वी - द्वय की श्रद्धा, निष्ठा, शोध एवं दृष्टि-सम्पन्नता के परिचायक एवं प्रमाण हैं । एक प्रकार से इस ग्रंथत्रयी में जैन- परम्परा की आधारभूत रत्नत्रयी का प्रोज्ज्वल प्रतिबिम्ब है। युगपुरुष, प्रज्ञामहर्षि, मनीषी आचार्य श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी के व्यक्तित्व और कृतित्व के विराट् क्षितिज और धरातल की विहंगम छवि प्रस्तुत करते हुए साध्वी - द्वय ने इतिहास के एक शलाकापुरुष की यश - प्रतिमा की संरचना की हैं, उनकी अप्रतिम उपलब्धियों के ज्योतिर्मय अध्याय को प्रदीप्त और रेखांकित किया है। इन ग्रंथों की शैली साहित्यिक है, विवेचन विश्लेषणात्मक है, संप्रेषण रस-सम्पन्न एवं मनोहारी है और रेखांकन कलात्मक है । 1 पुण्य श्लोक प्रात:स्मरणीय आचार्य श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी अपने जन्म के नाम के अनुसार ही वास्तव में 'रत्नराज' थे । अपने समय में वे जैनपरम्परा में ही नहीं बल्कि भारतीय विद्या के विश्रुत विद्वान् एवं विद्वत्ता के शिरोमणि थे । उनके व्यक्तित्व और कृतित्व में सागर की गहराई और पर्वत की ऊँचाई विद्यमान थी । इसीलिए उनको विश्वपूज्य के अलंकरण से विभूषित करते हुए वह अलंकरण ही अलंकृत हुआ । भारतीय वाङ्मय में "अभिधान राजेन्द्र कोष" एक अद्वितीय, विलक्षण और विराट् कीर्तिमान है जिसमें संस्कृत, प्राकृत एवं अर्धमागधी की त्रिवेणी भाषाओं और उन भाषाओं में प्राप्त विविध परम्पराओं की सूक्तियों की सरल और सांगोपांग व्याख्याएँ हैं, शब्दों का विवेचन और दार्शनिक संदर्भों की अक्षय सम्पदा है। लगभग ६० हजार शब्दों की व्याख्याओं एवं साढ़े चार लाख श्लोकों के ऐश्वर्य से महिमामंडित यह ग्रंथ जैन परम्परा एवं समग्र भारतीय विद्या का अपूर्व भंडार है । साध्वीद्वय डॉ. प्रियदर्शनाश्री एवं डॉ. सुदर्शनाश्री की यह प्रस्तुति एक ऐसा साहसिक सारस्वत अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 24 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयास है जिसकी सराहना और प्रशस्ति में जितना कहा जाय वह स्वल्प ही होगा, अपर्याप्त ही माना जायगा । उनके पूर्वप्रकाशित ग्रंथ "आनंदघन का रहस्यवाद" एवं आचारांग सूत्र का नीतिशास्त्रीय अध्ययन" प्रत्यूष की तरह इन विदुषी साध्वियों की प्रतिभा की पूर्व सूचना दे रहे थे । विश्व पूज्य की अमर स्मृति में साधना के ये नव दिव्य पुष्प अरुणोदय की रश्मियों की तरह हैं। 24-4-1998 4F, White House, 10, Bhagwandas Road, New Delhi-110001 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 25 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 'दो शब्द' - पं. दलसुख मालवणिया पूज्या डॉ. प्रियदर्शनाश्रीजी एवं डॉ. सुदर्शनाश्रीजी साध्वीद्वयने “अभिधान राजेन्द्र कोष में, जैनदर्शन वाटिका" एवं "अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्तिसुधारस" (1 से 7 खण्ड), आदि ग्रन्थ लिखकर तैयार किए हैं, जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं गौरवमयी रचनाएँ हैं । उनका यह अथक प्रयास स्तुत्य है साध्वीद्वय का यह कार्य उपयोगी तो है ही, तदुपरान्त जिज्ञासुजनों के लिए भी उपकारक हो, वैसा है । I इसप्रकार जैनदर्शन की सरल और संक्षिप्त जानकारी अन्यत्र दुर्लभ है। जिज्ञासु पाठकों को जैनधर्म के सद् आचार-विचार, तप-संयम, विनय - विवेक विषयक आवश्यक ज्ञान प्राप्त हो जाय, वैसी कृतियाँ हैं । fanich: 30-4-98 माधुरी-8, आपेरा सोसायटी, पालड़ी, अहमदाबाद- 380007 पूज्या साध्वीद्वय द्वारा लिखित इन कृतियों के माध्यम से मानव समाज को जैनधर्म-दर्शन सम्बन्धी एक दिशा, एक नई चेतना प्राप्त होगी । ऐसे उत्तम कार्य के लिए साध्वीद्वय का जितना उपकार माना जाय, वह स्वल्प ही होगा । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-626 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | सूक्ति-सुधारमः मेरी दृष्टि में HTHE - डॉ. नेमीचन्द जैन ___संपादक "तीर्थंकर" 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, सक्ति-सुधारस' के एक से सात खण्ड तक में, मैं गोते लगा सका हूँ। आनन्दित हूँ। रस-विभोर हूँ। कवि बिहारी के दोहे की एक पंक्ति बार-बार आँखों के सामने आ-जा रही है : "बूड़े अनबूड़े, तिरे जे बूड़े सब अंग" | जो डूबे नहीं, वे डूब गये हैं और जो डूब सके हैं सिर-से-पैर तक वे तिर गये हैं । अध्यात्म, विशेषतः श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वरजी के 'अभिधान राजेन्द्र कोष' का यही आलम है । डूबिये, तिर जाएँगे; सतह पर रहिये, डूब जाएंगे। वस्तुतः 'अभिधान राजेन्द्र कोष' का एक-एक वर्ण बहुमुखीता का धनी है। यह अप्रतिम कृति 'विश्वपूज्य' का 'विश्वकोश' (एन्सायक्लोपीडिया) है। जैसे-जैसे हम इसके तलातल का आलोड़न करते हैं, वैसे-वैसे जीवन की दिव्य छबियाँ थिरकती-ठुमकती हमारे सामने आ खड़ी होती हैं । हमारा जीवन सर्वोत्तम से संवाद बनने लगता है। ___'अभिधान राजेन्द्र' में संयोगतः सम्मिलित सूक्तियाँ ऐसी सूक्तियाँ हैं, जिनमें श्रीमद् की मनीषा-स्वाति ने दुर्लभ/दीप्तिमन्त मुक्ताओं को जन्म दिया है। ये सूक्तियाँ लोक-जीवन को माँजने और उसे स्वच्छ-स्वस्थ दिशा-दृष्टि देने में अद्वितीय हैं। मुझे विश्वास है कि साध्वीद्वय का यह प्रथम पुरुषार्थ उन तमाम सूक्तियों को, जो 'अभिधान राजेन्द्र' में प्रसंगतः समाविष्ट हैं, प्रस्तुत करने में सफल होगा । मेरे विनम्र मत में यदि इनमें से कुछेक सूक्तियों का मन्दिरों, देवालयों, स्वाध्याय-कक्षों, स्कूल-कॉलेजों की भित्तियों पर अंकन होता है तो इससे हमारी धार्मिक असंगतियों को तो एक निर्मल कायाकल्प मिलेगा ही, राष्ट्रीय चरित्र को भी नैतिक उठान मिलेगा। मैं न सिर्फ २६६७ सूक्तियों के ७ बृहत् खण्डों की प्रतीक्षा करूँगा, अपितु चाहूँगा कि इन सप्त सिन्धुओं के सावधान परिमन्थन से कोई 'राजेन्द्र सूक्ति नवनीत' जैसी लघुपुस्तिका सूरज की पहली किरण देखे । ताकि संतप्त मानवता के घावों पर चन्दन-लेप संभव हो । 27-04-1998 65, पत्रकार कालोनी, कनाड़िया मार्ग, इन्दौर (म.प्र.)-452001 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 27 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 डॉ. सागरमल जैन पूर्व निर्देशक पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस' (१ से ७ खण्ड) नामक इस कृति का प्रणयन पूज्या साध्वीश्री डॉ. प्रियदर्शनाश्रीजी एवं डॉ. सुदर्शनाश्रीजी ने किया है । वस्तुत: यह कृति अभिधानराजेन्द्रकोष में आई हुई महत्त्वपूर्ण सूक्तियों का अनूठा आलेखन हैं। लगभग एक शताब्दि पूर्व ईस्वीसन् १८९० आश्विन शुक्ला दूज के दिन शुभ लग्न में इस कोष ग्रन्थ का प्रणयन प्रारम्भ हुआ और पूज्य आचार्य भगवन्त श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी के अथक प्रयासों से लगभग १४ वर्ष में यह पूर्ण हुआ फिर इसके प्रकाशन की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई जो पुनः १७ वर्षो में पूर्ण हुई। जैनधर्म सम्बन्धी विश्वकोषों में यह कोष ग्रन्थ आज भी सर्वोपरि स्थान रखता है । प्रस्तुत कोष में जैन धर्म, दर्शन, संस्कृति और साहित्य से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण शब्दों का अकारादि क्रम से विस्तारपूर्वक विवेचन उपलब्ध होता है। इस विवेचना में लगभग शताधिक ग्रन्थों से सन्दर्भ चुने गये हैं । प्रस्तुत कृति में साध्वी द्वय ने इसी कोषग्रन्थ को आधार बनाकर सूक्तियों का आलेखन किया हैं । उन्होंने अभिधान राजेन्द्र कोष के प्रत्येक खण्ड को आधार मानकर इस 'सूक्ति-सुधारस' को भी सात खण्डों में ही विभाजित किया हैं । इसके प्रथम खण्ड में अभिधान राजेन्द्र कोष के प्रथम भाग से सूक्तियों का आलेखन किया है । यही क्रम आगे के खण्डों में भी अपनाया गया हैं । 'सूक्ति-सुधारस' के प्रत्येक खण्ड का आधार अभिधान राजेन्द्र कोष का प्रत्येक भाग ही रहा हैं । अभिधान राजेन्द्र कोष के प्रत्येक भाग को आधार बनाकर सूक्तियों का संकलन करने के कारण सूक्तियों को न तो अकारादिक्रम से प्रस्तुत किया गया है और न उन्हें विषय के आधार पर ही वर्गीकृत किया गया हैं, किन्तु पाठकों की सुविधा के लिए परिशिष्ट में अकारादिक्रम से एवं विषयानुक्रम से शब्द - सूचियाँ दे दी गई हैं, इससे जो पाठक अकारादि क्रम से अथवा विषयानुक्रम से इन्हें जानना चाहे उन्हें भी सुविधा हो सकेगी। इन परिशिष्टों के माध्यम से प्रस्तुत कृति अकारादिक्रम अथवा विषयानुक्रम की कमी की पूर्ति कर देती है । प्रस्तुतकृति में प्रत्येक अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 28 A Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ति के अन्त में अभिधान राजेन्द्र कोष के सन्दर्भ के साथ-साथ उस मूल ग्रन्थ का भी सन्दर्भ दे दिया गया है, जिससे ये सूक्तियाँ अभिधान राजेन्द्र कोष में अवतरित की गई। मूलग्रन्थों के सन्दर्भ होने से यह कृति शोध-छात्रों के लिए भी उपयोगी बन गई हैं। वस्तुतः सूक्तियाँ अतिसंक्षेप में हमारे आध्यात्मिक एवं सामाजिक जीवन मूल्योंको उजागर कर व्यक्ति को सम्यक्जीवन जीने की प्रेरणा देती हैं । अतः ये सूक्तियाँ जन साधारण और विद्वत् वर्ग सभी के लिए उपयोगी हैं । आबालवृद्ध उनसे लाभ उठा सकते हैं । साध्वीद्वय ने परिश्रमपूर्वक जो इन सूक्तियों का संकलन किया है वह अभिधान राजेन्द्र कोष रूपी महासागर से रत्नों के चयन के जैसा हैं । प्रस्तुत कृति में प्रत्येक सूक्ति के अन्त में उसका हिन्दी भाषा में अर्थ भी दे दिया गया है, जिसके कारण प्राकृत और संस्कृत से अनभिज्ञ सामान्य व्यक्ति भी इस कृति का लाभ उठा सकता हैं । इन सूक्तियों के आलेखन में लेखिका-द्वय ने न केवल जैनग्रन्थों में उपलब्ध सूक्तियों का संकलन/संयोजन किया है, अपितु वेद, उपनिषद, गीता, महाभारत, पंचतन्त्र, हितोपदेश आदि की भी अभिधान राजेन्द्र कोष में गृहीत सूक्तियों का संकलन कर अपनी उदारहृदयता का परिचय दिया है। निश्चय ही इस महनीय श्रम के लिए साध्वी-द्वय-पूज्या डॉ. प्रियदर्शनाश्रीजी एवं डॉ. सुदर्शनाश्रीजी साधुवाद की पात्रा हैं । अन्त में मैं यही आशा करता हूँ कि जन सामान्य इस 'सूक्तिसुधारस' में अवगाहन कर इसमें उपलब्ध सुधारस का आस्वादन करता हुआ अपने जीवन को सफल करेगा और इसी रूप में साध्वी द्वय का यह श्रम भी सफल होगा। दिनांक 31-6-1998 पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध-संस्थान वाराणसी (उ.प्र.) अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6.29 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13 विद्याव्रती शास्त्र सिद्धान्त रहस्य विद् ? पं. गोविंन्दराम व्यास ― I उक्तियाँ और सूक्त - सूक्तियाँ वाङ् मय वारिधि की विवेक वीचियाँ हैं । विद्या संस्कार विमर्शिता विगत की विवेचनाएँ हैं । विवर्द्धित-वाड्मय की वैभवी विचारणाएँ हैं । सार्वभौम सत्य की स्तुतियाँ हैं । प्रत्येक पल की परमार्शदायिनी - पारदर्शिनी प्रज्ञा पारमिताएँ हैं । समाज, संस्कृति और साहित्य की सरसता की छवियाँ हैं । कान्तदर्शी कोविदों की पारदर्शिनी परिभाषाएँ हैं। मनीषियों की मनीषा की महत्त्व प्रतिपादिनी पीपासाएँ हैं । क्रूर-काल के कौतुकों में भी आयुष्मती होकर अनागत का अवबोध देती रही हैं । ऐसी सूक्तियों को सश्रद्ध नमन करता हुआ वाग्देवता का विद्या - प्रिय विप्र होकर वाङ् मयी पूजा में प्रयोगवान् बन रहा हूँ । श्रमण-संस्कृति की स्वाध्याय में स्वात्म-निष्ठा निराली रही है। आचार्य हरिभद्र, अभय, मलय जैसे मूर्धन्य महामतिमान्, सिद्धसेन जैसे शिरोमणि, सक्षम, श्रद्धालु जिनभद्र जैसे क्षमाश्रमणों का जीवन वाङ्मयी वरिवस्या का विशेष अंग रहा है 1 . स्वाध्याय का शोभनीय आचार अद्यावधि - हमारे यहाँ अक्षुण्ण पाया जाता है । इसीलिए स्वाध्याय एवं प्रवचन में अप्रमत्त रहने का समादश शास्त्रकारों स्वीकार किया है । वस्तुतः नैतिक मूल्यों के जागरण के लिए, आध्यात्मिक चेतना के ऊर्ध्वकरण के लिए एवं शाश्वत मूल्यों के प्रतिष्ठापन के लिए आर्याप्रवरा द्वय द्वारा रचित प्रस्तुत ग्रन्थ 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, जैनदर्शन वाटिका' एक उपादेय महत्त्वपूर्ण गौरवमयी रचना है । आत्म-अभ्युदयशीला, स्वाध्याय-परायणा, सतत अनुशीलन उज्ज्वला आर्या डॉ. श्री प्रियदर्शनाजी एवं डॉ. श्री सुदर्शनाजी की शास्त्रीय - साधना सराहनीया है । इन्होंने अपने आम्नाय के आद्य-पुरुष की प्रतिभा का परिचय प्राप्त करने का प्रयास कर अपनी चारित्र - सम्पदा को वाङ्मयी साधना में समर्पिता करती अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 30 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुई 'विश्वपूज्य' (श्रीमद् राजेन्द्रसूरि : जीवन-सौरभ') का रहस्योद्घाटन किया विदुषी श्रमणी द्वय ने प्रस्तुत कृति 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्तिसुधारस' (1 से 7 खण्ड) को कोषों के कारागारों से मुक्तकर जीवन की वाणी में विशद करने का विश्वास उपजाया है । अत: आर्या युगल, इसप्रकार की वाङ्मयी-भारती भक्ति में भूषिता रहें एवं आत्मतोष में तोषिता होकर सारस्वत इतिहास की असामान्या विदुषी बनकर वाङ्मय के प्रांगण की प्रोन्नता भूमिका निभाती रहें । यही मेरा आत्मीय अमोघ आशीर्वाद है। इनका विद्या-विवेकयोग, श्रुतों की समाराधना में अच्युत रहे, अपनी निरहंकारिता को अतीव निर्मला बनाता रहे और उत्तरोत्तर समुत्साह-समुन्नत होकर स्वान्तः सुख को समुल्लसित रचता रहे। यही सदाशया शोभना शुभाकांक्षा चैत्रसुदी 5 बुध 1 अप्रैल, 98 हरजी जिला - जालोर (राज.) अभियान केद्र कोष में, सूक्क सुधारस खण्ड ०. अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 . 31 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 मन्तव्य पं. जयनंदन झा, व्याकरण साहित्याचार्य, साहित्य रत्न एवं शिक्षाशास्त्री dadica मनुष्य विधाता की सर्वोत्तम सृष्टि है । वह अपने उदात्त मानवीय गुणों के कारण सारे जीवों में उत्तरोत्तर चिन्तनशील होता हुआ विकास की प्रक्रिया में अनवरत प्रवर्धमान रहा है। उसने पुरुषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति ही जीवन का परम ध्येय माना है, पर ज्ञानीजन ने इस संसार को ही परम ध्येय न मानकर अध्यात्म ज्ञान को ही सर्वोपरि स्थान दिया है । अतः जीवन के चरम लक्ष्य मोक्ष - प्राप्ति में धर्म, अर्थ और काम को केवल साधन मात्र माना है । इसलिये अध्यात्म चिन्तन में भारत विश्वमंच पर अति श्रद्धा के साथ प्रशंसित रहा है । इसकी धर्म सहिष्णुता अनोखी एवं मानवमात्र के लिये अनुकरणीय रही है । यहाँ वैष्णव, जैन तथा बौद्ध धर्माचार्यों ने मिलकर धर्म की तीन पवित्र नदियों का संगम "त्रिवेणी" पवित्र तीर्थ स्थापित किया है जहाँ सारे धर्माचार्य अपने-अपने चिन्तन से सामान्य मानव को भी मिल-बैठकर धर्मचर्चा के लिये विवश कर देते हैं । इस क्षेत्र में किस धर्म का कितना योगदान रहा है, यह निर्णय करना अल्प बुद्धि साध्य नहीं है 1 पर, इतना निर्विवाद है कि जैन मनीषी और सन्त अपनी-अपनी विशिष्ट विशेषताओं के लिये आत्मोत्कर्ष के क्षेत्र में तपे हुए मणि के समान सहस्रसूर्य- किरण के कीर्तिस्तम्भ से भारतीय दर्शन को प्रोद्भासित कर रहे हैं, जो काल की सीमा से रहित है। जैनधर्म व दर्शन शाश्वत एवं चिरन्तन है, जो विविध आयामों से इसके अनेकान्तवाद को परिभाषित एवं पुष्ट कर रहे हैं । ज्ञान और तप तो इसकी अक्षय निधि है । से जैन धर्म में भी मन्दिर मार्गी - त्रिस्तुतिक परम्परा के सर्वोत्कृष्ट साध जैनधर्माचार्य "श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. अपनी तप:साधना और ज्ञानमीमांसा परमपूत होने के कारण सार्वकालिक सार्वजनीन वन्द्य एवं प्रातः स्मरणीय भी हैं जिनका सम्पूर्ण जीवन सर्वजन हिताय एवं सर्वजन सुखाय समर्पित है । इनका सम्पूर्ण - जीवन अथाह समुद्र की भाँति है, जहाँ निरन्तर गोता लगाने रहा अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 32 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर केवल रत्न की ही प्राप्ति होती है, पर यह अमूल्य रत्न केवल साधक को ही मिल पाता है। साधक की साधना जब उच्च कोटि की हो जाती है तब साध्य संभव हो पाता है । राजेन्द्र कोष तो इनकी अक्षय शब्द मंजूषा है, जो शब्द यहाँ नहीं है, वह अन्यत्र कहीं नहीं है । ऐसे महान् मनीषी एवं सन्त को अक्षरशः समझाने के लिये डॉ. प्रियदर्शनाश्री जी एवं डॉ. सुदर्शनाश्री जी साध्वीद्वय ने (१) अभिधान राजेन्द्र कोष में, "सूक्ति-सुधारस" (१ से ७ खण्ड) (२) अभिधान राजेन्द्र कोष में, "जैनदर्शन वाटिका" तथा (३) 'विश्वपूज्य' (श्रीमद् राजेन्द्र सूरि : जीवन-सौरभ) इन अमूल्य ग्रन्थों की रचना कर साधक की साधना को अतीव सरल बना दिया है । परम पूज्या ! साध्वीद्वय ने इन ग्रन्थों की रचना में जो अपनी बुद्धिमत्ता एवं लेखन-चातुर्य का परिचय दिया है वह स्तुत्य ही नहीं, अपितु इस भौतिकवादी युग में जन-जन के लिये अध्यात्मक्षेत्र में पाथेय भी बनेगा। मैंने इन ग्रन्थों का विहंगम अवलोकन किया है। भाषा की प्रांजलता और विषयबोध की सुगमता तो पाठक को उत्तरोत्तर अध्ययन करने में रूचि पैदा करेगी, वह सहज ही सबके लिये हृदयग्राहिणी बनेगी। यही लेखिकाद्वय की लेखनी की सार्थकता बनेगी। अन्त में यहाँ यह कथन अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि "रघुवंश" महाकाव्य-रचना के प्रारंभ में कालिदास ने लिखा है कि "तितीर्घर्दुस्तरं मोहादुडुपेनास्मि सागरम्" पर वही कालिदास कवि सम्राट् कहलाये । इसीतरह आप दोनों का यह परम लोकोपकारी अथक प्रयास भौतिकवादी मानवमात्र के लिये शाश्वत शान्ति प्रदान करने में सहायक बन पायेगा । इति । शुभम् । 25-7-98 उघ - 12 मधुबन हा. बो. बासनी, जोधपुर अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 . 33 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 6600 विदुषी साध्वीद्वय डॉ. प्रियदर्शना श्री एम. ए., पीएच. डी. एवं डॉ. सुदर्शना श्री एम. ए. पीएच. डी. द्वारा रचित ग्रन्थ 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस' (1 से 7 खण्ड) सुभाषित सूक्तियों एवं वैदुष्यपूर्ण हृदयग्राही वाक्यों के रूप में एक पीयूष सागर के समान है I पं. हीरालाल शास्त्री एम.ए. आज के गिरते नैतिक मूल्यों, भौतिकवादी दृष्टिकोण की अशान्ति एवं तनावभरे सांसारिक प्राणी के लिए तो यह एक रसायन है, जिसे पढ़कर आत्मिक शान्ति, दृढ इच्छा-शक्ति एवं नैतिक मूल्यों की चारित्रिक सुरभि अपने जीवन के उपवन में व्यक्ति एवं समष्टि की उदात्त भावनाएँ गहगहायमान हो सकेगी, यह अतिशयोक्ति नहीं, एक वास्तविकता है । आपका प्रयास स्वान्तः सुखाय लोकहिताय है । 'सूक्ति-सुधारस' जीवन में संघर्षों के प्रति साहस से अडिग रहने की प्रेरणा देता है । महावीर जन्म कल्याणक, गुरुवार दि. 9 अप्रैल, 1998 ज्योतिष- सेवा राजेन्द्रनगर जालोर (राज.) ऐसे सत्साहित्य 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' की महक से व्यक्ति को जीवंत बनाकर आध्यात्मिक शिवमार्ग का पथिक बनाते हैं । आपका प्रयास भगीरथ प्रयास है। भविष्य में शुभ कामनाओं के साथ | निवृत्तमान संस्कृत व्याख्याता राज. शिक्षा-सेवा राजस्थान अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 34 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 888888888888888888888 - डॉ. अखिलेशकुमार राय साध्वीद्वय डो. प्रियदर्शनाश्रीजी एवं डो. सुदर्शनाश्रीजी द्वारा रचित प्रस्तुत पुस्तक का मैंने आद्योपान्त अवलोकन किया है। इनकी रचना 'सूक्ति-सुधारस' (1 से 7 खण्ड) में श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर जी की अमरकृति 'अभिधान राजेन्द्र कोष' के प्रत्येक भाग को आधार बनाकर कुछ प्रमुख सूक्तियों का सुंदर-सरस व सरल हिन्दी भाषा में अनुवाद प्रस्तुत किया गया है। साध्वीद्वय का यह संकल्प है कि 'अभिधान राजेन्द्र कोष' में उपलब्ध लगभग २७०० सूक्तियों का सात खण्डों में संचयन कर सर्वसाधारण के लिये सुलभ कराया जाय । इसप्रकार का अनूठा संकल्प अपने आपमें अद्वितीय कहा जा सकता है । मेरा विश्वास है कि ऐसी सूक्ति सम्पन्न रचनाओं से पाठकगण के चरित्र निर्माण की दिशा निर्धारित होगी। - अब सुहृद्जनों का यह पुनीत कर्तव्य है कि वे इसे अधिक से अधिक लोगों के पठनार्थ सुलभ करायें । मैं इस महत्त्वपूर्ण रचना के लिये साध्वीद्वय की सराहना करता हूँ; इन्हें साधुवाद देता हूँ और यह शुभकामना प्रकट करता हूँ कि ये इसप्रकार की और भी अनेक रचनायें समाज को उपलब्ध करायें। दिनांक 9 अप्रैल, 1998 चैत्र शुक्ला त्रयोदशी 1/1 प्रोफेसर कालोनी, महाराजा कोलेज, छतरपुर (म.प्र.) अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 35 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28ASHBAREEBOOK - डॉ. अमृतलाल गाँधी सेवानिवृत्त प्राध्यापक, सम्यग्ज्ञान की आराधना में समर्पिता विदुषी साध्वीद्वय डॉ. प्रियदर्शनाश्रीजी म. एवं डॉ. सुदर्शना श्रीजी म. ने 'सूक्ति-सुधारस' (1 से 7 खण्ड) की 2667 सूक्तियों में अभिधान राजेन्द्र कोष के मन्थन का मक्खन सरल हिन्दी भाषा में प्रस्तुत कर जनसाधारण की सेवार्थ यह ग्रन्थ लिखकर जैन साहित्य के विपुल ज्ञान भण्डार में सराहनीय अभिवृद्धि की है। साध्वीद्वय ने कोष के सात भागों की सूक्तियों / सुकथनों की अलग-अलग सात खण्डों में व्याख्या करने का सफल सुप्रयास किया है, जिसकी मैं सराहना एवं अनुमोदना करते हुए स्वयं को भी इस पवित्र ज्ञानगंगा की पवित्र धारा में आंशिक सहभागी बनाकर सौभाग्यशाली मानता हूँ। __ वस्तुत: अभिधान राजेन्द्र कोष पयोनिधि है। पूज्या विदुषी साध्वीद्वयने सूक्ति-सुधारस रचकर एक ओर कोष की विश्वविख्यात महिमा को उजागर किया है और दूसरी ओर अपने शुभ श्रम, मौलिक अनुसंधान दृष्टि, अभिनव कल्पना और हंस की तरह मुक्ताचयन की विवेकशीलता का परिचय दिया है। मैं उनको इस महान् कृति के लिए हार्दिक बधाई देता हूँ। जयनारायण व्यास विश्व विद्यालय, दिनांक : 16 अप्रैल, 1998 738, नेहरूपार्क रोड, जोधपुर (राजस्थान) जोधपुर अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 36 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 - भागचन्द जैन कवाड़ प्राध्यापक (अंग्रेजी) प्रस्तुत ग्रंथ "अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस" (1 से 7 खण्ड) 5 परिशिष्टों में विभक्त 2667 सूक्तियों से युक्त एक बहुमूल्य एवं अमृत कणों से परिपूर्ण ग्रन्थ है । विश्वपूज्य श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी द्वारा प्रस्तुत ग्रन्थ में अन्यान्य उपयोगी जीवन दर्शन से सम्बन्धित विषयों का समावेश किया गया है। उदाहरण स्वरूप जीवनोपयोगी, नैतिकता तथा आध्यात्मिक जगत् को स्पर्श करने वाले विषय यथा – 'धर्म में शीघ्रता', 'आत्मवत् चाहो', 'समाधि', 'किञ्चिद् श्रेयस्कर', 'अकथा', 'क्रोध परिणाम', 'अपशब्द', सच्चा भिक्षु, धीर साधक, पुण्य कर्म, अजीर्ण, बुद्धियुक्त वाणी, बलप्रद जल, सच्चा आराधक, ज्ञान और कर्म, पूर्ण आत्मस्थ, दुर्लभ मानव-भव, मित्र-शत्रु कौन ?, कर्ताभोक्ता आत्मा, रत्नपारखी, अनुशासन, कर्म विपाक, कल्याण कामना, तेजस्वी वचन, सत्योपदेश, धर्मपात्रता, स्याद्वाद आदि । सर्वत्र ग्रन्थ में अमृत-कणों का कलश छलक रहा है तथा उनकी सुवास व्याप्त है जो पाठक को भाव विभोर कर देती है, वह कुछ क्षणों के लिए अतिशय आत्मिक सुख में लीन हो जाता है। विदुषी महासतियाँ द्वय डॉ. प्रियदर्शना श्री जी एवं डॉ. सुदर्शना श्री जी ने अपनी प्रखर लेखनी के द्वारा गूढ़तम विषयों को सरलतम रूप से प्रस्तुत कर पाठकों को सहज भाव से सुधा का पान कराया है । धन्य है उनकी अथक साधना लगन व परिश्रम का सुफल जो इस धरती पर सर्वत्र आलोक किरणें बिखेरेगा और धन्य एवं पुलकित हो उठेंगे हम सब । चैत्र शुक्ला त्रयोदशी अग्रवाल गर्ल्स कोलेज दिनांक 9 अप्रैल 1998 मदनगंज (राज.) विजय निवास, कचहरी रोड़, किशनगढ़ शहर (राज.) अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 37 5-6.37 Page #46 --------------------------------------------------------------------------  Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्पण Page #48 --------------------------------------------------------------------------  Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस' ग्रन्थ का प्रकाशन 7 खण्डों में हुआ है। प्रथम खण्ड में 'अ' से 'ह' तक के शीर्षकों के अन्तर्गत सूक्तियाँ संजोयी गई हैं । अन्त में अकारादि अनुक्रमणिका दी गई हैं। प्रायः यही क्रम 'सूक्ति सुधारस' के सातों खण्डों में मिलेगा । शीर्षकों का अकारादि क्रम है। शीर्षक सूची विषयानुक्रम आदि हर खण्ड के अन्त में परिशिष्ट में दी गई है। पाठक के लिए परिशिष्ट में उपयोगी सामग्री संजोयी गई है। प्रत्येक खण्ड में 5 परिशिष्ट हैं । प्रथम परिशिष्ट में अकारादि अनुक्रमणिका, द्वितीय परिशिष्ट में विषयानुक्रमणिका, तृतीय परिशिष्ट में अभिधान राजेन्द्र : पृष्ठ संख्या, अनुक्रमणिका, चतुर्थ परिशिष्ट में जैन एवं जैनेतर ग्रन्थः गाथा/श्लोकादि अनुक्रमणिका और पञ्चम परिशिष्ट में 'सूक्ति-सुधारस' में प्रयुक्त सन्दर्भ-ग्रन्थ सूची दी गई है । हर खण्ड में यही क्रम मिलेगा । 'सूक्ति-सुधारस' के प्रत्येक खण्ड में सूक्ति का क्रम इसप्रकार रखा गया है कि सर्व प्रथम सूक्ति का शीर्षक एवं मूल सूक्ति दी गई है। फिर वह सक्ति अभिधान राजेन्द्र कोष के किस भाग के किस पृष्ठ से उद्धृत है । सूक्ति-आधार ग्रन्थ कौन-सा है ? उसका नाम और वह कहाँ आयी है, वह दिया है। अन्त में सूक्ति का हिन्दी भाषा में सरलार्थ दिया गया सूक्ति-सुधारस के प्रथम खण्ड में 251 सूक्तियाँ हैं । सूक्ति-सुधारस के द्वितीय खण्ड में 259 सूक्तियाँ हैं । सूक्ति-सुधारस के तृतीय खण्ड में 289 सूक्तियाँ हैं । सूक्ति-सुधारस के चतुर्थ खण्ड में 467 सूक्तियाँ हैं । सूक्ति-सुधारस के पंचम खण्ड में 471 सूक्तियाँ हैं । सूक्ति-सुधारस के षष्टम खण्ड में 607 सूक्तियाँ हैं । सूक्ति-सुधारस के सप्तम खण्ड में 323 सूक्तियाँ हैं । कुल मिलाकर 'सूक्ति सुधारस' के सप्त खण्डों में 2667 सूक्तियाँ हैं। इस ग्रन्थ में न केवल जैनागमों व जैन ग्रन्थों की सूक्तियाँ हैं, अपितु वेद, अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6.41 - Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपनिषद, गीता, महाभारत, आयुर्वेद शास्त्र, ज्योतिष, नीतिशास्त्र, पुराण, स्मृति, पंचतन्त्र, हितोपदेश आदि ग्रन्थों की भी सूक्तियाँ हैं । 1. विश्वपूज्य प्रणीत सम्पूर्ण वाङ्मय 2. लेखिका द्वय की महत्त्वपूर्ण कृतियाँ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6• 42 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'विश्वपज्यः जीवन-दर्शन Page #52 --------------------------------------------------------------------------  Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन-दर्शन महिमामण्डित बहुरत्नावसुन्धरा से समलंकृत परम पावन भारतभूमि की वीर प्रसविनी राजस्थान की ब्रजधरा भरतपुर में सन् 1827 - 3 दिसम्बर को पौष शुक्ला सप्तमी, गुरुवार के शुभ दिन एक दिव्य नक्षत्र संतशिरोमणि विश्वपूज्य आचार्य श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी ने जन्म लिया, जिन्होंने अस्सी वर्ष की आयु तक लोकमाङ्गल्य की गंगधारा समस्त जगत् में प्रवाहित की। उनका जीवन भारतीय संस्कृति को पुनर्जीवित करने के लिए समर्पित हुआ। वह युग अंग्रेजी राज्य की धूमिल घन घटाओं से आच्छादित था। पाश्चात्त्य संस्कृति की चकाचौंध ने भारत की सरल आत्मा को कुण्ठित कर दिया था। नव पीढ़ी ईसाई मिशनरियों के धर्मप्रचार से प्रभावित हो गई थी। अंग्रेजी शासन में पद-लिप्सा के कारण शिक्षित युवापीढ़ी अतिशय आकर्षित थी। ऐसे अन्धकारमय युग में भारतीय संस्कृति की गरिमा को अक्षुण्ण रखने के लिए जहाँ एक ओर राजा राममोहनराय ने ब्रह्मसमाज की स्थापना की, तो दूसरी ओर दयानन्द सरस्वती ने वैदिक धर्म का शंखनाद किया। उसी युग में पुनर्जागरण के लिए प्रार्थना समाज और एनी बेसेन्ट ने थियोसोफिकल सोसायटी की स्थापना की। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को अंग्रेजी शासन की तोपों ने कुचल दिया था। भारतीय जनता को निराशा और उदासीनता ने घेर लिया था। ____ जागृति का शंखनाद फूंकने के लिए लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने यह उद्घोषणा की - 'स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।' महामना मदनमोहन मालवीय ने बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय की स्थापना की। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 45 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री मोहनदास कर्मचन्द गान्धी (राष्ट्रपिता - महात्मा गाँधी) को महान् संत श्रीमद् राजचन्द्र की स्वीकृति से उनके पिताश्री कर्मचन्दजी ने इंग्लैंड में बार-एट-लॉ उपाधि हेतु भेजा । गाँधीजी ने महान् संत श्रीमद् राजचन्द्र की तीन प्रतिज्ञाएँ पालन कर भारत की गौरवशालिनी संस्कृति को उजागर किया। ये तीन प्रतिज्ञाएँ थीं - 1. मांसाहार त्याग 2. मदिरापान त्याग और 3. ब्रह्मचर्य का पालन । ये प्रतिज्ञाएँ भारतीय संस्कृति की रवि-रश्मियाँ हैं, जिनके प्रकाश से भारत जगद्गुरु के पद पर प्रतिष्ठित हैं, परन्तु आंग्ल शासन ने हमारी उज्ज्वल संस्कृति को नष्ट करने का भरसक प्रयास किया । __ऐसे समय में अनेक दिव्य एवं तेजस्वी महापुरुषों ने जन्म लिया . जिनमें श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, श्री आत्मारामजी (सुप्रसिद्ध जैनाचार्य श्रीमद् विजयानन्द सूरिजी) एवं विश्वपूज्य श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी म. आदि हैं। श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी ने चरित्र निर्माण और संस्कृति की पुनर्स्थापना के लिए जो कार्य किया, वह क्षणाक्षरों में अङ्कित है । एक ओर उन्होंने भारतीय साहित्य के गौरवशाली, चिन्तामणि रत्न के समान 'अभिधान राजेन्द्र कोष' को सात खण्डों में रचकर भारतीय वाङ्मय को विश्व में गौरवान्वित किया, तो दूसरी और उन्होंने सरल, तपोनिष्ठ, त्याग, करुणाई और कोमल जीवन से सबको मैत्री-सूत्र में गुम्फित किया । विश्वपूज्य की उपाधि उनको जनता जनार्दन ने, उनके प्रति अगाध श्रद्धा-प्रीति और भक्ति से प्रदान की है, यद्यपि ये निर्मोही अनासक्त योगी थे। न तो किसी उपाधि-पदवी के आकाङ्क्षी थे और न अपनी यशोपताका फहराने के लिए लालायित थे । । ___ उनका जीवन अनन्त ज्योतिर्मय एवं करुणा रस का सुधा-सिन्धु . था ! . ___ उन्होंने अपने जीवनकाल में महनीय 61 ग्रन्थों की रचना की है जिनमें काव्य, भक्ति और संस्कृति की रसवंती धाराएँ प्रवाहित हैं। ( अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-60 46 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुत: उनका मूल्यांकन करना हमारे वश की बात नहीं, फिरभी हम प्रीतिवश यह लिखती हैं कि जिस समय भारत के मनीषीसाहित्यकार एवं कवि भारतीय संस्कृति और साहित्य को पुनर्जीवित करना चाहते थे, उस समय विश्वपूज्य भी भारत के गौरव को उद्भासित करने के लिए 63 वर्ष की आयु में सन् 1890 आश्विन शुक्ला 2 को कोष के प्रणयन में जुट गए। इस कोष के सप्त खण्डों को उन्होंने सन् 1903 चैत्र शुक्ला 13 को परिसम्पन्न किया। यह शुभ दिन भगवान् महावीर का जन्म कल्याणक दिवस है। शुभारम्भ नवरात्रि में किया और समापन प्रभु के जन्म-कल्याणक के दिन वसन्त ऋतु की मनमोहक सुगन्ध बिखेरते हुए किया । यह उल्लेख करना समीचीन है कि उस युग में मैकाले ने अंग्रेजी भाषा और साहित्य को भारतीय विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में अनिवार्य कर दिया था और नई पीढ़ी अंग्रेजी भाषा तथा साहित्य को पढ़कर भारतीय साहित्य व संस्कृति को हेय समझने लगी थी, ऐसे पराभव युग में बालगंगाधर तिलक ने 'गीता रहस्य', जैनाचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरजी ने 'कर्मयोग', श्रीमद् आत्मारामजी ने 'जैन तत्त्वादर्श' व 'अज्ञान तिमिर भास्कर',1 महान् मनीषी अरविन्द घोष ने 'सावित्री' महाकाव्य लिखकर पश्चिम-जगत् को अभिभूत कर दिया । उस युग में प्रज्ञा महर्षि जैनाचार्य विश्वपूज्य श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी गुरुदेव ने 'अभिधान राजेन्द्र कोष' की रचना की। उनके द्वारा निर्मित यह अनमोल ग्रन्थराज एक अमरकृति है। यह एक ऐसा विशाल कार्य था, जो एक व्यक्ति की सीमा से परे की बात थी, किन्तु यह दायित्व विश्वपूज्य ने अपने कंधों पर ओढ़ा । ____ भारतीय संस्कृति और साहित्य के पुनर्जागरण के युग में विश्वपूज्य ने महान् कोष को रचकर जगत् को ऐसा अमर ग्रन्थ दिया जो चिर नवीन है। यह 'एन साइक्लोपिडिया' समस्त भाषाओं की करुणा 1 अज्ञान तिमिर भास्कर को पढ़कर अंग्रेज विद्वान् हार्नेल इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने श्रीमद् आत्मारामजी को 'अज्ञान तिमिर भास्कर के अलंकरण से विभूषित किया तथा उन्होंने अपने ग्रन्थ 'उपासक दशांग' के भाष्य को उन्हें समर्पित किया । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-60 47 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माता संस्कृत, जनमानस में गंग-धारा के समान बहनेवाली जनभाषा अर्धमागधी और जनता-जनार्दन को प्रिय लगनेवाली प्राकृत भाषा - इन तीनों भाषाओं के शब्दों की सुस्पष्ट, सरल और सहज व्याख्या उद्भासित करता है। ___इस महाकोष का वैशिष्ट्य यह है कि इसमें गीता, मनुस्मृति, ऋग्वेद, पद्मपुराण, महाभारत, उपनिषद, पातंजल योगदर्शन, चाणक्य नीति, पंचतंत्र, हितोपदेश आदि ग्रन्थों की सुबोध टीकाएँ और भाष्य उपलब्ध हैं। साथ ही आयुर्वेद के सुप्रसिद्ध ग्रन्थ 'चरक संहिता' पर भी व्याख्याएँ हैं। 'अभिधान राजेन्द्र कोष' की प्रशंसा भारतीय एवं पाश्चात्त्य विद्वान् करते नहीं थकते । इस ग्रन्थ रत्नमाला के सात खण्ड सात अनुपम दिव्य रत्न हैं, जो अपनी प्रभा से साहित्य-जगत् को प्रदीप्त. कर रहे हैं। इस भारतीय राजर्षि की साहित्य एवं तप-साधना पुरातन ऋषि के समान थी। वे गफाओं एवं कन्दराओं में रहकर ध्यानालीन रहते थे। उन्होंने स्वर्णगिरि, चामुण्डावन, मांगीतुंगी आदि गुफाओं के निर्जन स्थानों में तप एवं ध्यान-साधना की । ये स्थान वन्य पशुओं से । भयावह थे, परन्तु इस ब्रह्मर्षि के जीवन से जो प्रेम और मैत्री की दुग्धधारा प्रवाहित होती थी, उससे हिंस्र पशु-पक्षी भी उनके पास शांत बैठते थे और भयमुक्त हो चले जाते थे । ऐसे महापुरुष के चरण कमलों में राजा-महाराजा, श्रीमन्त, राजपदाधिकारी नतमस्तक होते थे। वे अत्यन्त मधुर वाणी में उन्हें उपदेश देकर गर्व के शिखर से विनय-विनम्रता की भूमि पर उतार लेते थे और वे दीन-दुखियों, दरिद्रों, असहायों, अनाथों एवं निर्बलों के लिए साक्षात् भगवान् थे। उन्होंने सामाजिक कुरीतियों-कुपरम्पराओं, बुराइयों को समाप्त करने के लिए तथा धार्मिक रूढ़ियों, अन्धविश्वासों, मिथ्याधारणाओं और कुसंस्कारों को मिटाने के लिए ग्राम-ग्राम, नगर-नगर पैदल विहार कर विभिन्न प्रवचनों के माध्यम से उपदेशामृत की अजस्रधारा प्रवाहित अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6.48 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की। तृष्णातुर मनुष्यों को संतोषामृत पिलाया । कुसंपों के फुफकारते फणिधरों को शांत कर समाज को सुसंप का सुधा-पान कराया। विश्वपूज्य ने नारी-गरिमा के उत्थान के लिए भी कन्यापाठशालाएँ, दहेज उन्मूलन, वृद्ध-विवाह निषेध आदि का आजीवन प्रचार-प्रसार किया। 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:' के अनुरूप सन्देश दिया अपने प्रवचनों एवं साहित्य के माध्यम से। गुरुदेव ने पर्यावरण-रक्षण के लिए वृक्षों के संरक्षण पर जोर दिया। उन्होंने पशु-पक्षी के जीवन को अमूल्य मानते हुए उनके प्रति प्रेमभाव रखने के लिए उपदेश दिए । पर्वतों की हरियाली, वनउपवनों की शोभा, शान्ति एवं अन्तर-सुख देनेवाली है। उनका रक्षण हमारे जीवन के लिए अत्यावश्यक है । इसप्रकार उन्होंने समस्त जीवराशि के संरक्षण के लिए उपदेश दिया । ___काव्य विभूषा : उनकी काव्य कला अनुपम है । उन्होंने शास्त्रीय राग-रागिनियों में अनेक सज्झाय व स्तवन गीत रचे हैं । उन्होंने शास्त्रीय रागों में ठुमरी, कल्याण, भैरवी, आशावरी आदि का अपने गीतों में सुरम्य प्रयोग किया है। लोकप्रिय रागिनियों में वनझारा, गरबा, ख्याल आदि प्रियंकर हैं । प्राचीन पूजा गीतों की लावनियों में 'सलूणा', 'रेखता', 'तीरथनी आशातना नवि करिए रे' आदि रागों का प्रयोग मनमोहक हैं। उन्होंने उर्दू की गजल का भी अपने गीतों में प्रयोग किया है। चैत्यवंदन - स्तुतियों में - दोहा, शिखरणी, स्रग्धरा, मालिनी, पंद्धडी प्रमुख हैं। पद्धडी छन्द में रचित श्री महावीर जिन चैत्यवंदन की एक वानगी प्रस्तुत है - "संसार सागर तार धीर, तुम विण कोण मुझ हरत पीर । मुझ चित्त चंचल तुं निवार, हर रोग सोग भयभीत वार ॥ 1 एक निश्छल भक्त का दैन्य निवेदन मौन-मधुर है । साथ ही अपने परम तारक परमात्मा पर अखण्ड विश्वास और श्रद्धा-भक्ति को प्रकट करता है। 1. जिन - भक्ति - मंजूषा भाग - 1 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 49 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौपड़ कीड़ा- सज्झाय में अलौकिक निरंजन शुद्धात्म चेतन रूप प्रियतम के साथ विश्वपूज्य की शुद्धात्मा रूपी प्रिया किस प्रकार चौपड़ खेलती है ? वे कहते हैं - 'रंग रसीला मारा, प्रेम पनोता मारा, सुखरा सनेही मारा साहिबा । पिउ मोरा चोपड़ इणविध खेल हो ॥ चार चोपड़ चारों गति, पिउ मोरा चोरासी जीवा जोन हो । . कोठा चोरासिये फिरे, पिउ मोरा सारी पासा वसेण हो. ॥" 1 यह चौपड़ का सुन्दर रूपक है और उसके द्वारा चतुर्गति रूप संसार में चौपड़ का खेल खेला जा रहा है। साधक की शुद्धात्म-प्रिया चेतन रूप प्रियतम को चौपड़ के खेल का रहस्योद्घाटन करते हुए कहती है कि चौपड़ चार पट्टी और 84 खाने की होती है। इसीतरह चतुर्गति रूप चौपड़ में भी 84 लक्षयोनि रूप 84 घर-उत्पत्ति-स्थान होते हैं। चतुर्गति चौपड़ के खेल को जीतकर आत्मा जब विजयी बन जाती है, तब वह मोक्ष रूपी घर में प्रवेश करती है। अध्यात्मयोगी संत आनंदघन ने भी ऐसी ही चौपड़ खेली है - "प्राणी मेरो, खेलै चतुरगति चोपर । नरद गंजफा कौन गिनत है, मानै न लेखे बुद्धिवर ॥ . राग दोस मोह के पासे, आप वणाए हिनधर । जैसा दाव परै पासे का, सारि चलावै खिलकर ॥" 2 विश्वपूज्य का काव्य अप्रयास हृदय-वीणा पर अनुगुंजित है । 'पिउ' [प्रियतम] शब्द कविता की अंगूठी में हीरककणी के समान मानो जड़ दिया। ___विश्वपूज्य की आत्मरमणता उनके पदों में दृष्टिगत होती है। वे प्रकाण्ड विद्वान् – मनीषी होते हुए भी अध्यात्म योगीराज आनन्दघन की तरह अपनी मस्त फकीरी में रमते थे। उनका यह पद मनमोहक है'अवधू आतम ज्ञान में रहना, किसी कु कुछ नहीं कहना ॥' 3. 1. जिन भक्ति मंजूषा भाग - 1 3. जिन भक्ति मंजूषा भाग - 1 2 आनन्दघन ग्रन्थावली अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 50 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'मौनं सर्वार्थ साधनम्' की अभिव्यंजना इसमें मुखरित हुई है । उनके पदों में व्यक्ति की चेतना को झकझोर देने का सामर्थ्य है क्योंकि वे उनकी सहज अनुभूति से निःसृत है । विश्वपूज्य का अंतरंग व्यक्तित्व उनकी काव्य-कृतियों में व्याप्त है । उनके पदों में कबीरसा फक्कड़पन झलकता है । उनका यह पद द्रष्टव्य है - " ग्रन्थ रहित निर्ग्रन्थ कहीजे, फकीर फिकर फकनारा ज्ञानवास में बसे संन्यासी, पंडित पाप निवारा रे सद्गुरु ने बाण मारा, मिथ्या भरम विदारा रे ॥ " 1 विश्वपूज्य का व्यक्तित्व वैराग्य और अध्यात्म के रंग में रंगा था । उनकी आध्यात्मिकता अनुभवजन्य थी । उनकी दृष्टि में आत्मज्ञान ही महत्त्वपूर्ण था । 'परभावों में घूमनेवाला आत्मानन्द की अनुभूति नहीं कर सकता । उनका मत था कि जो पर पदार्थों में रमता है वह सच्चा साधक नहीं है । उनका एक पद द्रष्टव्य है 'आतम ज्ञान रमणता संगी, जाने सब मत जंगी । पर के भाव लहे घट अंतर, देखे पक्ष दुरंगी ॥ सोग संताप रोग सब नासे, अविनासी अविकारी । तेरा मेरा कछु नहीं ताने, भंगे भवभय भारी ॥ अलख अनोपम रूप निज निश्चय, ध्यान हिये बिच धरना । दृष्टि राग तजी निज निश्चय, अनुभव ज्ञानकुं वरना ॥12 उनके पदों में प्रेम की धारा भी अबाधगति से बहती है। उन्होंने शांतिनाथ परमात्मा को प्रियतम का रूपक देकर प्रेम का रहस्योद्घाटन किया है। वे लिखते हैं 'श्री शांतिजी पिउ मोरा, शांतिसुख सिरदार हो । प्रेमे पाम्या प्रीतड़ी, पिउ मोरा प्रीतिनी रीति अपार हो ॥ शांति सलूणी म्हारो, प्रेम नगीनो म्हारो, स्नेह समीनो म्हारो नाहलो । पिउ पल एक प्रीति पमाड हो, प्रीत प्रभु तुम प्रेमनी, पीउ मोरा मुज मन में नहिं माय हो ॥ " 3 1. जिन भक्ति मंजूषा भाग 2 जिन भक्ति मंजूषा भाग 1 - 1 — - 3. जिन भक्ति मंजूषा भाग - 1 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 51 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यद्यपि उनकी दृष्टि में प्रेम का अर्थ साधारण-सी भावुक स्थिति न होकर आत्मानुभवजन्य परमात्म- प्रेम है, आत्मा-परमात्मा का विशुद्ध निरूपाधिक प्रेम है | इसप्रकार विश्वपूज्य की कृतियों में जहाँ-जहाँ प्रेम-तत्त्व का उल्लेख हुआ है, वह नर-नारी का प्रेम न होकर आत्मब्रह्म - प्रेम की विशुद्धता है । 1 विश्वपूज्य में धर्म सद्भाव भी भरपूर था । वे निष्पक्ष, निस्पृही मानव-मानव के बीच अभेद भाव एवं प्राणि मात्र के प्रति प्रेम - पीयूष की वर्षा करते थे । उन्होंने अरिहन्त, अल्लाह - ईश्वर, रूद्र- शिव, ब्रह्मा-विष्णु को एक ही माना है। एक पद में तो उन्होंने सर्व धर्मों में प्रचलित परमात्मा के विविध नामों का एक साथ प्रयोग कर समन्वय-दृष्टि का अच्छा परिचय दिया है। उनकी सर्व धर्मों के प्रति समादरता का निम्नांकित पद मननीय है 'ब्रह्म एक छे लक्षण लक्षित, द्रव्य अनंत निहारा । सर्व उपाधि से वर्जित शिव ही, विष्णु ज्ञान विस्तारा रे ॥ ईश्वर सकल उपाधि निवारी, सिद्ध अचल अविकारा । शिव शक्ति जिनवाणी संभारी, रूद्र है करम संहारा रे ॥ अल्लाह आम आपहि देखो, राम आतम रमनारा । कर्मजीत जिनराज प्रकासे, नयथी सकल विचारा रे ॥' विश्वपूज्य के इस पद की तुलना संत आनंदघन के पद से की जा सकती है । 2 यह सच है कि जिसे परमतत्त्व की अनुभूति हो जाती है, वह संकीर्णता के दायरे में आबद्ध नहीं रह सकता । उसके लिए रामकृष्ण, शंकर - गिरीश, भूतेश्वर, गोविन्द, विष्णु, ऋषभदेव और महादेव 1 पृ. 72 1. जिन भक्ति मंजूषा भाग 2. 'राम कहौ रहिमान कहौ, कोउ कान्ह कहौ महादेव री । पारसनाथ कहौ कोउ ब्रह्मा, सकल ब्रह्म स्वयमेवरी ॥ - भाजन भेद कहावत नाना, एक मृत्तिका रूप री । तैसे खण्ड कलपना रोपित, आप अखण्ड सरूप री ॥ निज पद रमै राम सो कहिये, रहम करे रहमान री । करषै करम कान्ह सो कहियै, महादेव निरवाण री ॥ परसै रूप सो पारस कहियै, ब्रह्म चिन्है सो ब्रह्म री 1 इहविध साध्यो आप आनन्दघन, चेतनमय निःकर्मरी ॥' आनंदघन ग्रन्थावली, पद ६५ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 52 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या ब्रह्म आदि में कोई अन्तर नहीं रह जाता है । उसका तो अपना " एक धर्म होता है और वह है - आत्म-धर्म (शुद्धात्म-धर्म) । यही बात विश्वपूज्य पर पूर्णरूपेण चरितार्थ होती है। सामान्यतया जैन परम्परा में परम तत्त्व की उपासना तीर्थंकरों के रूप में की जाती रही है; किन्तु विश्वपूज्य ने परमतत्त्व की उपासना तीर्थंकरों की स्तुति के अतिरिक्त शंकर, शंभु, भूतेश्वर, महादेव, जगकर्ता, स्वयंभू, पुरूषोत्तम, अच्युत, अचल, ब्रह्म-विष्णु-गिरीश इत्यादि के रूप में भी की है। उन्होंने निर्भीक रूप से उद्घोषणा की है - "शंकर शंभु भूतेश्वरो ललना, मही माहें हो वली किस्यो महादेव, जिनवर ए जयो ललना । जगकर्ता जिनेश्वरो ललना, स्वयंभू हो सहु सुर करे सेव, जिनवर ए जयो ललना ॥ वेद ध्वनि वनवासी ललना, चौमुखे हो चारे वेद सुचंग, जिन. । वाणी अनक्षरी दिलवसी ललना, ब्रह्माण्डे बीजो ब्रह्म विभंग, जि.॥ पुरुषोत्तम परमातमा ललना, गोविन्द हो गिस्वो गुणवंत, जि. । अच्युत अचल छे ओपमा ललना, विष्णु हो कुण अवरकहंत, जि.॥ नाभेय रिषभ जिणंदजी ललना, निश्चय थी हो देख्यो देव दमीश। एहिज सूरिशजेन्द्र जी ललना, तेहिज हो ब्रह्मा विष्णु गिरीश, जि.॥" __ वास्तव में, विश्वपूज्य ने परमात्मा के लोक प्रसिद्ध नामों का निर्देश कर समन्वय-दृष्टि से परमात्म-स्वरूप को प्रकट किया है । इसप्रकार कहा जा सकता है कि विश्वपूज्य ने धर्मान्धता, संकीर्णता, असहिष्णुता एवं कूपमण्डूकता से मानव-समाज को ऊपर उठाकर एकता का अमृतपान कराया। इससे उनके समय की राजनैतिक एवं धार्मिक परिस्थिति का भी परिचय मिलता है। ___'अभिधान राजेन्द्र कोष' कथाओं का सुधासिन्धु है । कथाओं में जीवन को सुसंस्कृत, सभ्य एवं मानवीय गुण-सम्पदा से विभूषित करने का सरस शैली में अभिलेखन हुआ है। कथाएँ इक्षुरस के समान मधुर, सरस और सहज शैली में आलेखित हैं । शैली में प्रवाह हैं, प्राकृत और संस्कृत शब्दों को हीरक कणियों के समान तराश कर 1. जिन भक्ति मंजूषा भाग - 1 पृ. 72 ( अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6.53 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाओं को सुगम बना दिया है । उपसंहार : __विश्वपूज्य अजर-अमर है। उनका जीवन 'तप्तं तप्तं पुनरपि पुनः काञ्चनं कान्त वर्णम्' की उक्ति पर खरा उतरता है । जीवन में तप की कंचनता है, कवि-सी कोमलता है । विद्वत्ता के हिमाचल में से करुणा की गंग-धारा प्रवाहित है। उन्होंने जगत् को 'अभिधान राजेन्द्र कोष' रूपी कल्पतरू देकर इस धरती को स्वर्ग बना दिया है, क्योंकि इस कोष में ज्ञान-भक्ति और कर्मयोग का त्रिवेणी संगम हुआ है। यह लोक माङ्गल्य से भरपूर क्षीर-सागर है। उनके द्वारा निर्मित यह कोष आज भी आकाशी ध्रुवतारे की भाँति टिमटिमा रहा है और हमें सतत दिशा-निर्देश दे रहा है । विश्वपूज्य के लिए अनेक अलंकार ढूँढ़ने पर भी हमें केवल एक ही अलंकार मिलता है - वह है - अनन्वय अलंकार - अर्थात् विश्वपूज्य विश्वपूज्य ही है। उनका स्वर्गवास 21 दिसम्बर सन् 1906 में हुआ, परन्तु कौन कहता है कि विश्वपूज्य विलीन हो गये? वे जन-जन के श्रद्धा केन्द्र सबके हृदय-मंदिर में विद्यमान हैं ! अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6054 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस (षष्ठम खण्ड) Page #64 --------------------------------------------------------------------------  Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगल का अर्थ मंगिज्जएऽधिगम्मइ, जेण हिअं तेण मंगलं होइ । अहवा मंगो धम्मो, तं लाइ तयं समादत्ते ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 8] - विशेषावश्यक भाष्य 22 जिसके द्वारा हित की याचना एवं प्राप्ति होती है; उसे 'मंगल' कहते हैं अथवा मंगल का अर्थ धर्म है और उस धर्म को जो ग्रहण करता है, वह मंगल है। _ 'मंगल' शब्द की व्युत्पत्ति मां गालयति भवादिति मङ्गलं संसारादपनयतीत्यर्थः । अथवा शास्त्रस्य मा भूद्गलो विघ्नोऽस्मादिति मङ्गलम् ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 9] _ - विशेषावश्यक भाष्य 24 टीका । जो मुझे संसार से दूर करता है वह 'मंगल' है अथवा 'मा' निषेधार्थ है और 'गल' विघ्नवाचक है । अत: 'मंगल' का अर्थ होता है - शास्त्र के प्रारम्भ में विघ्न न हो। .... 3. मङ्गल चतुष्क चत्तारि मंगलं-अरिहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं केवलीपण्णत्तो धम्मो मंगलं ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 16] - आवश्यक सूत्र - 4 मंगल चार हैं-अरिहंत, सिद्ध, साधु और केवली प्ररुपित धर्म । 'माँस' शब्द की निरुक्ति मां स भक्षयिताऽमुत्र, यस्य मांस मिहाम्यहम् । एतन्मांसस्य मांसत्वं, प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 32] - मनुस्मृति 5/55 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 57 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "मैं जिसके माँस को यहाँ खाता हूँ, वह मुझे भी परलोक में खायेगा ।" मनीषीगण 'मांस' शब्द का यही मांसत्व बताते हैं । 5. समान फल किसे ? वर्षे वर्षेऽश्वमेधेन, यो यजेत शतं समाः । मांसानि च न खादेद्य-स्तयोस्तुल्यं भवेत् फलम् ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 34] - मनुस्मृति 5/53 प्रत्येक वर्ष सौ बार अश्वमेध यज्ञ करनेवाले और मांस भक्षण नहीं करने वाले इन दोनों पुरुषों को बराबर फल मिलता है । 6. ब्रह्मचर्य से उत्तम गति एक रात्रौषितस्यापि, या गति ब्रह्मचारिणः । न सा क्रतुसहस्त्रेण, प्राप्तुं शक्या युधिष्ठिरः !॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 34] ___ - स्याद्वादमंजरी से उद्धृत पृ. 209 हे युधिष्ठिर ! एक रात ब्रह्मचर्य से रहनेवाले पुरुष को जो उत्तम गति मिलती है, वह गति हजारों यज्ञ करने से भी नहीं मिलती। . 7. वैर-विरोध-त्याग पभू दोसे नीरा किच्चा; ण विरुज्झेज्ज केणई । मणसा वयसा चेव, कायसा चेव अंतसो ॥ ___- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 43] - सूत्रकृतांग - Inin2 जितेन्द्रिय साधक मिथ्यात्व आदि दोषों को दूर करके किसी भी प्राणी के साथ जीवनभर मन-वचन और काया से वैर-विरोध न करें । 8. ना काहू से वैर ण विरुज्झेज्ज केणई। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 43] - सूत्रकृतांग - Inin2 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 58 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. किसी के भी साथ वैर - विरोध मत करो । सर्वत्र अहिंसा उड्ढं अहे तिरियं च, जे केइ तस - थावरा । सव्वत्थ विरतिं कुज्जा, संति निव्वाणमाहियं ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 43] सूत्रकृतांग 12121 - उर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यग्लोक में जितने भी त्रस और स्थावर जीव हैं; सर्वत्र उन सब की हिंसा से दूर रहना चाहिए । वैर की शान्ति को ही निर्वाण कहा गया है । 10. ज्ञानी का सार एयं खु णाणिणो सारं, जं न हिंसति कंचणं । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 43 ] सूत्रकृतांग - 11110 किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करना ही ज्ञानी होने का सार है । - 11. सम्यग्दर्शन, दीपस्तम्भ बुज्झमाणाण पाणाणं, किच्चं तणे ए कम्मुणा । आघाती साहु तं दीवं, पतिट्ठेसा पकुच्चई ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 45 ] सूत्रकृतांग - 11/23 मिध्यात्व अविरति आदि संसार - सागर के स्रोतों के प्रवाह में 1 बहते हुए तथा अपने कर्मों के द्वारा कष्ट पाते हुए प्राणियों के लिए सम्यग्दर्शन (निर्वाण - मार्ग) ही विश्राम स्थान है । तत्त्वज्ञों का कथन है कि सम्यग्दर्शन ( निर्वाण - मार्ग) ही मोक्ष - प्राप्ति का आधार है । 12. समाधि से दूर बुद्धामोत्ति य मन्नंता, अंतर ते समाहिए । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 45] सूत्रकृतांग - 11/25 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड- 6 • 59 - Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानवश अपने आपको ज्ञानी समझनेवाला समाधि से बहुत दूर 13. मुनि-प्रवृत्ति, मोक्ष प्रधान निव्वाणं परमं बुद्धा, णक्खत्ताणं व चंदिमा । तम्हा सदा जए दंते, निव्वाणं संघए मुणी ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 45] - सूत्रकृताग - 1122 जैसे-चन्द्रमा सभी नक्षत्रों में प्रधान है, वैसे ही मोक्ष भी सभी पुरुषार्थों में प्रधान है । अतएव मुनि को सदा यतनाशील और जितेन्द्रिय होकर निर्वाण को केन्द्र में रखकर सभी प्रवृत्तियाँ करनी चाहिए। 14. मोक्ष-मार्ग-साधना सदा जए दंते, निव्वाणं संघए मुणी । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 45] - सूत्रकृतांग - 11/22 सदा जितेन्द्रिय और संयमशील होता हुआ मुनि निर्वाण की साधना करें। 15. धर्मोपदेष्टा कौन ? आयगुत्ते सया दंते, छिन्नसोए अणासवे । जे धम्मं सुद्धमक्खाइ, पडिपुन्नमणेलिसं ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 45] - सूत्रकृतांग - 11/24 जो सदा आत्म-गुप्त तथा इन्द्रिय-दमन करनेवाला है, छिन्नस्रोत एवं अनास्रव है; वही इस शुद्ध, पूर्ण एवं अनुपम धर्म का उपदेश करता है । 16. कंकपक्षीवत् पापी-अधम विसएसणं झियायंति, कंका वा कलुसाहमा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 46] - सूत्रकृतांग In128 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6, 60 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो विषय भोगों का ध्यान किया करते हैं; वे कंकपक्षी के समान पापी और अधम हैं । 17. संयम, आत्म-रक्षा कवच अतताए परिव्व । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 46] सूत्रकृतांग - 1/11/32 आत्म-रक्षा (आत्मा को पाप से बचाने ) के लिए संयमशील होकर विचरण करें । 18. मेरुवत् अचल अहणं वयमावन्नं; फासाउच्चावया फुसे । विणिहणेज्जा वारण वे महागिरी || श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 47 ] सूत्रकृतांग - 11/37 जिसप्रकार महागिरि मेरु हवा के झंझावात से विचलित नहीं होता, उसी प्रकार व्रतनिष्ठ पुरुष सम-विषम, ऊँच-नीच और अनुकूल-प्रतिकूल परिषहों के आने पर भी धर्म - पथ से विचलित नहीं होता । 19. मग्नता 1 - प्रत्याहृत्येन्द्रियव्यूहं समाधाय मनोनिजम् । दधच्चिन्मात्रविश्रान्तिर्मग्न इत्यभिधीयते ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 47 ] ज्ञानसार 21 जो आत्मा इन्द्रिय समूह को नियन्त्रित और मन को समाधिस्थ ( एकाग्र ) कर केवल चैतन्य स्वरूप ज्ञान में विश्राम करती है, वह मग्न कहलाती है । 20. ज्ञान - लीनता - ? - यस्य ज्ञान - सुधा-सिन्धौ परब्रह्मणिमग्नता । विषयान्तरसंचारस्तस्य हलाहलोपमम् ॥ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड- 6 • 61 " Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 48] ज्ञानसार - 22 ज्ञानामृत के समुद्र-रूपी परमात्म स्वरूप में जिसका मन डूब गया हों, उसे अन्य विषय में भटकना विष के समान लगता है । 21. परब्रह्मलीन परब्रह्मणि मग्नस्य, श्लथा पौद्गलिकी कथा | श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 48 ] - ज्ञानसार 2/4 परमात्म स्वरूप में लीन मनुष्य को लगती है । 22. गोता ज्ञान सरोवर का ज्ञानमग्नस्य यच्छर्म, तद्वक्तुं नैव शक्यते । पुद्गल - सम्बन्धी बात नीरस श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 49] ज्ञानसार 26 ज्ञान-सरोवर में आकण्ठ डूबे हुए व्यक्ति को जो सुख सन्तोष प्राप्त होता है, वह मुख से कहा नहीं जा सकता । ज्ञान-मग्न का सुख अवर्णनीय और है । अनुपम 23. पीयूषवर्षी योगीश्वर - यस्य दृष्टि: कृपावृष्टिर्गिरः शमसुधाकिरः । तस्मै नमः शुभज्ञानध्यानमग्नाय योगिने ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 50] ज्ञानसार 2/8 जिनकी दृष्टि कृपा की वृष्टि है और जिनकी वाणी उपशम रूपी अमृत का छिड़काव करनेवाली है, ऐसे प्रशस्त - ज्ञान - ध्यान में सदा लीन रहनेवाले उन महान् योगीश्वर को नमस्कार हो । 24. ज्ञान - पीयूष में मग्न शमशैत्यपुशो यस्य विप्रुषोऽपि महाकथा । किं स्तुमो ज्ञान - पीयूषे, तस्य सर्वाङ्ग-मग्नताम् ॥ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 62 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 50] ज्ञानसार 2/7 सहज शीतलता को पोषण करनेवाला एक बिन्दु मात्र ज्ञानामृत का भी बड़ा प्रभाव होता है तो फिर जो ज्ञानामृत में पूर्ण रूप से डूबा हुआ हो, उसकी तो भला हम किन शब्दों में स्तुति करें ? 25. मदिरा - पान - हानि - 27. मद्यं पुनः प्रमादाङ्गं, तथा सच्चित्तनाशनम् । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 60] हारिभद्रीयाष्टक 19/1 मद्य प्रमाद का कारण है और शुभ चित्त का नाश करनेवाला है । - 26. मुनिवर मध्यस्थ समशीलं मनो यस्य स मध्यस्थो महामुनिः । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 64] ज्ञानसार - 16/3 जिनका मन समस्वभावी हैं, ऐसे मुनिवर वास्तव में मध्यस्थ हैं । - - मन: बछड़ा-बन्दर मनोवत्सो युक्तिगवीं, मध्यस्थस्यानुधावति । तामाकर्षति पुच्छेन, तुच्छाग्रहमनः कपिः ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 64] - ज्ञानसार - 16/2 मध्यस्थ पुरुष का मनरूपी बछड़ा युक्ति रूपी गाय के पीछे दौड़ता है, जबकि दीन-हीन वृत्तिवाले पुरुष का मनरूपी बन्दर युक्तिरूपी गाय की पूँछ पकड़कर पीछे खींचता है । 28. मध्यस्थ दृष्टि निष्पक्षपाती स्वागमं रागमात्रेण, द्वेषमात्रात् परागमम् । न श्रयामः त्यजामो वा, किन्तु मध्यस्थया दृशा ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग पृ.64] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 63 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार 16/7 मध्यस्थ दृष्टि व्यक्ति अनुरागवश अपने आगमशास्त्र को स्वीकार नहीं करते और द्वेषवश अन्य के धर्मशास्त्र का त्याग नहीं करते । अपितु वे शास्त्र को मध्यस्थ दृष्टि से स्वीकार करते हैं अर्थात् मध्यस्थ दृष्टि जीव तत्त्वातत्त्व का निर्णय करके ही योग्य को ग्रहण करते हैं और अयोग्य का त्याग करते हैं । 29. भावितात्मा - संजमेण तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 72] - उपासकदशा - 1/76 साधक संयम और तप से आत्मा को सतत भावित करता रहे। - 30. एकाग्रता से लाभ एगग्गचित्तेणं जीवे, मणगुत्ते संजमाराहए भवइ । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 83] - उत्तराध्ययन 29/53 एकाग्र चित्त से जीव मनोगुप्ति और संयम का आराधक हो जाता है । (जिसके चित्त में एकाग्रता नहीं होती, उसे कहीं भी सफलता नहीं मिलती ।) 31. मनोनिग्रह - फल - मणगुत्तयाएणं जीवे एगऽग्गं जणय । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 83] उत्तराध्ययन 29/53 मनोगुप्ति से जीव एकाग्र होता है । 32. आकृतिः मन का दर्पण - इंगिताकारैर्ज्ञेयैः क्रियाभि र्भाषिते च । नेत्रवक्त्रविकारैश्च गृह्यते अन्तर्गतं मनः ॥ - " श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 83] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 64 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मनुस्मृति 846 अनुयोगद्वार प्रमाणाधिकार 143 आकृति से, इशारों से, चाल-ढाल (गति) से, चेष्टा से, वाणी/ बोली से, नेत्र और मुँह के बदलते हुए भावों से मन में रहे हुए विचारों (बात) का पता लग जाता है । 33. मानवीय कर्म चउहिं ठाणेहिं जीवा मणुस्सताए कम्मं पगरेति । तंजहा-पगइभद्दयाए, पगति विणीयाए, साणुक्कोसयाए, अमच्छरियाए ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 99] - स्थानांग - 4/4/4/373 । - सहज सरलता, सहज विनम्रता, दयालुता और अमत्सरता-ये चार प्रकार के व्यवहार मानवीय कर्म हैं । (इनसे आत्मा मानवजन्म प्राप्त करती 34. मृदुता-फल मद्दवयायेणं अणुस्सियत्तं जणयइ । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 104] - उत्तराध्ययन 29/49 मृदुता से जीव अहंकार रहित हो जाता है । 35. पशुवत् 'मैं' 'मैं' पुत्रो मे भ्राता मे, स्वजनों मे गृहकलत्रवर्गों मे । इति कृत मेमे शब्द, पशुमिव मृत्युर्जनं हरति ॥ ' - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 104] . - आचारांग सटीक 120 एवं आगमीय सूक्तावली पृ. 18 ___ मेरा पुत्र, मेरा भाई, मेरे स्वजन, मेरा घर, मेरी पत्नी, मेरा परिवार आदि पशुवत् 'मैं' 'मैं' करता हुआ मनुष्य मानवजन्म हार जाता है । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 65 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36. तिरस्कार-वर्जन न बाहिरं परिभवे । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 106] - दशवकालिक 8/30 दूसरों का तिरस्कार मत करो। 37. ज्ञान में भी निरभिमान सुयलाभे न मज्जेज्जा। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 106] - दशवकालिक - 8/30 श्रुतज्ञान प्राप्त होने पर भी अभिमान मत करो । 38. पाप-जननी कौन ? अदु इंखिणिया उपाविया । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 107] - सूत्रकृतांग Innn निन्दा पापों की जननी है। 39. निरभिमानी मुनि मुणी ण मिज्जइ । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 107] - सूत्रकृतांग - 1222 मुनि अभिमान नहीं करता है। . 40. तिरस्कार से भ्रमण जो परिभवइ परं जणं, संसारे परिवत्तई महं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 107] - सूत्रकृतांग Innn जो दूसरों का तिरस्कार करता है, वह संसार-अटवी में दीर्घकाल तक भटकता रहता है। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6, 66 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41. एक बार मरण एगे मरणे अंतिम सारीरियाणं । - - स्थानांग - 1196 (26) मुक्त होनेवाली आत्माओं की वर्तमान देह का अंतिम मरण एकबार होता है । दूसरी बार नहीं । 42. द्विविध मरण श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 108] → सन्ति मे य दुवे ठाणा, अक्खाया मारणन्तिया । अकाममरणं चेव, सकाम मरणं तहा ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 117] - उत्तराध्ययन 51 तत्त्वज्ञ पुरुषों ने मरण दो प्रकार के बताए हैं - एक अकाममरण और दूसरा काममरण । 43. पण्डित - मृत्यु पंडियाणं सकामं तु उक्कोसेण सइं भवे । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 117] - उत्तराध्ययन 51 पंडितजनों की (सकाममरण) मृत्यु उत्कृष्टत: एक बार ही होती है 44. अज्ञानी - मृत्यु - बालाणं अकामं तु मरणं असई भवे । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 117] उत्तराध्ययन 5/3 मूर्खो की मृत्यु बार-बार होती है । 45. भौतिक दृष्टि - न मे दिट्ठे परे लोए, चक्खूदिट्ठा इमा रई । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-667 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 47. - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 118] - उत्तराध्ययन - 5/5 अज्ञानी जन ऐसा कहते हैं कि परलोक तो हमने देखा नहीं हैं, किन्तु यह विद्यमान काम-भोग का आनन्द तो चक्षु-दृष्ट है अर्थात् प्रत्यक्ष आँखों के सामने है। 46. काम से संक्लेश कामभोगाणुराएणं केसं संपडिवज्जइ । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 118) - उत्तराध्ययन 5/1 काम-भोग से जीव क्लेश पाता है । अज्ञानी शोकाकुल जहा सागडिओ जाणं, समं हिच्चा भहापहं । विसमं मग्गमोइण्णो, अक्खे भगम्मि सोयइ ॥ एवं धम्मं विउक्कम्म, अहम्मं पडिवज्जिया । बाले मच्चु-मुहं पत्ते अक्खे भग्गे व सोयई ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 120] - उत्तराध्ययन 5405 जैसे-कोई गाड़ीवान् समतल राजपथ को जानता हुआ भी उसे छोड़कर विषम दुरुह मार्ग से चल पड़ता है और गाड़ी की धूरी टूट जाने के पश्चात् शोकाकुल होता है, वैसे ही धर्म का उल्लंघन कर जो अज्ञानी अधर्म के कुमार्ग को स्वीकार कर लेता है । वह मृत्यु के मुख में पड़ने पर उसी प्रकार शोक करता है जिसप्रकार धूरी टूट जाने पर गाड़ीवान करता है। 48. भय से संत्रस्त तओ से मरणंतम्मि बाले संतस्सइ भया । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 120] - उत्तराध्ययन - 546 अज्ञानी जीव मरणान्त समय में भय से संत्रस्त होता है । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6.68 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 49. अपेक्षा से श्रेष्ठ कौन ? सन्ति एगेहिं-भिक्खूहिं गारत्था संजमुत्तरा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 121] - उत्तराध्ययन 5/20 कई भिक्षुओं की अपेक्षा गृहस्थ संयम में श्रेष्ठ होते हैं। 50. गृहस्थ बनाम साधु श्रेष्ठ गारत्थेहिय सव्वेहि, साहवो संजमुत्तरा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 121] - उत्तराध्ययन - 5/20 . सभी गृहस्थों की अपेक्षा साधुगण संयम में श्रेष्ठ होते हैं । 51. बाह्योपकरण रक्षक नहीं चीरा जिणं निगिणिणं, जडि-संघाडि-मुंडिणं । एयाणि वि न तायंति, दुस्सीलं परियागतं ॥ . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 121] - उत्तराध्ययन 5/21 चीवर, मृगचर्म, नग्नता, जटाएँ, कन्था (चिथड़ों से बनी हुई गुदड़ी) और सिरमुंडन-ये सारे बाह्य उपकरण आचारहीन साधक की रक्षा नहीं कर सकते। 52. सुव्रती गिहवासोऽवि सुव्वओ। ___ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 122] - उत्तराध्ययन 5/24 धर्म-शिक्षा सम्पन्न गृहस्थ गृहवास में भी सुव्रती है । दिव्यगति भिक्खाए वा गिहेत्थे वा सुव्वए कमति दिवं । --- - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 122] 53. दिल्या अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6.69 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - उत्तराध्ययन - 5/22 चाहे भिक्षु हो या गृहस्थ हो, जो सदाचारी है; वह देवगति पाता है 54. आत्मा प्रसन्न कैसे ? तुलिया विसेसमायाय दयाधम्मस्स खंतिए । विप्पसीएज्ज मेधावी, तहा भूएण अप्पणा ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 123] - उत्तराध्ययन 530 मेधावी साधक पहले अपने आपको तोले । उसके बाद बाल मरण से पण्डित मरण की विशेषता जानें और फिर सकाम मरण को स्वीकार कर दयाप्रधानधर्म क्षमादि गुणों के द्वारा अपनी आत्मा को प्रसन्न रखें । 55. अनुद्विग्न न संतसंति मरणन्ते सीलवंता बहुस्सुआ । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 123] - उत्तराध्ययन - 5/29 बहुश्रुत ज्ञानी और सदाचारी साधक मृत्युकाल में भी उद्विग्न नहीं होते हैं। 56. धर्म धम्ममायाणह। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 124) - आचारांग - 1/84/202 धर्म को समझो। 57. कर्म-बन्धन से मुक्त जे निबुडा पावेहि कम्मेहिं अणियाणा ते वियाहिया । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 124] ____ एवं [भाग 7 पृ 494] - आचारांग - 1/48 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 70 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो पाप-कर्मों से निवृत्त हैं, वे निदान रहित कर्म बन्धन के मूल से मुक्त कहे गए हैं। 58. धर्म कहाँ ? गामेवाअदुवारणे,नेवगामेनेवरणेधम्ममाऽऽयाणह। . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 124) - आचारांग 1/8/202 धर्म गाँव में होता है अथवा जंगल में ? वस्तुत: वह न तो गाँव में होता है और न ही जंगल में । वह तो आत्मा में है अर्थात् सम्यग् आचरण को धर्म जानो। 59. जीव-हिंसा जे वेऽन्ने एएहिं काएहिं दंडं समारंभंति, तेसि पि वयं लज्जामो । . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 124] . - आचारांग - 1/84/203 यदि कोई अन्य भिक्षु भी जीव-निकाय की हिंसा करते हैं तो उनके इस जघन्य कार्य से भी हम लज्जित होते हैं। 60. देह की पुष्टि और क्षीणता आहारोवचया देहा परिसहा पभंगुरा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 126] - आचारांग - 1/83210 शरीर आहार से बढ़ता है; पुष्ट होता है और परिषहों से क्षीण होता है। 61. मैं अकेला एगे अहमंसि, न मे अस्थि कोइ, नयाऽहमवि कस्सवि । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 127] - आचारांग - 1/8/6/222 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 71 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62. मैं एक हूँ अकेला हूँ । न कोई मेरा है, और न मैं किसी का हूँ । आत्मा एकाकी एगागिणमेव अप्पाणं समभिजाणिज्जा । 66. - अपनी आत्मा को एकाकी ही अनुभव करें । 63. जीवन अनाकांक्षा 64. मृत्यु जीवियं नाभिकंखेज्जा । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 130] आचारांग - 1/8/8/19 पण्डित साधक जीने की आकांक्षा नहीं करें । से निष्काम ― श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 127] आचारांग 1/8/6/222 मरणं नोवि पत्थए । - - 65. तितिक्षा पंडित साधक मृत्यु - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 130] आचारांग - 1/8/8/19 की भी कामना नहीं करें । अप्पाहारे तितिक्खए । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 130] 1/8/8/18 आचारांग साधक अल्पाहार करता हुआ सहनशीलता - तितिक्षाभाव रखें । कषाय-कृशता कसाये - पयणू किच्चा । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 130 ] आचारांग 1/8/8/18 कषायों को पतला (कृश) करें । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 72 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 67. मृत्यु कला के सम्यग्वेत्ता दुविहं पि विइत्ताणं, बुद्धा धम्मस्स पारगा । अनुपुव्वीइ संखाए, आरम्भा य तिउट्टई ॥ धर्म के सम्यग्वेत्ता प्रबुद्ध साधक बाह्य और आभ्यन्तर तप का आचरण करके अथवा पंडित और अपण्डित द्विविध मरणों समझ कर यथाक्रम से संयम का पालन करते हुए मृत्यु के समय को जान कर शरीर पोषण रूप आरम्भों से मुक्त होते हैं । 68. धर्मवेत्ता 70. श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 130] आचारांग - 1/8/8/17 बुद्धा धम्मस्स पारगा । प्रबुद्ध पुरुष धर्म के पारगामी होते हैं । 69. जीवन-मृत्यु में अनासक्त - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 130] आचारांग 1/88/7 दुहतो वि ण सज्जेज्जा जीविते मरणे तहा । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 130] आचारांग साधक जीवन और मृत्यु दोनों में ही आसक्त न हो । अध्यात्म-अन्वेषण 1/8/8. - अंतो बहिं विउस्सिज्ज अज्झत्थसुद्धसए । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 131 ] आचारांग बाह्याभ्यन्तर ममत्व का विसर्जन कर साधक विशुद्ध अध्यात्म का 1/8/8/20 - अनुसंधान करें । 71. भिक्षु कैसा हो ? - मज्झत्थो निज्जरापेही समाहिमणुपालए । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 73 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 131] - आचारांग - 118/8/20 मध्यस्थ अर्थात् समभाव में स्थित और निर्जराकांक्षी भिक्षु समाधि का अनुपालन करें। 72. ग्रन्थियों से मुक्त गंथेहिं विवित्तेहिं, आउकालस्सपारए । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 131] - आचारांग - 1/8/8/26 साधक को बाह्य और अन्तरंग सभी ग्रन्थियों से मुक्त होकर आयुष्यकाल (जीवन-यात्रा) पूर्ण करना चाहिए । 73. मर्यादा का अनुलंघन .. नाइवेलं उवचरे माणुस्से हि वि पुढेव । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 131] - आचारांग 1/8/8/23 मुनि मनुष्यकृत (अनुकूल-प्रतिकूल) उपसर्गों से आक्रान्त होने पर भी मर्यादा का उल्लंघन न करें। 74. मुनि आचार इंदिएहि गिलायन्तो, समियं आहरे मुणी । तहा विसे अगरिहे, अचले जे समाहिए ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 132] - आचारांग - 1/8/8/29 इन्द्रियों से क्षीण होने पर भी मुनि समता धारण करें । यदि वह अचल और समाहित है तो परिमित स्थान में शारीरिक चेष्टा करते हुए भी निंद्य नहीं है। 75. नश्वर काम भेउरेसु ण रज्जेज्जा, कामेसु बहुयरेसु वा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 133] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 74 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग 1/8/8/38 विविध प्रकार के क्षणभंगुर विपुल काम - भोगों में लिप्त न हो । - 76. देहासक्ति-त्याग वोसिरे सव्वसो कायं, न मे देहे परीसहा । - - आचारांग 1/8/8/36 शरीर का सब तरह से मोह छोड़ दें । परिषह उपस्थित होने पर विचार करे कि मेरी देह पर कोई परिषह है ही नहीं । 77. इच्छा - लोभ - वर्जन G - - इच्छालोभं न सेविज्जा । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 133] - इच्छा और लोभ का सेवन नहीं करना चाहिए । GURENS 78. अनासक्त जीवन-यात्रा श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 133] आचारांग - 1/8/8/38 सव्वद्वेहिं अमुच्छिए आउकालस्स पार । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 134] आचारांग - 1/8/8/40 साधक सभी विषयों में मूर्च्छित नहीं होता हुआ ( अनासक्त) - जीवन-यात्रा को पूर्ण करें । 79. अविश्वास किसमें ? 80. तितिक्षा दिव्वं मायं न सहे । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 134] आचारांग - 1/8/8/39 भिक्षु दिव्य माया पर भी विश्वास नहीं करें । तितिक्खं परमं नच्चा अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 75 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तितिक्षा को सर्वश्रेष्ठ समझो । 81. सशल्य मृत्यु से भ्रमण रागदोसाभिहया, ससल्लमरणं मरंति जे मूढ । ते दुक्खसल्लबहुला, भमंति संसार कंतारे ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 135] मरणसमाधि प्रकीर्णक 51 राग-द्वेष से अभिभूत जो मूढ़ मनुष्य शल्यपूर्वक मरते हैं, वे विविध दुःखरूप शल्यों से पीड़ित होकर संसार रूप अटवी में परिभ्रमण करते हैं । 82. आलोचना से हल्कापन Stay श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 134 ] आचारांग - 1/8/8/40 पावो वि मणूसो आलोइय निंदिय गुरुसगासे । होड़ अइरेग लहुओ, ओहरिय भरुव्व भारवहो || श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 136] मरणसमाधि प्रकीर्णक - 102 - जैसे - भारवाहक बोझ उतार कर अत्यन्त हल्कापन महसूस करता है, वैसे ही पापी मनुष्य भी गुरु के समीप अपने दुष्कृत्यों की आलोचनानिंदा कर पाप से हल्का हो जाता है । 83. आराधक नहीं सुपि भावलं अणुद्धरित्ता उ जो कुणइ कालं । लज्जाइ गारवेण य न हु सो आराहओ भणिओ ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 136] मरणसमाधिप्रकीर्णक 98 - -- जो लज्जा अथवा गर्ववश सूक्ष्म भी भावशल्य की शुद्धि नहीं करता है और शल्य सहित ही मर जाता है तो वह आराधक नहीं माना जाता है । 84. भावशल्य से भ्रमण जं कुणइ भावसल्लं, अणुद्धरियं उत्तमट्टकालम्मि । दुल्लहं बोहियतं, अनंत संसारियत्तं च ॥ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 76 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो उद्धरंति गारवरहिया, मूल पुणब्भवलयाणं । मिच्छादंसण सल्लं मायासल्लं नियाणं च ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 136] - मरणसमाधि प्रकीर्णक - 111-112 अन्तिम आराधना काल में यदि भावशल्य की शुद्धि नहीं की जाय, तो वह शल्य आत्मा का बड़ा अहित करता है । फलत: आत्मा को बोधि दुर्लभ हो जाती है और उसे दीर्घकाल तक संसार भ्रमण करना पड़ता है । अतएव आत्मार्थी पुरुष गारव का त्याग कर भवलता के मूल मिथ्यादर्शन, मायाशल्य और निदानशल्य की शुद्धि करते हैं । 85. आनुपूर्वी से आलोचना जं पुव्वं तं पुव्वं जहाणुपुब्बि जहक्कम्मं सव्वं । आलोइज्ज सुविहिओ कमकालविहि अभिदंतो ॥ . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 प्र. 136] . - मरणसमाधि प्रकीर्णक 105 . सुविहित पुरुष (श्रेष्ठ आचारवाले) को क्रम और कालविधि का भेदन नहीं करते हुए, लगे हुए दोषों की क्रमश: आलोचना करनी चाहिए। जो दोष पहले लगा हो उसकी आलोचना पहले और बाद में लगे दोषों की आलोचना बाद में करें । इसतरह आनुपूर्वी से आलोचना करनी चाहिए। 86. अनालोचक, अनाराधक लज्जाए गारवेण य, जे नाऽऽलोयंति गुरुसगासम्मि । धम्मं तं पि सुयसमिद्धा न हु ते आराहगा हुंति ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 136] - मरणसमाधिप्रकीर्णक - 103. जो लज्जावश अथवा गर्व के कारण गुरु के समीप अपने दोषों की आलोचना नहीं करते, वे श्रुत से अतिशय समृद्ध होते हुए भी आराधक नहीं 87. ज्ञान बिन चारित्र नहीं एसा जिणाण आणा, नऽत्थि चरित्तं विणा नाणं । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 77 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 137] मरणसमाधि - 138 ज्ञान के बिना चारित्र (आचरण) नहीं होता, ऐसी जनाज्ञा है । 88. ज्ञानयुक्त आचरण नाणसहियं चरितं । 89. - चारित्र ज्ञानपूर्वक होता है । अन्योन्याश्रित नाणेण विणा करणं, न होइ नाणंऽपि करणहीणं तु । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 137] मरणसमाधि - 137 ज्ञानरहित किया और क्रिया रहित ज्ञान भी नहीं होता । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 137] मरणसमाधि - 138 90. वही अनशन श्रेष्ठ सो नाम अणसण तवो, जेण मणोऽमंगलं न चिंतेइ । जेण न इंदियहाणी, जेण य जोगा न हायंति ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 137] मरणसमाधि - 134 वह अनशन तप श्रेष्ठ है, जिससे कि मन अमंगल न सोचे । इन्द्रियों की हानि न हो और नित्य प्रति की योगधर्म की क्रियाओं में भी विघ्न न आएँ । - 91. बहुश्रुत - दर्शन चन्द्रवत् किं ? इत्तो लट्ठयरं, अच्छेरयरं व सुन्दरतरं वा । चंदमिव सव्वलोगा, बहुस्सुयमुहं पलोएंति ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 137] मरणसमाधि - 144 - इससे बढ़कर मनोहर सुन्दर और आश्चर्यकारक क्या होगा ? कि लोग बहुश्रुत के मुख को चन्द्रदर्शन की तरह देखते रहते हैं । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 78 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92. दुःखक्षय किससे ? है । 93. नाणेण य करणेण य, दोहि वि दुक्खखयं होइ । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 137] मरणसमाधि 147 ज्ञान और चारित्र- इन दोनों की साधना से ही दुःख का क्षय होता — स्वाध्याय, परम तप नवि अस्थि नऽवि य होहि । सज्झाय समं तवोकम्मं ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 137 ] एवं [भाग 7 पृ. 1144] बृहत्कल्पभाष्य 1169 स्वाध्याय के समान अन्य कोई तप न अतीत में कभी वर्तमान में कहीं है; और न ही भविष्य में कभी होगा । 94. फिर भी आराधक - - STR हुआ, एवं उवट्ठियस्सवि आलोए उ विशुद्धभावस्स । जं किंचि वि विस्सरियं सहसक्कारेण वा चुक्कं ॥ आराहओ तहवि सो गारवपरिकुंचणामय विहूणो । जिणदेसियस्स धीरो सद्दहगो मुत्तिमग्गस्स ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 137] मरणसमाधिप्रकीर्णक 121-122 विशुद्ध भावपूर्वक आलोचना के लिए उपस्थित व्यक्ति आलोचना करते हुए यदि स्मरण शक्ति की कमजोरी के कारण अथवा जल्दबाजी में किसी दोष की आलोचना करना भूल जाय, फिर भी माया, मद एवं गारव से रहित वह धैर्यशाली पुरुष आराधक ही है और वह जिनोपदिष्ट मुक्ति मार्ग का श्रद्धावान् ही माना जाएगा । 95. ज्ञान-शिक्षण - - न नाणं सुसिक्खियव्वं, नरेण लद्धूण दुल्लहं बोहिं । . अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस खण्ड-6• 79 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 137] - मरणसमाधि 139 दुर्लभ-बोधि प्राप्त करके मनुष्य को अच्छी तरह ज्ञान सीखना चाहिए। 96. कषाय विजय उपाय कोहं खमाइ माणं, मद्दवया अज्जवेण मायं च । संतोसेण व लोह, निज्जिण चत्तारि वि कसाए ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 138] - मरणसमाधि प्रकीर्णक 189 क्रोध को क्षमा से, मान को मृदुता से, माया को ऋजुता से और लोभ को सन्तोष से जीतें । इसप्रकार चारों कषायों को जीतना चाहिए । 97. न सुख, न दुःख को दुक्ख पाविज्जा ? कस्सय दुक्खेहिं विम्मओ हुज्जा। को व न लभिज्ज मुक्खं ? रागद्दोसा जइ न हुज्जा ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 139] __- मरणसमाधि प्रकीर्णक 139 यदि रागद्वेष नहीं हो तो संसार में न कोई दु:खी होगा और न कोई सुख पाकर ही विस्मित होगा, बल्कि सभी मुक्त हो जाएँगे । 98. अहितकर्ता, रागद्वेष नवि तं कुणइ अमित्तो सटुवि य विराहिओ समत्थोवि। जं दो वि अनिग्महिआ, करंति रागो य दोसो य ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 139] - मरणसमाधि प्रकीर्णक 198 समर्थ शत्रु का भी कितना ही विरोध क्यों न किया जाय, फिर भी वह आत्मा का उतना अहित नहीं करता जितना कि वश में नहीं किए हुए राग-द्वेष करते हैं। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 80 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 99. त्रिविध-क्षमापना रागेण व दोसेण व अहवा अवायन्नुणा पडिनिवेसेणं । जो मे किंचि वि भणिओ तमहं तिविहेण खामेमि ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 139] - मरणसमाधि प्रकीर्णक 214. राग-द्वेष, अकृतज्ञता अथवा आग्रहवश मैंने जो कुछ भी कहा है, उसके लिए मैं मन-वचन और काया से सभी से क्षमा चाहता हूँ । 100. जिन-वचन में अप्रमत्त जिणवयणम्मि गुणागर ! खणमवि मा काहिसि पमायं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 139] - मरणसमाधि प्रकीर्णक - 205 हे गुणसागर ! तू जिनवचन में क्षणभर का भी प्रमाद मत कर । 101. अकेला ही चतुर्गति प्रवास इक्को जायइ मरइ, इक्को अणुहवइ दुक्कय विवागं । इक्को अणुसरइ जीओ, जरमरण चउग्गइ गुविलं ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष. [भाग 6 पृ. 140] - मरणसमाधि प्रकीर्णक 243 जीव अकेला ही जन्ममरण करता है, अकेला ही दुष्कृत-विपाक का अनुभव करता है और अकेला ही जन्ममरण रूप गहन चतुर्गति में परिभ्रमण करता है। 102. ऐहिक सुख से अतृप्ति न हु सक्को तिप्पेउं, जीवो संसारिय सुहेहिं । - - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 140] - मरणसमाधि प्रकीर्णक 250 .. सांसारिक सुखों से जीव तृप्त नहीं हो सकता। 103. श्रद्धा से आचरण जेण विरागो जायइ, तं तं सव्वाऽऽयरेण करणिज्जं । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 81 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 141] - मरणसमाधि प्रकीर्णक 296 एवं महाप्रत्याख्यान 106 जिस किसी भी क्रिया से वैराग्य की जागृति होती हो, उसका पूर्ण श्रद्धा के साथ आचरण करना चाहिए । 104. धैर्य से मृत्यु धीरेण वि मरियव्वं, काउरिसेणऽवि अवस्समरियव्वं । तम्हा अवस्समरेण, वरं खु धीरत्तेण मरिउं ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 142] - आतुर प्रत्याख्यान 64 .. धीर पुरुष को भी एकदिन अवश्य मरना है और कायर को भी। जब दोनों को ही मरना है तो अच्छा है कि धीरता (शान्त-भाव) से ही मरा जाय। 105. ममत्त्व-त्याग छिंद ममत्तं सुविहिय ! जइ इच्छसि मुच्चिउ दुहाणं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 144]. - मरणसमाधिप्रकीर्णक 405 | हे सुविहित ! यदि तू दु:खों से मुक्त होना चाहता है, तो ममत्त्व को दूर कर । 106. सर्वत्र अकेला ही अकेला इक्को करेइ कम्म, फलमवि तस्सेक्कओ समणुहवइ । इक्को जायइ मरड़ य, परलोयं इक्कओ जाइ ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 148] - मरणसमाधिप्रकीर्णक - 586 आत्मा अकेला जन्म लेता है, अकेला मरता है, अकेला ही कर्म करता है, उसका फल भी अकेला ही अनुभव करता है और परलोक में भी । अकेला ही जाता है। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 82 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 107. अकेला दुःख-भोक्ता सयणस्स य मज्झगओ, रोगाभिहओ किलिस्सइ इहगो। सयणोऽविय से रोगं, न विरिंचइ नेव नासेइ ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 148] - मरणसमाधिप्रकीर्णक 584 इस संसार में रोग से पीड़ित जीव स्वजनों के बीच रहा हुआ अकेला ही क्लेश पाता है, किन्तु स्वजनवर्ग भी उसके रोग को न तो दूर कर सकते हैं और न ही समाप्त । 108. कोई रक्षक नहीं पुत्ता-मित्ता य पिया, सयणो बंधवजणो अ अत्थो य। न समत्था ताएउं, मरणा सिंदावि देवगणा ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 148] - मरणसमाधिप्रकीर्णक 583 माता-पिता, पुत्र, मित्र, स्वजन-बंधुजन और धन-ये सब व्यक्ति की रक्षा करने में समर्थ नहीं हैं और मरने पर देवगण भी उसे अपनी आशीष से बचा नहीं सकते। 109. आत्म-चिन्तन अन्नं इमं सरीरं अन्नोऽहं बंधवाऽवि मे अन्ने ! . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 148] - - मरणसमाधिप्रकीर्णक 589 यह शरीर अन्य है, मैं अन्य हूँ और ये बन्धुजन भी अन्य हैं । 110. परमपद के निकट कौन ? जह जह दोसोवरमो, जह जह विसएसु होइ वेरग्गं । तह-तह वियाणाहि, आसन्नं से पयं परमं ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 149] - मरणसमाधिप्रकीर्णक - 632. अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6, 83 % Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधक जैसे-जैसे द्वेष से दूर हटता जाता है और जैसे-जैसे उसे विषयों के प्रति वैराग्य होता जाता है, त्यों-त्यों वह मोक्ष के अधिकाधिक निकट पहुँचता जाता है। 111. पाप-जहर - न हु पावं हवइ हियं, विसं जहा जीवियऽत्थिस्स । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 149] - मरणसमाधिप्रकीर्णक 614 जैसे जीवितार्थी के लिए जहर हितकर नहीं होता, वैसे ही कल्याणार्थी के लिए पाप हितकर नहीं है। 112. ज्ञान-लगाम हुंति गुणकारगाई, सुयरज्जूहिं धणियं नियमियाइं । नियगाणि इंदियाइं, जइणो तुरगा इव सुंदता ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 149] - मरणसमाधिप्रकीर्णक 623 ज्ञान की लगाम से नियन्त्रित होने पर अपनी इन्द्रियाँ भी वैसे ही संयमित हो जाती हैं । जैसे-लगाम से नियन्त्रित होने पर तेज दौड़नेवाला घोड़ा । 113. अनर्थ-मूल अत्थोमूलं अणत्थाणं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 149] - मरणसमाधिप्रकीर्णक - 703 अर्थ अनर्थों का मूल है। 114. विचित्र मानव जाति माणुसजाई बहु विचित्ता। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 150] - मरणसमाधि प्रकीर्णक - 641 मानव-जाति बहुत विचित्र हैं। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6.84 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 115. दुःखोपशमन में असमर्थ नऽवि माया नऽविय पिया, न पुत्तदारानचेव बंधुजणो । न वि य धणं न वि धन्नं, दुक्खमुइन्नं उवसमेंति ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 150] .- मरणसमाधिप्रकीर्णक 646 इस संसार में माता-पिता, पुत्र, स्त्री, बंधुजन और धनधान्य भी जीव के उदय में आए हुए दु:ख का उपशमन नहीं कर सकते । 116. अत्राण-अशरण अम्मा पियरो भाया, भज्ज पुत्ता सरीर अत्थो य । भवसागरम्मि घोरे, न हुँति ताणं च सरणं च ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 150] - मरणसमाधिप्रकीर्णक 645 इस घोर संसार-सागर में माता, पिता, भाई, पत्नी, पुत्र, शरीर और धन-इनमें से कोई भी जीव को त्राण और शरण नहीं दे सकते । 117. किसे प्रयोजन नहीं ? जस्स न छुहा न तण्हा, न य सी उण्हं न दुक्खमुक्किटुं। न य असुइयं सरीरं, तस्सऽसणाईसु किं कज्जं ? - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 150] - मरणसमाधिप्रकीर्णक - 655 जिसकी भूख-तृष्णा मिट गई है, जिसे उत्कृष्ट दु:ख नहीं है, जिसकी सर्दी-गर्मी समाप्त हो चुकी है और जिसका शरीर अपवित्र नहीं रहा है, उसे भोजन-स्नानादि से क्या प्रयोजन ? अर्थात् कोई प्रयोजन नहीं । 118. वैर-विस्मृति अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैर-परित्यागः । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 181] एवं [भाग 6 पृ. 1460] - पातंजलयोगदर्शन 2/35 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 85 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा की पूर्णसाधना होने पर साधक के निकटस्थ प्राणियों में परस्पर वैर भाव नहीं रहता । 119. ज्ञान, परममित्र सज्ज्ञानं परमं मित्रं । - सद्ज्ञान श्रेष्ठ मित्र है । 120. अज्ञान, महाशत्रु अज्ञानं परमो रिपुः । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 191] हारिभद्रीय टीका 26 अज्ञान महाशत्रु है । 121. संतोष, श्रेष्ठ सुख संतोषः परमं सौख्यं । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 191 ] हारिभद्रीय टीका 26 - संतोष श्रेष्ठ सुख है 1 122. आकाङ्क्षा, महादुःख श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 191] हारिभद्रीय टीका 26 आकाङ्क्षा दुःखमुत्तमम् । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 191 ] हारिभद्रीय टीका 26 आकाङ्क्षा (महत्त्वाकांक्षा) महादु:ख है । 123. मूर्ख, परदोष - परायण किं एत्तो कट्टयरं जं मूढो खाणुगंमि अप्फिडिओ । खाणुस्स तस्स रुसइण अप्पणो दुप्पओगस्स ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 192] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस खण्ड-6• 86 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आवश्यक नियुक्ति 9/8 मूर्ख व्यक्ति किसी ठूठ से टकराने पर उस ढूंठ पर ही क्रोधित होता है, किन्तु अपनी दूषित प्रवृत्ति पर क्रोध नहीं करता । 124. कामान्ध-परिणाम ब्रह्मालूनशिरोहरिदृशिसस्क् व्यालुप्त शिश्नोहरः । सूर्योऽप्युल्लिखितोऽनलोऽप्यखिलभुक्सोमः कलंकांकितः॥ स्वरनाथोऽपि विसंस्थूलः खलु वपुः संस्थैर्यस्थैः कृतः । सन्मार्ग स्खलनाद् भवन्ति विपदः प्रायः प्रभूणामपि ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 193] - अन्ययोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिका सटीक कामान्ध होकर ब्रह्माजी ने अपना शिर कटवाया, विष्णु नेत्र-रोगी बने, महादेवजी का शिरच्छेदन हुआ, सूर्य छीला गया, अग्नि सर्वभक्षी बना, चन्द्रमा सकलंक बना तथा इन्द्र का शरीर सहस्र भाग युक्त बना । सच है सन्मार्ग से पतित हो जाने पर चाहे कितने ही समर्थ व्यक्ति क्यों न हो, वे प्राय: विपद्ग्रस्त हो ही जाते हैं। 125. तृष्णा का करिश्मा तृष्णे ! देवि ! विडम्बनेयमखिलालोकस्य युष्मत्कृता। . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 193] - अन्ययोग व्यवच्छेद द्वात्रिंशिका सटीक हे तृष्णादेवी ! यह विडम्बना ही है कि तुमने इस सम्पूर्ण लोक को अपने अधीन कर लिया है। 126. श्रावक-स्वरूप श्रद्धालुतां श्राति पदार्थचिन्तनाद्, धनानि पात्रेषु वपत्यनारतम् । किरत्यपुण्यानि सुसाधु सेवना, दद्यापि तं श्रावकमाहुरज्जसा ॥ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 87 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 219) - श्राद्धविधि, 3/72 पृ. धर्मसंग्रह 2021 'श्रा' अर्थात् श्रद्धा-जो तत्त्वार्थ चिन्तन द्वारा श्रद्धालुता को सुदृढ़ करता है । 'व' अर्थात् विवेक-जो निरंतर सत्पात्रों में धन रूप बीज बोता है 'क' अर्थात् क्रिया-जो सुसाधु की सेवा करके पाप-धूलि को दूर फेंकता रहता है, अत: उसे उत्तम पुरुषोंने 'श्रावक' कहा है। . 127. दुःख-भोक्ता कौन ? गब्भाओ गब्भं, जम्माओ जम्मं, माराओ मारं, णरगाओ णरगं चंडे थद्धे चवले पणियाविभवइ । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 243] - सूत्रकृतांग 2/2/25 जाति-कुल आदि का अभिमान करनेवाला, चपल एवं रौद्र परिणामी व्यक्ति एक गर्भ से दूसरे गर्भ को, एक जन्म से दूसरे जन्म को, एक मरण से दूसरे मरण को और एक नरक से दूसरे नरक में दु:खों का भोक्ता बनता 128. समय चूकि पुनि का पछताने ! इय दुल्लह लंभं माणुसत्तणं, पाविउण जो जीवो ।' न कुणइ पारत्तहियं, सो सोयइ संकमणकाले ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 248] . - आवश्यकसूत्र 836 जो जीव दुर्लभता से प्राप्त इस मानवता को पाकर इस जन्म में परहित या पारलौकिक धर्म नहीं करता, उसे मृत्यु के समय पछताना पड़ता 129. कायर कौन ? तं तह दुल्लह लंभं, विज्जुलया चंचलं माणुसत्तं । लभ्रूण जो पमायइ, सो कापुरिसो न सप्पुरिसो ॥ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 88 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 248] आवश्यक नियुक्ति 840 को प्राप्त बिजली की चमक के समान चंचल दुर्लभ मनुष्यत्व करके भी जो व्यक्ति प्रमाद का सेवन करता है, वह कायर पुरुष है, न कि सत्पुरुष । 130. मातृ - गौरव उपाध्यायान् दशाचार्यः, आचार्याणां शतं पिता । सहस्त्रं तु पितुर्माता, गौरवेणातिरिच्यते ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 251] - मनुस्मृति 2145 * दस अध्यापकों से एक आचार्य महान् हैं, सौ आचार्यों से बढ़कर एक पिता और हजार पिताओं से एक माता महान् हैं । - 131. माया - मृषा त्याज्य अणुमायं पि मेहावी, मायामोसं विवज्जए । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 254] दशवैकालिक - 5/2/49 आत्मविद् साधक अणुमात्र भी माया - मृषा ( दंभ और असत्य) 1 का सेवन न करे । 132. माया से सरलता माया विजएणं उज्जुभावं जणय । -- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 255] उत्तराध्ययन 29/69 माया को जीत लेने से ऋजुता ( सरलभाव ) प्राप्त होती है । 133. मिथ्यात्व - स्वरूप अदेवे देवबुद्धि र्या, गुरुधीरगुरौ च या । अधर्मे धर्मबुद्धिश्च मिथ्यात्वं तद्विपर्ययात् ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 274] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड- 6 • 89 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्र 2/3 जिसमें देवों के गुण न हो, उसमें देवत्व बुद्धि, गुरु के गुण. न हो, उसमें गुरुत्व बुद्धि और अधर्म में धर्मबुद्धि रखना मिथ्यात्व है । सम्यक्त्व से विपरीत होने के कारण यह 'मिथ्यात्व' कहलाता है । 134. समता से मुक्ति आ-संबरो अ सेयंबरो अ बुद्धो य अहव अन्नो वा । समभावभाविअप्पा, लहेइ मुक्खं न संदेहो ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 276] सम्बोधसत्तरि - 2 व्यक्ति चाहे दिगम्बर हों या श्वेताम्बर हो, बौद्ध हो या अन्य बौद्धेतर क्यों न हो, जबतक उसमें समताभाव की प्राप्ति नहीं होती तबतक मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती । समता भाव प्राप्त होते ही अवश्य मोक्ष प्राप्त होता है। इसमें कोई सन्देह नहीं । AC 135. सूर्य छिपे नहीं, बादल छाये सुट्रुवि मेहसमुदये, होड़ पहा चंदसूराणं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 277] - नंदीसूत्र 75 घने मेघावरणों के भीतर भी चन्द्र-सूर्य की प्रभा कुछ-न-कुछ प्रकाशमान रहती ही है । 136. मिथ्याचार से दूर बाह्येन्द्रियाणि संयम्य, यः आस्ते मनसा स्मरन् । इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा, मिथ्याचारः स उच्यते ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 278] भगवद्गीता - 3/6 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड- 6 • 90 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे अर्जुन ! वे व्यक्ति मिथ्याचारी दंभी कहे गए हैं, जो बाह्य रूप से इन्द्रियों का दमन कर संयम का दिखावा करते हैं और मन से इन्द्रिय-विषयभोगों का स्मरण करते हैं। ऐसे मूढ़ बुद्धि व्यक्ति इन्द्रियों के ज्ञान में विमूढ़ हैं । इन्द्रियाँ ऐसे व्यक्ति को ही विषयों की ओर आसक्त कर सकती हैं । अत: इस प्रकार के मिथ्याचार से दूर रहना ही सच्चे संयमी का लक्षण है । 137. परमोत्कृष्ट योगबीज जिनेषु कुशलचित्तं तन्नमस्कार एव च । प्रणमादि च संशुद्धं; योगबीजमनुत्तमम् ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 283] योगदृष्टिसमुच्चय 23 ( द्वा. 21 द्वा. ) अर्हन्तों के प्रति शुभभावमय चित्त; उन्हें नमस्कार तथा मानसिक, वाचिक और कायिक शुद्धिपूर्ण नमन आदि भक्ति भावमय प्रवृत्ति परमोत्कृष्ट योगबीज हैं । - 138. मूर्ख कौन ? • शाठ्येन मित्रं कलुषेण धर्मं, परावमानेन समृद्धिभावम् । सुखेन विद्यां परुषेण नारीं, वाञ्छन्ति ये नूनमपंडितास्ते ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 285] नराभरण 6 धूर्तता से मित्रता, कलुषता से धर्म, दूसरे के अपमान से सम्पत्ति, सुख से विद्या और कठोरता से नारी को, जो प्राप्त करना चाहते हैं; वे मूर्ख हैं । 139. जैसा संग वैसा रंग - जो जारिसेण मित्तीं, करेइ अचिरेण [ सो ] तारिसो होइ । कुसुमेहिं सह वसन्ता, तिलावि तग्गंधिया हुंति ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 285] आवश्यक बृहद्वृत्ति 3 अध्ययन जो जैसी मित्रता करता है वह शीघ्र ही वैसा ही हो जाता है । जैसे फूलों के साथ रहने पर तिल भी उसके समान गंधवाले हो जाते हैं । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 91 - Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140. जाना है एकदिन चइत्ताणं इमं देहं, गन्तव्वमवसस्स मे । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 294] - उत्तराध्ययन - 1946 इस शरीर को छोड़कर एकदिन मुझे अवश्य जाना है । 141. दुःख भाजन शरीर दुक्ख केसाण भायणं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 294] - उत्तराध्ययन - 1942 यह शरीर दु:खों और क्लेशों का भाजन है । 142. अशाश्वत-निवास असासया वासमिणं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 294) - उत्तराध्ययन - 1912 यह शरीर आत्मा का अशाश्वत निवासस्थान है । 143. क्षणभर भी आनंद नहीं ! माणुसत्ते असारम्मि, वाहि-रोगाण आलए । जरा-मरण घत्थम्मि, खणं पि न रमामहं ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 294] - उत्तराध्ययन - 1944 यह मनुष्य-शरीर असार है, व्याधि और रोगों का घर हैं तथा जरा व मृत्यु से ग्रस्त हैं । अत: इसमें मुझे एक क्षण भी आनन्द नहीं मिल रहा है। 144. पाथेय बिन दुःखी अद्धाणं जो महंतं तु, अप्पाहेओ पवज्जई । गच्छन्तो सो दुही होई, छुआ तण्हाइ पीडिओ ॥ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 92 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 294] - उत्तराध्ययन 1948 जो पथिक जीवन की इस लम्बी यात्रा में बिना पाथेय लिए लम्बे मार्ग पर चल देता है, वह आगे जाता हुआ भूख और प्यास से पीड़ित होकर अत्यन्त दु:खी होता है। 145. भोग-परिणाम, दुःखद अम्मतायए भोगा, भुत्ता विसफलोवमा । पच्छा कडुयविवागा, अणुबंध दुहावहा ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 294] - उत्तराध्ययन 1902 हे माता-पिता ! मैंने भोग भोग लिए हैं । ये भोगे हुए भोग विषफल के समान हैं, अन्त में कटुफल देनेवाले हैं और निरन्तर दुःखों को लानेवाले हैं। 146. दुःखमय संसार अहो दुक्खो हु संसारो । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 294] - उत्तराध्ययन - 1945 निश्चय ही यह संसार चारों ओर से दु:ख ही दु:ख से भरा है । 147. परिणाम दुःखद जह किंपाग फलाणं, परिणामो ण सुन्दरो । एवं भुत्ताण भोगाणं, परिणामो न सुंदरो ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 294] - उत्तराध्ययन - 1947 ____जैसे किंपाकवृक्ष के फलों का अन्तिम परिणाम सुन्दर नहीं होता, वैसे ही भोगे हुए भोगों का परिणाम भी सुन्दर नहीं होता । 148. दुःख ही दुःख जम्म दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसंति जंतुणो ॥ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 93 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 294] उत्तराध्ययन 19/15 1 जन्म दु:ख रूप है, बुढ़ापा, रोग और मृत्यु भी दुःख रूप है । अरे ! इस संसार में चारों ओर दुःख ही दुःख है । जहाँ प्राणी निरन्तर क्लेश पाते रहते हैं । BEDO - 149. शरीर कैसा ? इमं सरीरं अणिच्चं, असुइं असुइसंभवं । EXE श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 294] उत्तराध्ययन 19/12 यह शरीर अनित्य है, अपवित्र है, और अपवित्र वस्तुओं से ही यह उत्पन्न हुआ है । 150. पानी केरा बुलबुला असासए सरीरम्मि, रखं नोवलभामहं । पच्छा पुरा व चइयव्वे, फेण बुब्बुय-सन्निभे ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 294] उत्तराध्ययन 1913 यह शरीर पानी के बुलबुले के समान क्षणभंगुर है और पहले या पीछे कभी भी इसे छोड़ना ही होगा । मेरी इस अशाश्वत शरीर के प्रति तनिक भी आसक्ति नहीं है । 151. निशिभोजन - त्याग दुष्कर S चउवि वि आहारे, राईभोयणं वज्जणा । सन्निही संचओ, चेव वज्जेयव्वो सुदुक्करं || श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 295] उत्तराध्ययन 19 /31 अन्न आदि चतुर्विध आहार का रात्रि में सेवन नहीं करना चाहिए तथा दूसरे दिन के लिए भी रात्रि में खाद्य पदार्थों का संग्रह करना निषिद्ध हैं । अतः रात्रिभोजन का त्याग वास्तव में बड़ा दुष्कर है । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 94 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152. श्रमणत्व दुष्कर जहा तुलाए तोलेउं, दुक्करं मंदरोगिरि । तहा निहुअ नीसंकं, दुक्करं समणत्तणं ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 295] - उत्तराध्ययन 19/42 जैसे-मेरु-पर्वत को तराजू से तोलना बहुत कठिन कार्य है, वैसे ही निश्चल और नि:शंक होकर श्रमणत्व का पालन करना कठिन है । 153. दमन दुस्तर जहा भुयाहि तरिउं, दुक्करं रयणायरो । तहा अणुवसन्नेणं, दुक्करं दमसायरो ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 295] - उत्तराध्ययन 19/43 ... जैसे-भुजाओं से समुद्र को तैरना अतिकठिन है, वैसे ही अनुपशान्त व्यक्ति के लिए इन्द्रिय-दमन रूपी समुद्र को पार करना अतिकठिन है। 154. श्रमणत्व, अग्निपानवत् जहा अग्गिसिहादित्ता, पाउं होइ सुदुक्करं । तहा दुक्करं करेउं जे, तारुण समणंत्तणं ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 295] - उत्तराध्ययन 19/40 जैसे-प्रज्ज्वलित अग्नि-शिखा का पान करना अति दुष्कर है, वैसे ही युवावस्था में श्रमण-धर्म का पालन करना अतिकठिन है । 155. श्रमणत्व, महान् गुरुतरभार जावज्जीवमविस्सामो, गुणाणं तु महब्भरो । गुरुओ लोहभाव, जो पुत्ता होइ दुव्वहो ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 295] - उत्तराध्ययन 19/37 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 95 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस श्रमण-चर्या में जीवनभर कहीं विश्राम नहीं है । भारी लोहमार की तरह सदा गुणों का महान् गुरुतर भार उठाना बहुत ही मुश्किल है । 156. निर्दोष वस्तु अतिदुष्कर अणवज्जेसणिज्जस्स गिण्हणा अविदुक्करं । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 295] उत्तराध्ययन 1928 प्रदत्त वस्तु को भी गवेषणापूर्वक और निर्दोष ही ग्रहण करना अति - - दुर्लभ है । 157. अहिंसा दुष्कर पाणाइवायविरइ, जावज्जीवाय दुक्करं । उत्तराध्ययन 19 /26 जीवनभर प्राणियों की हिंसा नहीं करना, बहुत ही कठिन कार्य है । - 158. श्रमणत्व दुष्कर श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 295] सामण्णं पुत्त दुच्चरं । - चबाना है । - उत्तराध्ययन श्रमणधर्म का आचरण अत्यन्त दुष्कर है । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 295 ] 19/25 - 159. लोहे के चने चबाना जवा लोहमया चेव, चावेयव्वा सुदुक्करं । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 295] उत्तराध्ययन 19/39 श्रमण जीवन का पालन करना मोम के दाँतों से लोहे के चने 160. आत्मोद्धार हेतु उद्गार जहा गेहे पलितम्मि, तस्स गेहस्स जो पहू । सारभंडाणि नीणेइ, असारं अवउज्झइ ॥ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 96 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं लोए पलित्तंमि, जराए मरणेण य । अप्पाणं तारइस्सामि, तुब्भेहिं अणुमन्निओ ॥ - उत्तराध्ययन 19/23-24 जैसे घरमें आग लग जाने पर गृहपति मूल्यवान् - सारभूत वस्तुओं को बाहर निकाल लाता है और मूल्यहीन वस्तुओं को वहीं छोड़ देता है, वैसे ही जरा और मृत्यु की अग्नि से प्रज्ज्वलित इस संसार में से मैं भी सारभूत अपनी आत्मा को बाहर निकाल लूँगा अर्थात् उद्धार करूँगा । 161. संयम दुष्कर जहा दुक्ख भारे जे, होइ वायस्स कुत्थलो । तहा दुक्खं करेडं जे, कीवेण समणत्तणं ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 295] उत्तराध्ययन 1941 जैसे - कपड़े के थैले को हवा से भरना कठिन है, वैसे ही कायर व्यक्ति के लिए श्रमण-धर्म का पालन करना भी कठिन कार्य है । 162. सहस्त्र गुणधारक भिक्षु श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 295] गुणाणं तु सहस्साइं धारेयव्वाइं भिक्खुणा । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 295] - उत्तराध्ययन 19/25 भिक्षु को हजारों गुण धारण करने होते हैं । कठिन है । 163. अतिकठिन क्या ? - सव्वारंभ परिच्चाओ, निम्ममत्तं सुदुक्करं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 295] उत्तराध्ययन 1930 सभी हिंसात्मक प्रवृत्तियों और ममत्त्व का त्याग करना अत्यन्त अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 97 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164. संयम, बालूमोदक बालुयाकवले चेव, निरस्साए उ संजमे । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 295] - उत्तराध्ययन 19/38 . संयम, बालू-रेती के कौर की तरह नीरस है, स्वाद रहित है। 165. शत्रु-मित्र में समता समया सव्वभूएसु सत्तुमित्तसु वा जगे। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 295] - उत्तराध्ययन - 19/26 साधु, जगत् के शत्रु अथवा मित्र सभी जीवों के प्रति समभाव रखते हैं। 166. हितकारी सत्य भासियव्वं हियं सच्चं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 295] - उत्तराध्ययन 19/27 सदा हितकारी सत्य बोले । 167. अदत्त-त्याग दंतसोहणमाइस्स, अदत्तस्स विवज्जणं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 295] - उत्तराध्ययन 19/27 और तो क्या ? साधक बिना किसी की अनुमति के दाँत साफ करने के लिए एक तिनका भी नहीं लेता । 168. ब्रह्मचर्य अतिकठिन दुक्खं बंभव्वयं घोरं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 295] - उत्तराध्ययन - 19/33 घोर ब्रह्मचर्य को धारण करना अतिकठिन है। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 98 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 169. संयम - साधना, समुद्र तैरना बाहाहिं सागरो चेव तरियव्वो गुणोयहि । S उत्तराध्ययन 19/36 ज्ञानादि गुणों के सागर-संयम को पार पाने का कार्य भुजाओं से श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 295] । समुद्र तैरने जैसा दुष्कर है। 170. तपाचरण, असिधारावत् असिधारागमणं चेव, दुक्करं चरिडं तवो । - उत्तराध्ययन 19 /37 तपाचरण करना तलवार की धार पर चलने जैसा दुष्कर है । 171. सुखी कौन ? अद्धाणं जो महंतं तु, सपाओ पवज्जई । गच्छन्तो सो सही होइ, छुआ-तण्हा विवज्जिओ । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 295] श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 295] MOTON उत्तराध्ययन 19 /21 जो पथिक लम्बी यात्रा के पथपर अपने साथ पाथेय लेकर चलता है; वह आगे जाता हुआ भूख और प्यास से किञ्चित् भी पीड़ित न होकर अत्यन्त सुखी होता है । 172. चारित्र दुष्कर अहीवेगन्त दिट्ठिए, चरिते पुत्त ! दुच्चरे । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 295] उत्तराध्ययन 1938 जैसे - सर्प एकान्त दृष्टि से चलता है, वैसे ही एकान्त दृष्टि से चारित्र धर्म का पालन करना बहुत ही कठिन कार्य है । 173. ब्रह्मचर्य दुष्करतम उग्गं महव्वयं बंभं धारेयव्वं सुदुक्करं । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड- 6 • 99 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 25] - उत्तराध्ययन 19/29 उग्र ब्रह्मचर्य महाव्रत को धारण करना अतिकठिन कार्य है । 174. धर्मी, सुखी एवं धम्मपि काउणं, जो गच्छइ परं भवं । गच्छन्तो से सुही होइ, अप्पकम्मे अवेयणे ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 295] - उत्तराध्ययन - 19/22 जो मनुष्य यहाँ भली भाँति धर्म की आराधना करके परलोक जाता है; वह वहाँ अल्पकर्मी तथा पीडारहित होकर अत्यन्त सुखी होता है। . 175. अधर्मी, दुःखी एवं धम्मं अकाऊण, जो गच्छइ परं भवं । गच्छन्तो से दुही होइ, वाहीरोगेहिं पीडिओ ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 2951 - उत्तराध्ययन - 19/20 जो मनुष्य बिना धर्माचरण किए परलोक में जाता है, वह वहाँ अनेकानेक रोग और व्याधियों (कष्टों) से पीड़ित होकर अत्यन्त दु:खी होता है। 176. अनन्त वेदनामय संसार सरीरामाणसा चेव वेयणाओ अणंतसो । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 296] - उत्तराध्ययन 19/46 इस संसार में शारीरिक और मानसिक अनन्त वेदनाएँ हैं । 177. तृष्णा इहलोगे निप्पिवासस्स, नऽत्थि किंचिवि दुक्करं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 296] - उत्तराध्ययन 19/44 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 100 . Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस संसार में जिसकी तृष्णा बुझ्न चुकी है, अभिलाषा-इच्छा शान्त हो गई है, उसके लिए कुछ भी कठिन नहीं है । 178. पापात्मा की दुर्दशा दद्धो-पक्को अ अवसो, पावकम्मेहिं पाविओ । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 297] - उत्तराध्ययन 19/58 यह पापात्मा पाप-कर्मों द्वारा आग से जलायी गयी, पकायी गयी और दु:ख झोलने के लिए विवश की गयी । 179. जीव-दुर्दशा कप्पिओ फालिओ छिन्नो, उक्कित्तो अ अणेगसो ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 297] - उत्तराध्ययन - 19/63 यह आत्मा अनेकबार कैंचियों से काटी गयी है, फाड़ी गयी व छेदी गयी है और इसकी चमड़ी भी उधेड़ी गई है। 180. नर्क वेदना-विभीषिका महब्भयाओ भीमाओ, नरएसु दुहवेयणा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 297] - उत्तराध्ययन 19/03 नरकों में दुःख-वेदनाएँ महान् भयंकर और भीषण होती हैं । 181. नारकीय वेदना अनंत जारिसा माणुसे लोए तथा दीसंति वेयणा । . एतो अणंतगुणिया, नरएसु दुक्खवेयणा ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 297] - उत्तराध्ययन - 1974 मनुष्यलोक में जो वेदनाएँ नजर आ रही हैं; नरकों में उनसे अनन्तगुणी अधिक दु:ख-वेदनाएँ हैं । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 101 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182. पक्षी-परिचर्या परिकम्मं को कुणइ, अरण्णे मीगपक्खिणं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 299] - उत्तराध्ययन - 1907 जंगलों में रहनेवाले पशु व पक्षियों की परिचर्या-चिकित्सा कौन करता है ? 183. निन्दा-अवज्ञा-वर्जन नो हीलए नो विय खिसइज्जा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 299-1174] - उत्तराध्ययन - 19/84 एवं दशवैकालिक - 9302 न तो किसी की निंदा करो और न अवज्ञा । 184. मुनि का वास्तविक स्वरूप निम्ममो निरहंकारो, निस्संगो चत्तगारवो। समो य सव्वभूएसु, तसेसु थावरेसु य ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 300] - उत्तराध्ययन - 1990 मुनि वही है, जिसने ममता को मार डाला है, अहंकार को चकनाचूर कर दिया है, सब प्रकार के परिग्रह का त्याग कर दिया है; बड़प्पन को छोड़ दिया है और जो जंगम तथा स्थावर प्राणी के प्रति समान भाव रखता है। 185. मुनि सबसे मुक्त गारवेसु कसायसुदंड-सल्ल भएसु य । णियतो हास-सोगाओ, अणियाओ अबंधणो ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 300] - उत्तराध्ययन 19192 मुनि गर्व, कषाय, दण्ड, शल्य, भय, हास्य और शोक से निवृत्त तथा निदान और बंधन से मुक्त होता है । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 102 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186. सर्प - केंचुलीवत् ममत्त्व - त्याग ममत्तं छिंदइ ताहे, महानागुव्व कंचुयं । ― उत्तराध्ययन 1986 आत्म-साधक ममत्त्व के बन्धन को वैसे ही तोड़ फैंकता है । जैसे सर्प शरीर पर आई हुई केंचुली को उतार फेंकता है । 187. मुनि वही लाभालाभे सुहे - दुक्खे, जीविए मरणे तहा । समो निंदापसंसासु, तहा माणावमाणओ ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 300] जो लाभ - अलाभ, सुख-दु:ख, जीवन-मरण, निंदा - प्रशंसा और मान-अपमान में समभाव रखता है, वही वस्तुतः मुनि है । 188. साधु की कसौटी, समता श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 300] उत्तराध्ययन 1991 अणिस्सिओ इहलोए, परलोए अणिस्सिओ । वासीचन्दण कप्पो अ, असणे अणसणे तहा ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 300] - उत्तराध्ययन 1992 साधु इसलोक और परलोक में निरपेक्ष भावसे रहे । वसुले से काटे जाने पर अथवा चन्दन लगाये जाने पर, भोजन मिलने पर या न मिलने पर हर परिस्थिति में वह समभाव से रहे । 189. श्रमण, आत्मानुशासी अज्झष्पज्झाण जागेहिं, पसत्थदमसासणे । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 300] उत्तराध्ययन- 19/93 संयमी साधक अध्यात्म तथा ध्यान-योग से आत्मा का दमन एवं अनुशासन करनेवाला होता है । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 103 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190. अनास्त्रवी श्रमण अप्पसत्थेहिं दारेहिं, सव्वओ पिहियासवो । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 300] - उत्तराध्ययन 1993 मुनि कर्म-आगमन के सभी अप्रशस्त द्वारों को सब ओर से बन्द कर अनास्रवी बन जाता है। 191. दुःखवर्धक क्या ? वियाणिया दुक्खविवद्धणं धणं । - - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 301] - उत्तराध्ययन 1989 धन दु:खवर्धक है। 192. भयावह क्या ? ममत्तबंधं च महब्भयावहं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 301] - उत्तराध्ययन - 1989 ममत्त्व का बन्धन अत्यन्त भयावह है । 193. धर्म-धुरा सुहावहं धम्मधुरं अणुत्तरं, धारेह निव्वाण गुणावहं महं। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 301] - उत्तराध्ययन 19/09 जो सुखावह और निर्वाण के गुणों को देनेवाली है, ऐसी अनुत्तर महान् धर्म-धुरा को धारण करो । 194. उत्तम चरित्र तवप्पहाणं चरियं च उत्तमं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 301] - उत्तराध्ययन 1998 तपोमूलक चारित्र ही श्रेष्ठ चारित्र है। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 104 - Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 195. अन्योन्याश्रित क्या ? ज सम्मत्तं पासह, तं मोणं पासह । जं मोणं पासह, तं सम्मतं पासह ॥ - जो सम्यक्त्व को देखता है, वह मुनित्व को देखता है । जो मुनित्व को देखता है, वह सम्यक्त्व को देखता है । 196. समत्वदर्शी पंतं लूहं सेवंति वीरा सम्मत्तदंसिणो । सेवन करते हैं । 197. मौन श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 309] एवं [भाग 7 पृ. 737] आचारांग 12/6/99 1//5/3/155 समत्वदर्शी वीर साधक रुखे-सूखे नीरस आहार का समतापूर्वक श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 309] आचारांग 1/5/3/155 - मुणी मोणं समायाय धुणे कम्मसरीरगं । - - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 309] एवं [भाग 7 पृ. 737] आचारांग 12/6/99 मुनि मौन ( संयम अथवा ज्ञान ) को ग्रहण कर कर्मरूप शरीर को ‘धुन डालता है अर्थात् आत्मा से दूर कर देता है । 198. मुनि कौन ? — मन्यते यो जगत्तत्त्वं स मुनिः परिकीर्तितः । सम्यक्त्वमेव मौनं, मौनं सम्यक्त्वमेव च ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 309] ज्ञानसार 13/1 जो जगत् के स्वरूप का ज्ञाता है, उसे मुनि कहा गया है । अत: सम्यक्त्व ही श्रमणत्व है और श्रमणत्व ही सम्यक्त्व है । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 105 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 199. सर्वश्रेष्ठ मौन सुलभं वागनुच्चारं मौनमेकेन्द्रियेष्वपि । पुद्गलेषु अप्रवृत्तिस्तु योगिनां मौनमुत्तमम् ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 310] - ज्ञानसार 13/1 वाणी का अनुच्चार रूप मौन एकेन्द्रिय जीवों में भी आसानी से प्राप्त हो सकता है, लेकिन पुद्गलों में मन-वचन, और कावा की कोई प्रवृत्ति न हो; यही योगी पुरुषों का सर्वश्रेष्ठ मौन है । 200. क्रिया, ज्ञानमयी ज्योतिर्मयी व दीपस्य क्रिया सर्वाऽपि चिन्मयी। यस्यानन्यस्वभावस्य तस्य मौनमनुत्तरम् ॥ __ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 311] - ज्ञानसार 1318 जैसे दीपक की समस्त क्रियाएँ (ज्योति का ऊँचा-नीचा होना, वक्र होना और कम ज्यादा होना) प्रकाशमय होती हैं, वैसे ही आत्मा की सभी क्रियाएँ ज्ञानमयी होती हैं । उस अनन्य स्वभाववाले मुनि का मौन अनुत्तर होता है। 201. कर्मक्षय से मोक्ष कृत्स्नकर्मक्षयो मुक्तिः । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 316] - द्वात्रिंशत् द्वात्रिंशिका 3118 समग्र कर्मों का क्षय हो जाने से मोक्ष प्राप्त होता है । 202. निर्लोभता-फल मुत्तीएणं अकिंचणत्तं जणयइ । __ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 318] - उत्तराध्ययन 29/47 निर्लोभता से अकिंचनभाव (परिग्रह रहित) की प्राप्ति होती है । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 106 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 203. सत्य से सिद्धि सव्वा उ मंत जोगा सिज्झति धम्म अत्थकामा य । सच्चेण परिग्गहिया, रोगा सोगा य नस्संति ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 326] धर्मसंग्रह अधिकार 2, श्लोक 26 टीका - - सत्य के प्रभाव से सभी मन्त्र, योग, धर्म, अर्थ और काम सिद्ध हो जाते हैं और सारे रोग - शोक भी नष्ट होते हैं । 204. सत्य सर्वस्व सच्चं जसस्समूलं, सच्चं विस्सास कारणं परमं । सच्चं सग्गद्दारं, सच्चं सिद्धीइ सोपाणं ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 326] धर्मसंग्रह 2/59 सत्य यश का मूल कारण है, सत्य विश्वास का मुख्य कारण है, सत्य स्वर्ग का द्वार है और सत्य सिद्धि का सोपान है । 205. सत्य ही भगवान् - तं सच्चं भगवं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 327] - प्रश्नव्याकरण 2/7//24 सत्य ही भगवान् है । 206. सत्य, प्रकाशक सच्चं ...... पभासकं भवति सव्वभावाण । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 327 ] प्रश्नव्याकरण 2/7/24 सत्य-समस्त भावों-विषयों का प्रकाश करनेवाला है । 207. सत्य ही सारभूत - सच्चं लोगम्मि सारभूयं । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6• 107 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 327] प्रश्नव्याकरण 2/7//24 'सत्य' ही लोक में सारभूत तत्त्व है । - 208. सत्य, सौम्य - तेजस्वी सच्चं.....सोमतरं चंदमंडलाओ, दित्ततरं सूरमंडलाओ । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 327] - प्रश्नव्याकरण 2/7//24 सत्य, चन्द्रमण्डल से भी अधिक सौम्य और सूर्यमण्डल से भी अधिक तेजस्वी है । 209. कैसा सत्य नहीं बोले ? सच्चं पि य संजमस्स उवरोहकारकं किंचि वि न वत्तव्वं । - प्रश्नव्याकरण 2/7/24 सत्य भी यदि संयम का घातक हो तो, नहीं बोलना चाहिए । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 327] 210. असत्य के समकक्ष क्या ? अप्पणो थवणा, परेसु निंदा । - प्रश्नव्याकरण 2/7/24 अपनी प्रशंसा और दूसरों की निंदा भी असत्य के ही समकक्ष है श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 327] 211. सत्य - चमत्कार - - सच्चेण य तत्ततेल्ल तउलोह सीसगाई छिवंति, धरेंति ण य उज्झति मणुस्सा । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 327] प्रश्नव्याकरण 2/7/224 लोहे सत्यनिष्ठ मनुष्य सत्य के प्रभाव से उबलते हुए तेल, कथीर, और सीसे को छू लेते हैं, उन्हें हथेली पर रख लेते हैं, फिर भी जलते नहीं हैं । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6• 108 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212. सत्य-प्रभाव सच्चेण य उदगसंभमम्मि वि ण बुज्झइ ण य मरंति थाहं ते लहंति । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 327] - - प्रश्नव्याकरण - 20/24 सत्य के प्रभाव से जल का उपद्रव होने पर भी मनुष्य न तो बहते हैं और न मरते ही हैं, अपितु पानी का थाह पा लेते हैं । 213. सत्यनिष्ठ सच्चेण य अगणि संभमम्मि वि ण डझंति उज्जुगा मणुस्सा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 327] - प्रश्नव्याकरण 24/24 यह सत्य का ही प्रभाव है कि जलती हुई अग्नि के भयंकर घेरे में पड़े हुए सरल सत्यवादी मनुष्य जलते नहीं हैं। 214. सत्य पर प्रतिष्ठित जेविय लोगम्मि अपरिसेसा मंत जोगा जया च विज्जा य। जंभगा य अत्थाणि य सत्थाणि य सिक्खाओ य ॥ आगमा य सव्वाइं पि ताई सच्चे पइट्टियाइं। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 327] - प्रश्नव्याकरण - 20/24 इस लोक में जितने भी मंत्र, योग, जप विद्याएँ, जुंभक, अस्त्रशस्त्र, शिक्षाएँ और आगम हैं; वे सभी सत्य पर अवस्थित हैं अर्थात् इन सबका मूलाधार सत्य है । 215. सत्य, लंगर सच्चेण महा समुद्दमज्झे वि चिटुंति न निमज्जेति मूढाणिया वि पोया । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 327] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 109 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरण- 2/7//24 के मध्य दिग्भ्रान्त सैनिकों के जहाज सत्य के प्रभाव - महासमुद्र से स्थिर रहते हैं, वे डूबते नहीं हैं । 216. सत्य वचन, सत्यं शिवं सुन्दरम् सच्चवयणं सुद्धं सुचियं सिवं सुजायं सुभासियं सुव्वयं सुकहियं । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 327] प्रश्नव्याकरण 2/7/24 यह सत्य वचन शुद्ध है, पवित्र है, शिव है, सुजात है, सुभाषित - है, उत्तम व्रतरूप है और कथित है । 217. सत्य कैसा है ? सच्चं लोगम्मि सारभूयं, गंभीरतरं महासमुद्दाओ, थिस्तरं मेरु पव्वयाओ, सोमतरं चंदमण्डलाओ, दित्ततरं सूरमंडलाओ, विमलतरं सरयनहतलाओ, सुरहितरं गंधमायणाओ । www श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 327] प्रश्नव्याकरण 2/7//24 सत्य ही लोक में सारभूत तत्त्व है, यह महासमुद्र से भी अधिक गंभीर है, मेरुपर्वत से अधिक सुदृढ है, चन्द्रमण्डल से अधिक सौम्य है, सूर्यमण्डल से अधिक प्रदीप्त है, शरदकालीन आकाशतल से अधिक निर्मल है और गन्धमादन पर्वत से भी अधिक सुरभित है । 218. सत्यव्रत - महिमा सच्चवयण तव णियम परिग्गहियं सुगइपहदेसगं य लोगुत्तमं वयमिणं । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड - 6 • 110 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 327] प्रश्नव्याकरण 2/7/24 यह सत्य व्रत तप और नियम से स्वीकृत है, सद्गति का पथ प्रदर्शक है और लोक में उत्तम है । 219. सत्य, सिद्धिदाता तं सच्चं मंतोसहि विज्जा साहणत्थं । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 327] प्रश्नव्याकरण - 2/7/24 सत्य के प्रभाव से मंत्रौषधि और विद्याओं की सिद्धि होती है । - 220. सत्यानुरागी ...................... सा देव्वाणि य देवयाओ करेंति सच्चवयणे रत्ताणं । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 327] प्रश्नव्याकरण 2/1/24 - सत्य से आकृष्ट होकर देवता भी सत्यानुरागी व्यक्तियों का सान्निध्य अर्थात् सेवा सहायता करते हैं । 221. साँच को आँच नहीं पव्वय कडकाहिं मुच्चंते ण मरंति सच्चेण य परिग्गहिया । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 327] - प्रश्नव्याकरण - 2/7//24 सत्यनिष्ठ मनुष्य को ऊँचे पर्वत-शिखर से नीचे फैंक दिया जाय तो - भी वह मरता नहीं है । 222. सत्यनिष्ठ, वन्दनीय-अर्चनीय • मणुगयाणं वंदणिज्जं अमरगणाण अच्चणिज्जं । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 327] प्रश्नव्याकरण 2/7/24 सत्यनिष्ठ व्यक्ति, मनुष्यों द्वारा वन्दनीय - स्तवनीय है। इतना ही नहीं, देवगणों के लिए भी वह अर्चनीय होता है । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 111 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मा 223. सत्यवादी निरापद वहबंधाभियोग वेरघोरेहिं पमुच्चंति य अमित्तमज्झाहि णियंति अणहाय सच्चवाई । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 327] - प्रश्नव्याकरण - 2024 सत्यवादी मनुष्य घोर वध, बन्धन, सबल प्रहार और वैर-विरोधियों के बीच में से भी मुक्त हो जाते हैं तथा शत्रुओं के चंगुल से बचकर बिना किसी क्षति के सकुशल बाहर निकल आते हैं । 224. सत्य-कवच असिपंजरगया समराओ वि णियंति अणहाय सच्चवाई। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 327] - प्रश्नव्याकरण 2/1/25 सत्यवादी मनुष्य चारों ओर से तलवारधारियों के पिंजरे में पड़े हुए भी अक्षत शरीर संग्राम से बाहर निकल आते हैं । 225. सत्य-अपूर्व महिमा सत्येनाग्निभवेच्छीतोऽगाधं दत्तेऽम्बु सत्यतः । । नासिश्छिनत्ति सत्येन, सत्याद् रज्जूयते फणी ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 328] - आगमीय सूक्तावली पृ. 34 सत्य से अग्नि शीतल हो जाती है, अथाह जल थाह दे देता है अर्थात् डूबोता नहीं है, तलवार काटती नहीं है और सर्प रस्सी के समान बन जाता है। 226. निर्णीत सत्य वचन समिक्खियं संजएण कालम्मि य वत्तव्वं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 328-330] - प्रश्नव्याकरण - 20/24 बुद्धि से सम्यक्तया निर्णीत सत्यवचन श्रमण को यथावसर ही बोलना चाहिए। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 112 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 227. प्रिय- सत्य बोलो प्रियं सत्यं वाक्यं हरति हृदयं कस्य न जने ? गिरं सत्यां लोकः प्रतिपदमिमामर्थयति च ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 328] प्रश्नव्याकरण - आगमीय सूक्तावली पृ. 34 प्रिय सत्यवचन किसके मन को आकर्षित नहीं करता ? अर्थात् सभी को मोहित करता है। यह लोक प्रचलित वाणी संसार में कदम-कदम पर सार्थक होती है । 228. सत्य से बढ़कर नहीं ! सत्याद् वाक्याद् व्रतमभिमतं नास्ति भुवने ? श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 328] प्रश्नाव्याकरण - आगमीय सूक्तावली पृ. 34 सत्यवचन से बढ़कर इस संसार में अन्य कोई व्रत नहीं है । - - 229. निर्ग्रन्थ कौन ? अणुवीयभासी से णिग्गंथे । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 330] आचारांग 2/3/5/2 जो विचारपूर्वक बोलता है, वही सच्चा निर्ग्रन्थ है । - - 230. बोलो, परपीड़ाकारक नहीं णय परस्स पीडाकरं सावज्जं । WYN श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 330] प्रश्नव्याकरण 2/7/25 पर को पीड़ा उत्पन्न करनेवाला पापयुक्त वचन मत बोलो । 231. क्रोधजेता निर्ग्रन्थ कोहं परिजाणइ से णिग्गंथे । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 330 ] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 113 - Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचारांग - 23 क्रोध का कुटु फल जानकर उसका परित्याग कर देता है, वह निर्ग्रन्थ है। 232. असत्य से दूषित वचन अणणुवीयि भासी से णिग्गंथे समावज्जिज्जा मोसं वयणाए । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 330] - आचारांग -23453 जो निर्ग्रन्थ विचारपूर्वक नहीं बोलता है, उसका वचन कभी-नकभी असत्य से दूषित हो सकता है । 233. हित-मित प्रिय ! सच्चं च हियं च मियं च गाहगं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 330] - प्रश्नव्याकरण - 24/25 ऐसा सत्यवचन बोलना चाहिए, जो हित-मित और ग्राह्य हो । 234. असत्य कब ? कोहाप्पत्ते-कोही तं समावइज्जा मोसं वयणाए । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 330] - आचारांग 28 क्रोध का प्रसंग आने पर क्रोधी व्यक्ति आवेशवश असत्य वचन बोल देता है। 35. क्रोधान्ध कुद्धो...........सच्चं सीलं विणयं हणेज्ज ।। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 331] - प्रश्नव्याकरण 2125 क्रोध में अंधा हुआ व्यक्ति सत्य, शील और विनय का नाश कर डालता है। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 114 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236. लोभी-लालची लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष (भाग 6 पृ. 331) - प्रश्नव्याकरण 24/25 मानव लोभी और लालची होकर झूठ बोलता है । 237. लोभी लोभपत्ते लोभी समावइज्जा मोसं वयणाए । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष (भाग 6 पृ. 331) - आचारांग 38 लोभ का प्रसंग आनेपर लोभी मनुष्य असत्य का आश्रय ले लेता 238. सच्चा निर्ग्रन्थ लोभं परिजाणइ से णिग्गंथे । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष (भाग 6 पृ. 331) - आचारांग- 2/31 . जो लोभ को अच्छीतरह परखना जानता है, वही सच्चा निर्ग्रन्थ साधक है। 239. अपमान का कारण क्या ? पर परिभव कारणं च हसं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष (भाग 6 पृ. 331) - प्रश्नव्याकरण 27/25 परिहास, दूसरों के अपमान-तिरस्कार का कारण होता है । 240. .लोभी झूठों का सरदार कारणसएसु लुद्धो भणेज्ज अलियं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष (भाग 6 पृ. 331) ___ - प्रश्नव्याकरण 2125 लोभी-लालची मनुष्य सैकडों प्रयोजनों से झूठ बोलता है । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 115 - Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 241. निर्लोभता लोभो न सेवियव्वो । 242. क्रोधी - लोभ मत करो । कुद्धो चंडिक्किओ मणूसो अलियं भणेज्ज । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष (भाग 6 पृ. 331) प्रश्नव्याकरण 2/1/25 श्री अभिधान राजेन्द्र कोष (भाग 6 पृ. 331) प्रश्नव्याकरण 2/1/25 क्रोधी मनुष्य रौद्रस्वभावी बन जाता है और ऐसी स्थिति में वह - मिथ्याभाषण करता है । 243. लोभी - लालची प्रवृत्ति करता है । लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं ईड्ढीए व सोक्खस्स व काण । प्रश्नव्याकरण 2/7/25 लोभी- लालची मनुष्य ऋद्धि-वैभव और सुख केलिए मिथ्याभाषण श्री अभिधान राजेन्द्र कोष (भाग 6 पृ. 331 ) .. 244. हास्य में निन्दा प्रिय - पर परिवायप्पियं च हासं । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष ( भाग 6 पृ. 331) प्रश्नव्याकरण 2/1/25 हास्य- परिहास में परकीय निन्दा - तिरस्कार ही प्रिय लगता है । 245. हास्य - वर्जन हास ण सेवियव्वं । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष ( भाग 6 पृ. 331) अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस खण्ड-6 • 116 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रश्नव्यकरण 2025 हँसी मत करो। 246. क्रोध-वर्जन कोहो ण सेवियव्वो। _ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष (भाग 6 पृ. 331) - प्रश्नव्याकरण 2/1/25 क्रोध मत करो। 247. हास्य परपीडाकारगं च हासं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष (भाग 6 पृ. 331) __ - प्रश्नव्याकरण 2125 हास्य परपीडाकारक होता है। 248. निम्रन्थ कौन ? भयं परियाणई से निग्गंथे । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष (भाग 6 पृ. 331) - आचारांग 23 जो साधक भय का दुष्फल जानकर उसका परित्याग कर देता है, वह निर्ग्रन्थ है। 249. वही निर्ग्रन्थ हासं परिजाणइ से निग्गंथे । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष (भाग 6 पृ. 331) __ - आचारांग 23 जो साधक हास्य के अनिष्ट परिणाम को जानकर उसका परित्याग कर देता है, वह निर्ग्रन्थ है। 250. भय से असत्य भयापत्ते भीरु समावइज्जा मोसं वयणाए । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 117 ) - Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष ( भाग 6 पृ. 331) आचारांग 2/3 भय का प्रसंग आनेपर भयभीत व्यक्ति भयाविष्ट होकर असत्य - बोल देता है । 251. हास्य से मिथ्याभाषण हासापत्ते हासी समावइज्जा मोसं वयणाए । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पं. 331] आचारांग - 2/3 हँसी-मजाक का प्रसंग आने पर हँसी करने वाला व्यक्ति हास्यवश झूठ बोल देता है। 252. त्रिविध-मूर्ख तिविहा मूढा पण्णता तं जहा - णाणमूढा, दंसणमूढा, चरित्तमूढा । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 337] स्थानांग - 3/4/203 मूर्ख तीन प्रकार के कहे गए हैं- ज्ञान से मूर्ख (ज्ञानहीन), दर्शन से मूर्ख (श्रद्धाहीन) और चारित्र से मूर्ख ( आचरणहीन ) । - 253. मृत्यु - मूल मरणस्य मूलं दुःखं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 337] उत्तराध्ययन सटीक - 32 अ. मृत्यु का मूल दुःख हैं । 254. अकल्प भी कल्प णाणातिकारणावेक्ख अकप्पसेवणा कप्पा | श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 340 ] निशीथ चूर्णि 92 ज्ञानादि की अपेक्षा से किया जानेवाला अकल्प सेवन भी कल्प है । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 118 - Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 255. दर्प, कल्प कब ? पमाया दप्पा भवति, अप्पमाया कप्पा भवति । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 340 ] निशीथ चूर्णि - 91 प्रमादभाव से किया जानेवाला अपवाद सेवन दर्प होता है और वही अप्रमादभाव से किया जानेपर कल्प - आचार हो जाता है । - 1 256. ज्ञान - प्रकाश णाणुज्जोया साधु । - - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 355] निशीथ भाष्य 225 बृहत्कल्प भाष्य 3453 साधु ज्ञान का प्रकाश लिए जीवन-यात्रा करता है । 257. श्रमण-क्रिया क्यों ? - - जा चिट्ठा सा सव्वा, संजमहेउं ति होती समणाणं । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 360] निशीथ भाष्य 264 श्रमणों की सभी चेष्टाएँ - क्रियाएँ संयम के हेतु होती हैं । - 258. दर्पिका-कल्पिका स्वरूप रागदोसाणुगया तु दप्पिया तु तदभावा । आराधणा उ कप्पे, विराधणा होति दप्पेणं ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 426] निशीथभाष्य - 363 बृह भाष्य 4943 राग-द्वेषपूर्वक की जानेवाली प्रतिसेवना (निषिद्ध आचरण) दर्पिका है और राग-द्वेष से रहित प्रतिसेवना (अपवाद - काल में परिस्थितिवश किया जानेवाला निषिद्ध आचरण) कल्पिका है । कल्पिका में संयम की आराधना है और दर्पिका में विराधना । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 119 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 259. अब्रह्मचर्य त्याज्य अबंभचरियं घोरं, पमायं दुराहिट्ठियं । नायरंति मुणी लोए, भेयाययण वज्जिणो ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 426] दशवैकालिक - 6/15 जो मुनि संयम-विघातक दोषों से दूर रहते हैं, वे लोक में रहते हुए भी प्रमाद का घर और असेव्य भयंकर अब्रह्मचर्य का कभी आचरण नहीं करते । 260. अब्रह्मचर्य, महादोषों का स्रोत मूलमेयमहम्मस्स महादोस समुस्सयं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 427] दशवैकालिक 6/16 अब्रह्मचर्य अधर्म का मूल और महादोषों का स्रोत स्थान है । - 261. मोक्ष एक एगे मोक्खे | - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 431] स्थानांग 1A आठ कर्मों के नाश की दृष्टि से मोक्ष एक है | 262. महान् अनर्थकर तपोधनानां पादेन स्पर्शनं महते अनर्थाय संपद्यते । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 438] द्वात्रिंशत् द्वात्रिंशिका सटीक 13/6 तपस्वियों को अपने पैर का स्पर्श हो जाना (पैर की ठोकर लगना) - भी महान् अनर्थकारक होता है । 263. संसार - मोक्ष - हेतु जे जत्तिया य हेउ भवस्स, ते चेव तत्तिया मोक्खे । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 120 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 439] - ओघनियुक्ति 53 जो और जितने हेतु संसार के हैं, वे और उतने ही हेतु मोक्ष के हैं। 264. चरित्र महान् चरणगुण विप्पहीणो, वुड्ढइ सुबहुपि जाणतो । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 442] - आवश्यकनियुक्ति 97 जो साधक चारित्र के गुणों से हीन है, वह बहुत से शास्त्र पढ़ लेने पर भी संसार-समुद्र में डूब जाता है । 265. ज्योतिहीन दीपक दीवसयसहस्स कोडी वि । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 442] - आवश्यकनियुक्ति - 98 . उन करोड़ों दीपकों से भी क्या लाभ है ? जिनमें ज्योति नहीं है ? 266. अन्धे को दीपक दिखाना सुबहुंपि सुयमहियं, किं काही चरणविप्पहाणस्स । अंधस्स जह पलित्ता, दीवसयसहस्स कोडिवि ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 442] - आवश्यकनियुक्ति.98 - शास्त्रों का बहुत सा अध्ययन भी चरित्रहीन के लिए किस काम का ? क्या करोड़ों दीपक जला देने पर भी अन्धे को कोई प्रकाश मिल सकता है ? 267. शास्त्र, ज्योति अप्पं पि सुयमहियं, पगासयं होइ चरणजुत्तस्स । एक्को वि जह पइवो स चक्खु अस्सो पयासेइ ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 443] - आवश्यकनियुक्ति 99 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 121 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्र का थोड़ा सा अध्ययन भी सच्चरित्र साधक के लिए प्रकाश देनेवाला होता है । जिसकी आँखें खुली हैं उसे एक दीपक भी काफी प्रकाश दे देता है। 268.. क्रियाहीन ज्ञान हय नाणं किया हीणं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 443] - आवश्यकनियुक्ति - 201 आचारहीन ज्ञान नष्ट हो जाता है । 269. ज्ञान, भारभूत जहा खरो चंदणभारवाही, भारस्स भागी न उ चंदणस्स । एवं खु नाणी चरणेण हीणो, नाणस्स भागी न उ सुग्गईए ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 443] - आवश्यकनियुक्ति - 100 जैसे चंदन का भार उठानेवाला गधा सिर्फ भार ढोनेवाला है, उसे चंदन की सुगंध का कोई पता नहीं चलता, इसीप्रकार चरित्रहीन ज्ञानी सिर्फ ज्ञान का भार ढोता है, उसे सद्गति प्राप्त नहीं होती। 270. ज्ञान-क्रिया, अन्ध-पंगुवत् हयनाणं कियाहीणं, हया अन्नाणओ किया । पासंतो पंगुलो दड्ढो, धावमाणो य अंधओ ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 443] - आवश्यकनियुक्ति - 201 आचारहीन ज्ञान नष्ट हो जाता है और ज्ञान-हीन आचार । जैसे वन में अग्नि लगने पर पंगु उसे देखता हुआ और अंधा दौड़ता हुआ भी आग से बच नहीं पाता, जलकर नष्ट हो जाता है । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 122 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 271. संयम, पापरोधक संजय गुति करो । - - संयम पापों का निरोध करता है । 272. त्रिवेणी सङ्गम तिहंपि समाओगे मोक्खो जिणसासणे भणिओ । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 444] आवश्यक नियुक्ति 103 ज्ञान-तप एवं संयम इन तीनों के समवाय से ही मोक्ष होता है । - यही जिनशासन का कथन है । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 444] आवश्यकनियुक्ति 103 273. ज्ञान, प्रकाशक नाणं पयासयं । - ज्ञान प्रकाश करनेवाला है । - 274. तप - विशुद्धि सोहओ तवो । प्राप्ति नहीं होती । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 444] आवश्यकनियुक्ति 103 - तप विशुद्धि करता है । 275. केवलज्ञान कब ? केवलियनाण लंभोऽनण्णत्थ खए कसायाणां । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 445] आवश्यकनियुक्ति 104 क्रोधादि कषायों को क्षय किए बिना केवलज्ञान (पूर्ण ज्ञान ) की - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 444] आवश्यक नियुक्ति 103 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 123 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 276. चारित्र, कर्मरोधक चरित्तेणं निगिण्हाई। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 448] - उत्तराध्ययन 28/35 आत्मा चारित्र से कर्म-द्वारों को रोकती है। 277. तप-संयम से कर्मक्षय खवित्ता पुव्व कम्माइं, संजमेण तवेण य । सव्वदुक्ख पहीणट्ठा, पक्कमति महेसिणो ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 448] - उत्तराध्ययन - 28/36 समस्त दु:खों से मुक्ति चाहनेवाले महर्षि संयम और तप के द्वारा अपने पूर्वसंचित कर्मों को क्षय कर परम सिद्धि को पाते हैं । 278. दर्शन से श्रद्धा सम्मत्तेण य सद्दहे। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 448] - उत्तराध्ययन - 28/35 आत्मा दर्शन से श्रद्धा करती है। 279. तप से शुद्धि तवेण परिसुज्झइ। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 448] - उत्तराध्ययन - 28/35 आत्मा तप से पूर्वकृत कर्मों का क्षय करके शुद्ध होती है । 280. मुक्ति -मार्ग नाणं च दंसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा । एस मग्गुत्ति पन्नत्तो, जिणेहिं वरदंसिहि ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 448] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 124 - Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन 28/2 सर्वज्ञ - सर्वदर्शी परमात्मा ने फरमाया है कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की आराधना ही मोक्ष मार्ग है । 281. आत्मा, ज्ञाता नाणेण जाणइ भावे | sayyom - उत्तराध्ययन 28/35 आत्मा ज्ञान से पदार्थों को जानती है । 282. मोह से जन्म-मरण मोहेण गब्धं मरणाइ एइ, एत्थ मोहे पुणो पुणो । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 456] आचारांग 1/5A/142 अज्ञानी मोह से बार-बार गर्भ में आता है, जन्म-मरणादि पाता है । इस जन्म-मरण की परम्परा में उसे बार-बार मोह (व्याकुलता ) उत्पन्न होता है । ― श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 448 ] - 283. अहं ब्रह्मास्मि शुद्धात्मद्रव्यमेवाहं, शुद्धज्ञानं गुणो मम । नान्योऽहं न ममान्ये, चेत्यहो मोहास्त्रमुल्बणम् ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 457 ] - - ज्ञानसार - 4/2 मैं शुद्ध आत्मद्रव्य हूँ और शुद्ध ज्ञान ' मेरा' स्थायी गुण है । मैं उससे अलग नहीं हूँ । उसके बिना अन्य कोई 'मैं' या 'मेरा' नहीं है । इस प्रकार की दृढ मान्यता ही मोह निकन्दन के लिए अतितीक्ष्ण शस्त्र है । 284. "मैं और मेरा" अहं ममेति मन्त्रोऽयं मोहस्य जगदान्ध्यकृत् । अयमेव हि न पूर्वः, प्रतिमंत्रोऽपि मोहजित् ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 457] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 125 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार - 4/1 'मैं' और 'मेरा' इस मोह-मन्त्र ने सारे जगत् को अन्धा बना रखा हैं | इसका विलोम - मन्त्र मोह मात्र को जीतने वाला प्रतिमन्त्र बनता है । 285. पाप-पंक से निर्लिप्त B यो न मुह्यति लग्नेषु, भावेष्वौदयिकादिषु । आकाशमिव पङ्केन, नाऽसौ पापेन लिप्यते ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 457] ज्ञानसार - 4/3 जो जीव लगे हुए औदयिकादि भावों में मोहमूढ नहीं होता है । जैसे कीचड़ से आकाश पोता नहीं जा सकता, वैसे ही वह पापों से लिप्त नहीं होता है । - 286. एकत्व भावना एगोsहं न त्थि मे कोइ, नाहमन्नस्स कस्सवि । एवं अदीणमणसो, अप्पाणमणुसासइ ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 457] संथारापोरसी 11 - मैं अकेला हूँ, न कोई मेरा है और न मैं किसीका हूँ । इसप्रकार अदीनभाव से अपनी आत्मा को अनुशासित करें । 287. अमूढ, अखिन्न पश्यन्नेव परं द्रव्यं नाटकं प्रतिनाटकम् । भवचक्र पुरस्थोऽपि, ना मूढः परिवर्धति ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 457] - ज्ञानसार 4/4 अमूढ़ पुरुष पुद्गल द्रव्य को देखते हुए और भव-चक्र के नाटक प्रति नाटक को देखते हुए भी खिन्न नहीं होता । 288. आत्मा स्फटिकवत् निर्मल स्फटिकस्येव सहजं रूपमात्मनः । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 126 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 458] ज्ञानसार 4/6 आत्मा का सहज स्वरूप निर्मल स्फटिक रत्न जैसा है । 289. मूढ़ चेता अमित्रं कुरुते मित्रं, मित्रं द्वेष्टि हिनस्ति च । कर्म चारभते दुष्टं, तमाहुर्मूढचेतसम् ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 459] - धर्मबिन्दु 214 महाभारत ( उद्योगपर्व 33/33) जो शत्रु को मित्र बनाता है, मित्र से द्वेष करता है, उसे हानि पहुँचाता है, बुरे कर्मों का आरम्भ करता है; उसे मूढ चेता कहते हैं । 290. मूढ, मगशैलिया पाषाण अर्थवन्त्युपपन्नानि, वाक्यानि गुणवन्ति च । नैव मूढो विजानाति, मुमूर्षुरिव भेषजम् ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 459] - धर्मबिन्दु 215 जैसे मरणासन्न व्यक्ति को औषधि का असर नहीं होता वैसे ही मूढ़ को सदुपदेश का कोई असर नहीं होता। 291. मूर्ख, शिलावत् । संप्राप्तः पण्डितः कृच्छू, प्रज्ञया प्रतिबुध्यते । मूढस्तु कृच्छ्रमासाद्य, शिलेवाम्भसि मज्जति ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 459] - धर्मबिन्दु 216 पंडितजन कष्ट पाकर भी बुद्धि से प्रतिबोध पा जाते हैं अर्थात् शिक्षा देने पर उसे ग्रहण कर लेते हैं, परन्तु मूर्ख कष्ट आ जाने पर शिला की भाँति जलप्रवाह में डूब जाता है । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 127 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 292. नकली ब्रह्मचारी अबंभयारी जे केइ, बंभयारिति हं वए । गद्दव्व गवां मज्झं, विस्सरं नयइ नदं ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 463] दशाश्रुतस्कन्ध 912 जो ब्रह्मचारी न होते हुए भी अपने आपको यह कहे कि "मैं ब्रह्मचारी हूँ", तो वह गायों के समूह के बीच गदर्भ की तरह विस्वर नाद करता है । 293. महामोह से कर्मबन्ध - - धंसे जो अभूएणं, अकम्पं अत्तकम्मुणा । अदुवा तुम मकासि त्ति महामोहं पकुव्व ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 463] दशाश्रुतस्कन्ध - 9/25 जो अपने किए हुए दुष्कर्म को दूसरे निर्दोष व्यक्ति पर डालकर उसे लांछित करता है कि ‘यह पाप तूने किया है' वह महामोह कर्म का बंध करता है । K 294. मिश्रभाषा से कर्मबन्ध आणमाणो परीसाए, सच्चमोसा ण भासए । अच्छीण डंडोल्लुरए, महामोहं कुव्वति ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 463] दशाश्रुतस्कन्ध 9/26 जो सही स्थिति को जानता हुआ भी सभा के बीच में अस्पष्ट एवं मिश्रभाषा (कुछ सच, कुछ झूठ ) का प्रयोग करता है, वह महामोह कर्म का बंध करता है । 295.. सम्पत्ति हरण से कर्मबन्ध - जं णिस्सितो उव्वहड़, जससाऽहि गमेण वा । तस्स लुब्भइ वित्तम्मि, महामोहं पकुव्वति ॥ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 128 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 463] - दशाश्रुतस्कन्ध - 945 जिसके आश्रय, परिचय तथा सहयोग से जीवन-यात्रा चलती हो, उसकी सम्पत्ति का अपहरण करनेवाला दुष्ट जन महामोह कर्म का बन्ध करता है। 296. परोपकारी की हत्या से महामोह बंध बहुजणस्स नेयारं, दीवं ताणं च पाणिणं । एयारिसं नरं हंता, महामोहं पकुव्वइ ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 463] - दशाश्रुतस्कन्ध 937 दु:ख सागर में डूबे हुए दु:खी मनुष्यों का जो द्वीप के समान सहारा होता है, जो बहुजन समाज का नेता हैं; ऐसे परोपकारी व्यक्ति की हत्या करनेवाला महामोह कर्म का बंध करता है । 297. गुण-वृद्धि नाणेणं दसणेणं च चरित्तेणं तवेण य । खंतीए, मुत्तीए, वड्ढमाणो भवाहि य ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 496] - उत्तराध्ययन - 22/26 ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, क्षमा और निर्लोभता की ओर सतत बढते रहें। 298. हिंसा, अश्रेयस्कर जइ मज्झ कारणा एए, हम्मति सुबहू जिया । न मे एयं तु निस्सेयं, परलोगे भविस्सई ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 496] - उत्तराध्ययन 22/19 यदि मेरे कारण से बहुत से जीवों का घात होता है, तो यह इस लोक और परलोक में मेरे लिए किञ्चित् भी श्रेयस्कर नहीं होगा। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 129 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 299. वेशमात्र से श्रमणत्व नहीं ! . गोवालो भंडवालो वा, जहा तद्दव्वऽणिस्सरो । एवं अणीसरो तंपि, सामन्नस्स भविस्ससि ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 498] - उत्तराध्ययन - 22/46 जिसप्रकार कोई गोपाल गौओं को चराने मात्र से उनका स्वामी नहीं बन सकता अथवा कोई (कोषाध्यक्ष) धन की रक्षा करने मात्र से ही उसका स्वामी नहीं हो सकता ठीक इसीतरह हे शिष्य ! तू भी केवल साधुवेश की रक्षा-मात्र से ही श्रामण्य का स्वामी नहीं बन सकेगा। 300. रात्रिभोजन-त्याग अत्थंगयम्मि आइच्चे, पुरत्थाय अणुग्गए । आहार मइयं सव्वं, मणसाऽवि ण पत्थए । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 510] - दशवकालिक - 8/28 संयमी आत्मा सूर्यास्त से लेकर पुन: सूर्योदय तक सब प्रकार के आहार की मन से भी इच्छा न करें । 301. रात्रिभोजन किसके समकक्ष ? रक्ती भवन्ति तोयानि, अन्नानि पिशितानि च ।। रात्रौ भोजनासक्तस्य, ग्रासे तन्मांसभक्षणात् ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 510] - धर्मसंग्रह 2/73 रात्रि भोजन में आसक्त व्यक्ति के ग्रास में किसी जीव के आ जाने से पानी रक्तवत् एवं अन्न माँसवत् हो जाता है। 302. सूर्यास्त सूतक मृते स्वजनं मात्रेऽपि सूतकं जायते किल । अस्तंगते दिवानाथे, भोजनं क्रियते कथम् ? ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 510] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-60 130 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेश प्रासाद 1 स्वजन के मरने पर भी सूतक होता है, तो फिर सूर्य के अस्त होने पर ( मर जाने पर) भोजन कैसे किया जाए ? 303. रात्रि - भोजन त्याज्य संति मे सुहमा पाणा, तसा अदुवा थावरा । जाई राओ अपासंतो, कहमेसणिअं चरे ? श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 510] दशवैकालिक 6/23 संसार में बहुत से त्रस और स्थावर प्राणी अत्यन्त सूक्ष्म होते हैं, वे रात्रि में दृष्टिगत नहीं होते तो फिर रात्रि में भोजन कैसे किया जा सकता है ? - - 304. रात्रि - भोजन-फल उलूक- काक- मार्जार-गृध - शम्बर शूकराः । अहि- वृश्चिक - गोधाश्च जायन्ते रात्रिभोजनात् ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 510] योगशास्त्र - 3/67 रात्रि भोजन करने से मनुष्य मरकर उल्लू, काक, बिल्ली, गीध, सम्बर, शूकर, सर्प, बिच्छू और गोह आदि अधम गिने जाने वाले तिर्यंचों के रूप में उत्पन्न होते हैं । sande - 305. वैज्ञानिक दृष्टि से वर्जित हन्नाभिपद्म संकोचश्चण्डरोचिरपायतः । अतो नक्तं न भोक्तव्यं सूक्ष्मजीवादनादपि ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 510] योगशास्त्र 3/60 सूर्यास्त हो जाने पर शरीर स्थित हृदय - कमल एवं नाभि-कमल सिकुड़ जाते हैं और उस भोजन के साथ सूक्ष्म जीव भी खाने में आ जाते हैं। इसलिए भी रात्रि भोजन नहीं करना चाहिए । - - अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6• 131 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 306. तीर्थ-यात्रा - फल एक भक्ताशनान्नित्यमग्निहोत्रफलं भवेत् । अनस्तभोजननित्यं; तीर्थयात्रा फलं लभेत् ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 510] स्कन्दपुराण- कपालमोचनस्तोत्र हमेशा एकबार भोजन करने से अग्निहोत्र का फल मिलता है और जो सूर्यास्त के पूर्व भोजन करते हैं, उन्हें हमेशा तीर्थयात्रा का फल मिलता है । — 307. रात्रि - वर्जित कार्य नैवा हुति र्न च स्नानं दानं वा विहितं रात्रौ भोजनं तु विशेषतः ॥ ? श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 510] योगशास्त्र 3/56 रात्रि में होम, स्नान, श्राद्ध, देवपूजन या दान करना उचित नहीं है, किन्तु भोजन तो विशेष रूप से निषिद्ध है 1 308. रात्रि - भोजन वर्जित - सव्वाहारं न भुंजंति, निग्गंथा राइ भोअणं । - न श्राद्धं देवतार्चनम् । " श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 510] दशवैकालिक 6/26 निर्ग्रथ मुनि, रात्रि के समय किसी भी प्रकार का आहार नहीं करते। 309. रोगोत्पत्ति - कारण णवहिं ठाणेहिं रोगुप्पत्ती सिया - अच्चासणाते अहितासणाते अतिणिद्दाए अतिजागरितेण उच्चार निरोहेण अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 132 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पासवण निरोहेण अद्धाण गमणेणं भोयण पडिकूलताए इंदियस्थ विकोवणयाते ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 579] - स्थानांग - 90/667 नौ कारणों से रोगों की उत्पत्ति होती हैं । जैसे - (१) अधिक बैठे रहने से या अधिक भोजन करने से । (२) अहितकर आसन से बैठने से या अहितकर भोजन करने से । (३) अति निद्रा से । (४) अति जागरण से। (५) मलवेग को रोकने से। (६) मूत्र के वेग को रोकने से । (७) अधिक भ्रमण (मार्ग गमन)से । ... (८) भोजन की प्रतिकूलता से । (९) अतिविषय से या कामविकार से । 310. कर्मण की गति न्यारी ! माता भूत्वा दुहिता, भगिनी भार्या च भवति संसारे । व्रजति च सुतः पितृत्वं, भ्रातृत्वं पुनः शत्रुतां चेव ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 594] - प्रशमरति 156 कर्मानुसार संसार में जीव पूर्वजन्म की माता, जन्मान्तर में बेटीबहन और पत्नी बनती है....और पुत्र मरकर पिता, भ्राता तथा शत्रु बनता है । इसप्रकार कर्म का चक्र चलता रहता है । 311. यथा आकृति तथा गुण यथा नेत्रे तथा शीलं, यथा नासा तथार्जवम् । यथा रूपं तथा वित्तं, यथाशीलं तथा गुणः ॥ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 133 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 595] - कल्पसुबोधिका सटीक श्लोक 2 व्यक्ति के जैसे नेत्र होते हैं वैसा ही उसका सदाचार होता है, जैसी नासिका होती है वैसी ही सरलता होती है। जैसा रूप सौन्दर्य होता है वैसा ही धन होता है और जैसा शील-सदाचार होता है, ठीक वैसे ही उसमें गुण होते हैं। 312. गर्जत सो वर्षत नहीं गर्जति शरदि न वर्षति, वर्षति वर्षासु निःस्वनो मेघः। नीचो वदति न कुरुते, न वदति साधु करोत्येव ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 697] . - कल्पसुबोधिका टीका - 1/5 नीतिद्विषष्टिका ( अनुबन्ध - 29) बादल शरदऋतु में केवल गरजता है, बरसता नहीं और वर्षाऋतु में बिना गरजे ही बरसता है । इसीतरह नीच व्यक्ति बोलता है, करता कुछ नहीं, परन्तु सज्जन पुरुष बोलता नहीं, किन्तु करता है । 313. थोथा चना बाजे घणा असारस्य पदार्थस्य, प्रायेणाडम्बरो महान् । न हि स्वर्णे ध्वनिस्ताद्दग, याद्दक कांस्ये प्रजायते ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 697] - कल्पसुबोधिका टीका 1/5 यशस्तिलक चंपू 1/35 नि:सार पदार्थ का प्राय: आडम्बर अधिक होता है । सोने की उतनी आवाज नहीं होती, जितनी आवाज काँसी के बर्तन में होती है । 314. हाथ कंगन को आरसी क्या ? 'मातुः पुरो मातुलवर्णनं तत् । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 697] - कल्पसुबोधिका 1/5 माता के सामने मामा का वर्णन करना वाणी का विलास है । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 134 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 315. जीवाजीवाधार अजीवा जीव पइट्ठिया, जीवा कम्म पइट्ठिया । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 714] - भगवतीसूत्र 1/6 जड़ पदार्थ जीव के आधार पर रहे हुए हैं और जीव (संसारी प्राणी) कर्म के आधार पर रहे हुए हैं। 316. न भूतो न भविष्यति णं एवं भूतं वा भव्वं वा भविस्सति वा, जं जीवा अजीवा भविस्संति, अजीवा वा जीवा भविस्संति । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 715] - स्थानांग - 100/704 न ऐसा कभी हुआ है, न होता है और न कभी होगा ही कि जो चेतन हैं वे कभी अचेतन-जड़ हो जाएँ और जो जड़-अचेतन हैं वे कभी चेतन हो जाएँ। 317. पुद्गल-स्वभाव सुरुवा पोग्गला दुरुवत्ताए परिणमंति । दुरुवा पोग्गला सुरुवत्ताए परिणमंति ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 721] - ज्ञाताधर्मकथा - 12 सुरुप पुद्गल (सुन्दर वस्तुएँ) कुरुपता में परिणत होते रहते हैं और असुन्दर वस्तुएँ सुरुपता में। 318. शीलसम्पन्न विनीत सुविसुद्धसीलजुत्तो पावइ कीत्तिं जसं च इहलोए । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 722-1181] - धर्मरत्न प्रकरण 1/8 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 135 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुविशुद्ध शील-सदाचार सम्पन्न विनीत व्यक्ति इस लोक में यश कीर्ति पाता है और सबका प्रिय बन जाता है एवं परलोक में भी सद्गति IT भागी बनता है । 319. लोक-स्वरूप अणते नितिए लोए, सासए न विणस्सइ । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 723] सूत्रकृतांग 11/46 यह लोक द्रव्य की अपेक्षा से अनंत, नित्य और शाश्वत है । इसका - कभी नाश नहीं होता । 320. कषाय चौकड़ी - वर्जन “उक्कसं जलणं णूमं, मज्झत्थं च विचिए । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 724] सूत्रकृतांग - 11/4/12 संयमरत साधक क्रोध - मान माया और लोभ का परित्याग करें । - 321. जन्म-मरण-चक्र माया मेति पिया मे, भगिणी भाया य पुत्तदारा मे । अत्थम्मि चेव गिद्धा, जम्ममरणाणि पावंति ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 725] आचारांग नियुक्ति 186 पू. 67 माता-पिता, भगिनी, भ्राता, पत्नी पुत्रादि एवं धन में जो आसक्त - - हैं, वे जन्म-मरण को प्राप्त करते हैं । 322. आज्ञारहित मुनि अणाणाए मुणिणो पडिलेहंति । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 727] आचारांग 12/2 वीतराग आज्ञा से बाहर मुनि विषयों की ओर ताकने लगते हैं । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6• 136 - Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 323. मोहावृत्त पुरुष मंदा मोहेण पाउडा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 727] - आचारांग - 12/2 मंदमति मनुष्य मोह से घिरे हुए होते हैं। 324. मुक्त कौन ? विमुत्ता हु ते जणा जे जणापारगामिणो । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 727] - आचारांग 1/2274 जो जन कामनाओं को पार कर गए हैं, वे निश्चय ही मुक्त हैं। 325. निष्काम साधक लोभमलोभेण दुगुंछमाणे लद्धे कामे नाभिगाहइ । . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 727] - आचारांग - 12274 . अलोभ से लोभ को तिरस्कृत करनेवाला साधक प्राप्त कामभोगों का भी सेवन नहीं करता। 326. न घर का न घाट का एत्थ मोहे पुणो पुणो सन्ना, नो हव्वाए नो पाराए । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 727] - आचारांग - 12203 बार-बार मोहग्रस्त होनेवाले व्यक्ति न इस पार आ सकते हैं और न ही उस पार जा सकते हैं। 327. ज्ञाता-द्रष्टा विणा वि लोभं नीक्खम एस अकम्मे जाण पासइ । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 727] - आचारांग - 12275 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 137 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिस साधक ने लोक-परलोक की बिना किसी कामना के निष्क्रमण किया है, प्रव्रज्या ग्रहण की है; वह अकर्म (बन्धन-मुक्त) होकर सब कुछ देखता है; जानता है अर्थात् ज्ञाता द्रष्टा हो जाता है । 328. अस्थिर साधक अणाणाए पुट्ठावि एगे नियटटंति । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 727] - आचारांग - 12/2/13 कुछ साधक संकट आने पर धर्मशास्त्र की अवज्ञा कर वापस घर में भी चले जाते हैं। 329. परिग्रह से अलिप्त जहेत्थ कुसले नोवलिंपिज्जासि । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 728] - आचारांग - 12216-12/501 आर्य मार्ग पर चलनेवाला कुशल व्यक्ति परिग्रह में लिप्त नहीं होता। 330. जीव, सुखप्रिय भूएहिं जाण पडिलेह सायं । - - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 729] . - आचारांग - 123 । प्रत्येक जीव को सुख/शाता प्रिय है, यह देखो और उसपर सूक्ष्मतापूर्वक विचार करो। 331. न कोई हीन, न कोई महान् णो हीणे णो अइरिते णो अपीहिए । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 729] - आचारांग 123 न तो कोई हीन है और न कोई महान् । इसलिए साधक उच्च गोत्र की स्पृहा न करें। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 138 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 332. ऊँच-नीच गोत्र में जन्म से असई उच्चगोए, से असई नीआगोए । . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 729] - आचारांग 1237 यह जीवात्मा अनेक बार उच्च गोत्र में और अनेक बार नीच गोत्र में जन्म ले चुकी है। 333. न हर्षित, न कुपित तम्हा पंडिए नो हरिसे नो कुप्पे । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 729] - आचारांग 1/23/07 साधक को उच्च या निम्न किसी भी परिस्थिति में न हर्षित होना चाहिए और न ही कुपित । 334. उपदेश जाइ मरणं परिण्णाय, चरे संकमणे दढे। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 731] - आचारांग 1/23 जन्म-मरण के स्वरूप को भली भाँति जानकर दृढ़तापूर्वक मोक्ष पथ पर बढ़ते रहें। 335. मन्दबुद्धि विवेकशून्य कुराई कम्माइं बाल पकुव्वमाणे तेण 'दुक्खेण संमूढं विप्परियासमुवेइ । .. - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 731-741] - आचारांग 12/4, 128, 1/5/6, 1/5n ___ मंद बुद्धिवाला क्रूर कर्म करता हुआ और उसी दु:ख से विवेक शून्य होकर अन्त में विपरीत दशा को प्राप्त होता है । 336. राग-द्वेषी, भवपार नहीं अपारंगमा एए नो य पारंगमित्तए । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 139 - Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 731] - आचारांग 123 जो राग-द्वेष को पार नहीं कर पाए हैं, वे संसार-सागर से पार नहीं हो सकते। 337. मृत्यु, मेहमान नत्थि कालस्सणागमो। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 731] - आचारांग 128 मृत्यु किसी भी समय आ सकती है। उसके लिए कोई भी क्षण निश्चित नहीं है। 338. शाश्वत सुखाकांक्षी इणमेव नावकंवंति जे जणा धुवचारिणो । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 731] ' - आचारांग 120/80 जो पुरुष शाश्वत सुख-केन्द्र मोक्ष की ओर गतिशील होते हैं, वे ऐसा विपर्यासपूर्ण (सुख के बदले दुःख पूर्ण) जीवन नहीं चाहते । 339. भवपार नहीं अणोहंतरा एए नो य ओहं तरित्तए । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 731] . - आचारांग 123 जो मनुष्य वासना के प्रवाह को नहीं तैर सकते हैं, वे संसार के प्रवाह को कभी नहीं तैर सकते। 340. मूढ़, सत्य-पथ में स्थित नहीं आयाणिज्जं च आयायतंमि ठाणे न चिट्ठइ । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 731] - आचारांग 123 मूढ पुरुष सत्य-मार्ग को प्राप्त करके भी उस स्थान में स्थित नहीं हो पाता। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 140 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 341. अज्ञ साधक वितहं पप्पऽखेयन्ने तम्मि ठाणम्मि चिट्ठइ । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 731] - आचारांग 1/23/80 ___ अज्ञानी साधक जब कभी असत्य विचारों को सुन लेता है तो वह उन्हीं में उलझ कर रह जाता है । 342. किनारे नहीं अतीरंगमा ए ए नोय तीरं गमित्तए । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 731] - आचारांग 12/3 इन्द्रिय जन्य काम-भोगों में जो डूबे हुए हैं, वे संसारसागर के तट पर नहीं पहुँच सकते । 343. लक्ष्मी जाने के मार्ग तंपि से एगया दायाया विभयंति अदत्तहारो वा अवहरंति रायाणो वा से विलुपंति, णस्सति वा से विणस्सति वा से अगार दाहेण वा से डज्झति । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 731] - आचारांग 123 जीवन में कभी एक समय ऐसा आता है कि परिग्रहासक्त व्यक्ति द्वारा संग्रहित संपत्ति में से दायाद-बेटे-पोते हिस्सा बँट लेते हैं, चोर चुरा लेते हैं, राजा उसे छीन लेते हैं या वह अन्य प्रकार (दुर्व्यसनादि) से नष्टविनष्ट हो जाती है या कभी गृह-दाह आदि से जलकर भस्म हो जाती है । 344. तत्त्वद्रष्टा उद्देसो पासगस्स नऽत्थि । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 732] - आचारांग 123/81 तत्त्वद्रष्टा को किसी के उपदेश की अपेक्षा नहीं होती है । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 141 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 345. देह-अशुचिता अंतो अंतो पूडू देहंतराणि पासति पूढो वि संवताई । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 733] - आचारांग 1215 मनुष्य इस शरीर के भीतर से भीतर अशुचिता देखता है और शरीर से झरते हुए अलग-अलग अशुचि स्रोतों (अन्तरों) को भी देखता है । पण्डित इसका चिन्तन करें। 346. वीर-प्रशस्ति एस वीरे पसंसिए, जे बद्धे पडिमोयए । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 733] - - आचारांग 12/503 वह वीर प्रशंसा पात्र होता है जो स्वयं को तथा दूसरों को बंधन मुक्त करवाता है। 347. काम, दुर्लंघ्य कामा दुरतिक्कमा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 733] - आचारांग 12/5/92 कामनाओं का पार पाना बड़ा कठिन है । 348. प्रतिकार जीवियं दुप्पडिबूहगं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 733] - आचारांग 12/5/02 नष्ट होते जीवन का कोई प्रतिकार नहीं है । 349. काम की मृगतृष्णा काम कामी खलु अयं पुरिसे, से सोयइ जुरइ तिप्पइ परितप्पइ । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 142 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 733] - आचारांग 12/502 जो पुरुष काम भोग की कामना रखता है किन्तु वह तृप्त नहीं हो सकती, इसलिए वह शोक करता है, शरीर से सूख जाता है, आँसू बहाता है; पीड़ा और पश्चात्ताप से दु:खी होता रहता है । 350. बाहर भीतर असार जहा अंतो तहा बाहि, जहा बाहिं तहा अंतो। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 733] - आचारांग 1/2/543 यह शरीर जैसा अन्दरमें असार है, वैसा ही बाहर में है। जैसा बाहर में असार है, वैसा ही अन्दर में असार है । 351. अजर-अमर मान्यता अमराइय महासट्ठी। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 734] - आचारांग 12/5 ___भोग और अर्थ में महान् श्रद्धा रखनेवाला व्यक्ति स्वयं को अमर तुल्य मानने लगता है। 352. परित्यक्त काम-भोग : से मइमं परिन्नाय मा य हु लालं पच्चासी । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 734] - आचारांग 121594 बुद्धिमान साधक लार चाटनेवाला न बने अर्थात् परित्यक्त भोगों की पुन: कामना न करे । 353. स्वयंकृत मकड़ी-जाल सएण विप्पमाएण पूढोवयं पकुव्वइ, जंसि मे पाणा पव्वहिता । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 143 - Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 735] - आचारांग 12/6 . मूर्ख मानव अपने अति प्रमाद के कारण जन्म-श्रृंखला का निर्माण करता है जहाँ पर प्राणी अत्यन्त दु:ख भोगते हैं । 354. स्वकृत व्यथा सएण दुक्खेण मुढे विप्परियासेइ । . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 735] - आचारांग 12/6 मूर्ख व्यक्ति स्वकृत व्यथा से ही विपरीत स्थिति प्राप्त करता है। 355. असत्कर्म त्याज्य पावकम्मं नेव कुज्जा न कारवेज्जा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 735] - आचारांग 12/686 पाप कर्म अर्थात् असत्कर्म न स्वयं करे, न दूसरों से करवाए। 356. ममत्त्व विजेता से हु दिटे पहे मुणी जस्स णत्थि ममाइयं । ' - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 736] - आचारांग 12/6 जिसके पास ममत्त्व-परिग्रह नहीं है वस्तुत: वही मुनि मोक्ष-मार्ग का द्रष्टा है। 357. वीर निर्विकल्प अविमणे वीरे तम्हा वीरे न रज्जइ । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 736] - आचारांग 12/6 वीर पुरुष निर्विकल्प होता है, इसलिए वह किसी में रस नहीं लेता है अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 144 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 358. ममत्त्व-त्याग जे ममाइयमई जहाइ से चयइ ममाइयं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 736] - आचारांग 12/608 जो ममत्त्व बुद्धि का त्याग करता है । वस्तुत: वही ममत्त्व का त्याग कर सकता है । वही मुनि यथार्थ में पथ का द्रष्टा है, जो किसी भी प्रकार का ममत्त्व भाव नहीं रखता है । 359. लोकैषणा-त्याग वंता लोगसन्नं, से मइमं परिक्कमेज्जासि । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 736] - आचारांग 12/6, 1/2/4 एवं 130 बुद्धिमान् पुरुष लोकैषणा को छोड़कर संयम में पुरुषार्थ करें । 360. वीरसाधक असहिष्णु णारतिं सहती वीरे, वीरे न सहइ रतिं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 736] - आचारांग 12/698 वीर साधक संयम के प्रति अरुचि को सहन नहीं करता और विषयों की अभिरुचि को भी सहन नहीं करता । 361. लोकरंजनार्थ धर्म-त्याग यथा चिन्तामणिं दत्ते, बठरो बदरीफलैः । इहा जहाति सद्धर्मं, तथैव जनरञ्जने ॥ . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 740] - ज्ञानसार - 232 जैसे कोई मूर्ख बेर के बदले में चिंतामणि रत्न बेच देता है, ठीक वैसे ही कोई मूर्ख लोकरंजन के लिए अमूल्य चिंतामणि रूप अपने धर्म को छोड़ देता है। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 145 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 362. विरले आत्मरत्नपारखी स्तोकाहि रत्नवणिजः स्तोकाश्च स्वात्मसाधका । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 740 ] ज्ञानसार 23/5 जैसे रत्न की परख करनेवाले जौहरी बहुत कम होते हैं वैसे ही आत्मोन्नति हेतु प्रयत्न करनेवालों की संख्या न्यून ही होती है । 363. राजहंसवत् महामुनि G लोकसंज्ञामहानद्यामनुश्रोतोऽनुगा न के । प्रतिश्रोतोऽनुगस्त्वेको, राजहंसो महामुनिः ॥ - ज्ञानसार 23/3 लोकसंज्ञा रूपी महानदी में लोकप्रवाह का अनुसरण करनेवाले भला कौन नहीं है ? प्रवाह - विरुद्ध चलनेवाले राजहंस के समान मात्र मुनीश्वर ही हैं। 364. ज्ञान का सार श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 740] नाणं संजमं सारं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 741] आचारांग नियुक्ति 245 पू. 132 ज्ञान का सार संयम है । 365. संयम से निर्वाण संजमसारं च निव्वाणं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 741] आचारांग नियुक्ति 245 पृ. 132 चारित्र से निर्वाण पद की प्राप्ति होती है । सारभूत 366. जीवन अस्थिर, जलबिन्दुवत् से पासति फुसियमिव कुसग्गे पणुन्नं निवइयं वाएरियं । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड- 6 • 146 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 741] - आचारांग 1/5M ज्ञानी पुरुष जीवन को कुश की नोक पर टिके हुए अस्थिर और वायु के झोंके से कम्पित होकर गिरे हुए जल-बिंदु की भाँति देखता है । 367. मुनि, सदा सुखी लोकसंज्ञोज्झितः साधुः परब्रह्मसमाधिमान् । सुखमास्ते गतद्रोह ममतामत्सरज्वरः ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 741] - ज्ञानसार 23/8 जिसका द्रोह, ममता और द्वेष रूपी ज्वर चला गया है तथा जो लोक संज्ञा से रहित परब्रह्म में समाधिस्थ हैं, ऐसे मुनि सदा-सर्वदा सुखी रहते हैं। 368. सकामी-निष्कामी गुरु से कामा, तओ से मारं ते, जओ से मारं ते तओ से दूरे, नेव से अंतो नेव दूरे। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 741] - आचारांग 1/5441 जिसकी कामनाएँ तीव्र होती हैं, वह मृत्यु से ग्रस्त होता है और जो मृत्यु से ग्रस्त होता है; वह शाश्वत सुख से दूर रहता है, परन्तु जो निष्काम होता है; वह न तो मृत्यु से जकड़ा होता है और न शाश्वत सुख से दूर । 369. सारभूत धर्म लोगस्स सार धम्मो । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 741] - आचारांग नियुक्ति 245 पृ. 132 समग्र विश्व में सारभूत तत्त्व एकमात्र धर्म है । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6• 147 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 370. सारभूत ज्ञान धम्मपि य नाणं सारियं विति । ___ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 741] - आचारांग नियुक्ति 245 पृ. 132 धर्म में भी सारभूत तत्त्व ज्ञान है । 371. मूर्ख-धारणा एत्थवि बाले परिपच्चमाणे रमति पावेहिं कम्मेहिं असरणे सरणंति मन्नमाणे । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 742] - आचारांग 1/50 मूर्ख दुःखों में पचता रहता है, फिर भी पाप करने में आनंद मानता है, अशरण को भी शरण मानता है। 372. मोह एत्थ मोहे पुणो पुणो। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 742] . - आचारांग 1/5M इस जन्म-मरण की परंपरा में मोह बार-बार आकर्षित करता रहता है। 373. रूपासक्ति-परिणाम एगे रूवेसु गिद्धे परिणिज्जमाणे एत्थ फासे पुणो पुणो। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 742] - आचारांग 1/5M जो मनुष्य रूपादि इन्द्रिय-विषयों में आसक्त हैं, वे विषयों में खिंचे जा रहे हैं और इस प्रवाह में बार-बार दुर्गति के दु:खों को भोगते रहते हैं । 374. कुशल कौन ? जे छेए सागारियं न सेवइ । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 148 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 742] - आचारांग 1/5M044 जो कुशल है, वह काम-भोग का सेवन नहीं करता । 375. संशय-परिज्ञान संसयं परिआणओ संसारे परिणाए भवइ । संसयं अपरियाणओ संसारे अपरिणाए भवइ ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 742] - आचारांग 1/54043 जिसे संशय का परिज्ञान हो जाता है, उसे संसार के स्वरूप का ज्ञान हो जाता है । जो संशय को नहीं जानता, वह संसार को भी नहीं जान पाता। 376. उठो, प्रमाद मत करो __ उट्ठिए नो पमायए। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 743] - आचारांग 1/52146 . जो कर्तव्य-पथ पर उठकर खड़ा हो चुका है, उसे पुन: प्रमाद नहीं करना चाहिए। 377. मनुष्य-रूचि पूढो छंदा इह माणवा। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 743] - आचारांग 1/52046 इस संसार में मनुष्य भिन्न-भिन्न विचारवाले हैं । 378. दुःख-सुख अपना जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 743] - आचारांग 12/4/82 एवं 120/68 प्रत्येक व्यक्ति का दु:ख-सुख अपना-अपना है । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 149 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 379. शक्ति-सदुपयोग नो निहणिज्ज वीरियं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 744] - आचारांग 1/53051 साधक को अपनी शक्ति कभी नहीं छुपाना चाहिए । 380. समभाव, धर्म समियाए धम्मे आयरिए पवेइए । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 744] - आचारांग 1/8/3/207 एवं 1/53451 आर्य महापुरुषों ने समभाव में धर्म कहा है। 381. संशयात्मा, समाधिस्थ नहीं ! वितिगिच्छं समावन्नेणं अप्पाणेणं नो लहइ समाहिं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 745] . - आचारांग 1/5/5061 संशयात्मा को कभी समाधि नहीं मिलती । 382. मिथ्यादृष्टि असमियंति मन्नमाणस्स समिआ वा असमिआ होइ उवहाए । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 747] - आचारांग 1/5/5 व्यवहार वास्तव में सम्यग् हो या असम्यग, किंतु असम्यक्त्व को माननेवाले के लिए माध्यस्थभाव के कारण वह मिथ्यात्व रूप ही होता है । 383. आत्मा, शाश्वत न जायते म्रियते वा कदाचित् नायं भूत्वा भविता न भूयः । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 150 - Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 747] - भगवद्गीता 2/20 यह आत्मा न जन्म लेता है, न मरता है । एकबार अस्तित्व में आ जाने के बाद उसका अस्तित्व फिर कभी समाप्त नहीं होता । 384. बालभाव बालभावे अप्पाणं नो उवदंसिज्जा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 747] - आचारांग 1/5/5 तुम अज्ञान दशा में अपने आपको प्रदर्शित मत करो । 385. सम्यग्दृष्टि समियंति मन्नमाण समिया वा असमिया वा समिया होइ । - - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 747] - आचारांग 1/5/5 सम्यग् दृष्टि आत्मा के लिए सत्य हो या असत्य, सभी सत्य रूप में ही परिणत हो जाया करते हैं । 386. तू ही तू ! तुमंसि नाम सच्चेव जं हन्तव्वं ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं अज्जावेयव्वं ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं परियावेयव्वं ति मनसि । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 747] - आचारांग 1/5/5064 .जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है । जिसे तू शासित करना चाहता है, वह तू ही है और जिसे तू परिताप देना चाहता है, वह भी तू ही है। (स्वरूप दृष्टि से सभी चैतन्य एक समान है । यह अद्वैतभाव ही अहिंसा का मूलाधार है ।) अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 151 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 387. ऋजु, प्रतिबुद्धजीवी अंजु चेय पडिबुद्धजीवी तम्हा ण हंता ण विघातए। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 747] - आचारांग 1/5/5 मुनि ऋजु (सरलात्मा) तथा प्रतिबुद्धजीवी होता है । इसलिए वह स्वयं हनन नहीं करता है और नहीं दूसरों से करवाता है । 388. श्रद्धाशील वीर णिट्ठियट्ठी वीरे आगमेण सया परक्कमे । . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 748] - आचारांग 1/5/6 निष्ठितार्थी (श्रद्धाशील) वीर पुरुष सदा आगम निर्दिष्ट आदेश - निर्देशानुसार पराक्रम करें। 389. आगमविद् आवटुं तु पेहाए एत्थ विरमिज्ज वियवी । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 748] - आचारांग 15/6 आगमविद् पुरुष संसार चक्र को देखकर विषय-भोगों से दूर रहें । 390. आदेश अनतिक्रमण निद्देसं नाइवट्टेज्जा मेहावी । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 748] - आचारांग 1/5/6 बुद्धिमान कभी भी जिनेश्वरादि के आदेश-उपदेश का अतिक्रमण नहीं करें। 391. आसक्ति, कर्मास्त्रव द्वार उड्ढे सोया अहे सोया तिरियं सोया वियाहिया एए सोया... अक्खाया जेहिं संगतिया सह । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 152 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 748] - आचारांग 1/5/6168 अर (आसक्ति के) स्रोत हैं, नीचे भी वही स्रोत हैं; मध्य में भी वहीं आसक्ति के स्थान हैं । वे कर्मों के आस्रव द्वार कहे गए हैं। इनके द्वारा समस्त प्राणियों में आसक्ति पैदा होती है। 392. आत्मा, अनिर्वचनीय सव्वे सरा नियटति, तक्का जत्थ न विज्जइ । मई तत्थ न गाहिया ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 748] - आचारांग 1/5/6170 आत्मा के वर्णन में सब के सब स्वर-शब्द निवृत हो जाते हैं - समाप्त हो जाते हैं । वहाँ तर्क की गति भी नहीं है और न बुद्धि ही उसे ठीक तरह ग्रहण कर पाती है और कोई उपमा भी उसके लिए विद्यमान नहीं 393. आत्मा, अवाच्य अरूपी सता अपयस्सपयं नत्थि । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 749] - आचारांग 1/5/6 आत्मा अरूपी सत्तावाला है । उसे कहने के लिए कोई शब्द नहीं है । वह वास्तव में अवाच्य है । 394. लोभजय-फल · लोभ विजएणं सन्तोसीभावं जणयइ । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 755] - उत्तराध्ययन 29/20 • लोभ को जीतने से संतोष गुण की प्राप्ति होती है । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 153 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 395. वचन गुप्त कौन ? वयण विभत्ती कुसलो, वओगयं बहुविहं विआणंतो। दिवसं पि भासमाणो, तहावि वइगुत्तयं पत्तो ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 758] ___ - दशवकालिक नियुक्ति 291 जो वचन-कला में कुशल है और वचन की मर्यादा का जानकार है, वह दिनभर भाषण करता हुआ भी 'वचन गुप्त' कहलाता है। 396. वचनगुप्ति-फल वइगुत्तयाएणं निम्विकारत्तं जणयइ । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 759] - उत्तराध्ययन 29/54 वचन-गुप्ति से निर्विकार स्थिति प्राप्त होती है । 397. निर्विकार से ध्यान निम्वियारेणं जीवे वइगुत्ते अज्झप्पजोगसाहण जुत्ते यावि भवइ । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 759] - उत्तराध्ययन 29/54 निर्विकार होने पर जीव सर्वथा वचनगुप्त तथा अध्यात्म योग के . साधनभूत ध्यान से युक्त होता है। 398. वन्दन से लाभ वंदणएणं नीयागोयं कम्मं खवेइ । उच्चागोयं कम्मं निबंधइ ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 770] - उत्तराध्ययन 2940 वन्दन से आत्मा नीच गोत्र कर्म को क्षय करती है और उच्च गोत्र कर्म का अर्जन करती है। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 154 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 399. मनुष्य-वनस्पति तुलना इमंपि जाइ धम्मयं, एयंपि जाइ धम्मयं । इमंपि वुड्ढि धम्मयं, एयंपि वुड्ढि धम्मयं । इमंपि चित्तमंत यं, एयंपि चित्तमंत यं । इमंपि छिन्नं मिलाति, एयंपि मिलती । इमंपि आहारगं, एयपि आहारगं । इमंपि अणिच्चयं, एयपि अणिच्चयं । इमंपि असासयं, एयं पि असासयं । इमंपि चयावचइयं, एयंपि चयावचइयं । इमंपि विपिरणाम धम्मयं, एयंपि विपरिणाम धम्मयं ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 806-807] - आचारांग 1415 . यह मनुष्य भी जन्म लेता है, यह वनस्पति भी जन्म लेती है । यह मनुष्य भी बढ़ता है, यह वनस्पति भी बढ़ती है। यह मनुष्य भी चेतना युक्त है, यह वनस्पति भी चेतनायुक्त है । यह मनुष्य शरीर छिन्न होने पर म्लान हो जाता है, यह वनस्पति भी छिन्न होने पर म्लान होती है । यह मनुष्य भी आहार करता है, यह वनस्पति भी आहार करती यह मनुष्य शरीर भी अनित्य है, यह वनस्पति का शरीर भी अनित्य है। यह मनुष्य शरीर भी अशाश्वत है, यह वनस्पति शरीर भी अशाश्वत है। __ यह मनुष्य शरीर भी आहार से बढ़ता है और आहार के अभाव में दुर्बल होता है। यह वनस्पति शरीर भी उपचित-अपचित (बढ़ता है, दुर्बल) होता यह मनुष्य शरीर भी विविध अवस्थाओं को प्राप्त होता है और यह वनस्पति शरीर भी विविध अवस्थाओं को प्राप्त होता है । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 155 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 400. भोगास्वादी पुणो पुणो गुणास वंकसमायरे । -- आचारांग 11/5 जो बार-बार इन्द्रियों के विषयों का आस्वादन करता है वह कुटिल - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 806] आचरणवाला है । 401. दिखाउ त्यागी पत्ते अगारमावसे । - आचारांग 1/5 जो प्रमादी है, दिखाउ त्यागी है अर्थात् विषय रूपी विष से मूच्छित है, वह गृहत्यागी होकर भी वास्तव में गृहवासी ही है । 402. जैसा योग वैसा बंध श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 806] जह जहा अप्पतरा से जोगा, तहा तहा अप्पतरो से बंधो । निरुद्ध जोगिस्स व जो ण होति, अछिद्दपोतस्स य अम्बुणोधे ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 870] बृह भाष्य 3926 1 जैसे-जैसे मन, वचन व काया के योग (संघर्ष) अल्पतर होते जाते हैं वैसे-वैसे बंध भी अल्पतर होता जाता है । योग चक्र का पूर्णत: निरोध होने पर आत्मा में बंध का सर्वथा अभाव हो जाता है, जैसे समुद्र में रहे हुए अछिद्र जलयान में जलागमन का अभाव हो जाता है । 403. द्रव्य - भाव हिंसा का स्वरूप आहच्च हिंसा समितस्स जा उ, सा दव्वतो होति णं भावतो उ । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 156 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावे न हिंसा तु असंजतस्स, जं वा 5 वि सत्तेण स दाव चेति ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 871] - बृह. भाष्य 3963 संयमी साधक के द्वारा कभी हिंसा हो भी जाय तो वह द्रव्य हिंसा होती है, भाव हिंसा नहीं, किंतु जो असंयमी है, वह जीवन में कभी किसी का वध न करने पर भी भाव रूप से सतत हिंसा करता रहता है। 404. व्रती-अव्रती की हिंसा में अन्तर जाणं करेति एक्को, हिंसमजाणं पुणो अविरतो य । तत्थवि बंधविसेसो, महंतरं देसितो समए ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 871] - बृह. भाष्य 3938 _एक अविरत (असंयमी) जानकर हिंसा करता है और दूसरा विरत (संयमी) अनजान में । शास्त्र में इन दोनों के हिंसाजन्य कर्मबंध में महान् अन्तर बताया है अर्थात् तीव्र भावों के कारण जानने वाले का अपेक्षाकृत कर्मबंध तीव्र होता है। 405. अप्रमत्त, निर्जराभागी विरतो पुण जो जाणं, कुणति अजाणं च अप्पमत्तो य । तत्थ वि अज्झत्त समा, संजायति णिज्जराण चओ ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 872] - बृह. भाष्य 3939 अप्रमत्त संयमी चाहे जान में (अपवाद स्थिति में) हिंसा करे या अनजान में, उसे अन्तरंग शुद्धि के अनुसार निर्जरा ही होगी, बंध नहीं । 406. बल जैसा भाव देहबलं खलु वीरियं, बल सरिसो चेव होति परिणामो । __ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 873] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 157 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - बृह. भाष्य 3948 देह का बल ही वीर्य है और बल के अनुसार ही आत्मा में शुभाशुभ भावों का तीव्र या मंद परिणमन होता है । 407. संयमी की प्रवृत्ति निर्दोष संजम हेऊ जोगो, पउंजमाणो अदोसयं होइ । जह आरोग्य निमित्तं, गंडच्छेदोव विज्जस्स ॥ . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 874] - बृह. भाष्य 3951 संयम निर्वाह हेतु की जानेवाली प्रवृत्तियाँ निर्दोष होती हैं, जैसे कि वैद्य के द्वारा किया जानेवाला व्रणच्छेद (फोड़े का ओपरेशन) आरोग्य के लिए होने से निर्दोष होता है। 408. असंग्रही साधक विडमुब्भेइमं लोणं तेल्लं सप्पिं च फाणियं । न ते सन्निहि मिच्छन्ति, नायपुत्त वओरया ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 887] . - दशवकालिक 617 जो लोग महावीर के वचनों में अनुरक्त हैं वे मक्खन, नमक, तेल, घृत, गुड़ आदि किसी वस्तु के संग्रह करने का मन में संकल्प तक नहीं लाते । 409. परपीड़क सत्यासत्य-वर्जन अप्पणट्ठा परट्ठा वा, कोहा वा जइ वा भया । हिंसगं न मूसं बूया, नो वि अन्नं वयावए ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 887] - दशवैकालिक 61 निर्ग्रन्थ अपने स्वार्थ के लिए या दूसरों के लिए क्रोध से या भय से किसी प्रसंग पर दूसरों को पीड़ा पहुँचानेवाला सत्य या असत्य वचन न तो स्वयं बोले, न दूसरों से बुलवाए।। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 158 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 410. संयमोपकरण क्यों ? जं पि वत्थं च पायं वा, कंबलं पायपुच्छन्नं । जं पि संजमलज्जट्ठा, धारन्ति परिहरन्ति य ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 887 ] दशवैकालिक 6/20 - जो भी वस्त्र, पात्र, कंबल और रजोहरण हैं, उन्हें मुनि संयम और लज्जा की रक्षा के लिए ही रखते हैं । किसी समय वे संयम की रक्षा के लिए इनका परित्याग भी करते हैं। I 411. संग्रह - वृत्ति: लोभ-प्रवृत्ति लोहस्सेस अणुफ्फासो, मन्ने अन्नयरामवि । - - संग्रह करना यह अंदर रहनेवाले लोभ की झलक है । 412. असत्य, अविश्वसनीय अविस्सासो य भूयाणं, तम्हा मोसं विवज्जए । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 887] दशवैकालिक 6/13 असत्य, मनुष्यों के लिए अविश्वास का स्थान है । अत: इसका - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 887] दशवैकालिक 6/18 त्याग करें । 413. बोलो, असत्य नहीं हिंसगं न मूसं बूया । - - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 887] दशवैकालिक 6/12 परपीड़ाजनक असत्य मत बोलो। 414. असत्य निंदनीय मुसावाओ उ लोगम्मि सव्व साहुहिं गरहिओ । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 159 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 887] - दशवकालिक 613 संसार में सभी सत्पुरुषों द्वारा असत्य निंदनीय है । 415. स्वामी अदत्त अग्राह्य तं अप्पणा न गिण्हंति नो वि गिण्हावए परं । अन्नं वा गिण्हमाण पि नाणुजाणति संजया ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 887] - दशवकालिक 614 संयमी साधक बिना पूछे कोई भी वस्तु नहीं उठाता और न दूसरों को लेने के लिए प्रेरणा देता है और न ही लेनेवालों की अनुमोदना करता है । 416. साधु गृहीवत् जो सिया सन्निहि कामे, गिही पव्वइए न से । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 887] - दशवकालिक 619 जो साधु होकर सदा संग्रह की भावना रखता है, वह साधु नहीं, किन्तु साधुवेष में गृहस्थ ही है। 417. ज्ञानी, निर्ममत्व अवि अप्पणो विदेहमि नायरंति ममाइयं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 887] - दशवैकालिक 6/22 और तो क्या, ज्ञानी पुरुष अपने शरीर के प्रति भी ममत्व नहीं रखते । 418. ममत्त्व ही परिग्रह मुच्छा परिग्गहो वुत्तो। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 887] - दशवैकालिक 6/21 मूर्छा (ममत्वभाव) ही वस्तुत: परिग्रह है । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 160 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 419. सभी जीव सुख प्रिय सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविउं न मरिज्जिउं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 888] - दशवकालिक 6nl समस्त प्राणी सुखपूर्वक जीना चाहते हैं । मरना कोई नहीं चाहता । 420. अहिंसा-दर्शन अहिंसा निउणा दिट्ठा, सव्वभूएसु संजमो। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 888] - दशवैकालिक 63 सभी प्राणियों के प्रति स्वयं को संयत रखना-यही अहिंसा का पूर्ण दर्शन है। 421. प्राणीवध पाप पाणिवहं घोरं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 888] - दशवैकालिक 641 प्राणियों का वध (जीव हिंसा) घोर पाप है । 422. हिंसा त्याज्य जावन्ति लोए पाणा, तसा अदुव थावरा । ते जाणमजाण वा, न हणे नो विधायए ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 888] - दशवैकालिक 600 इस लोक में जितने भी त्रस और स्थावर प्राणी हैं उन सबकी जान-अनजान में हिंसा नहीं करना और न दूसरों से करवाना चाहिए । 423. हिंसा सर्वत्र त्याज्य न हणे नो विघायए। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 888] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 161 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिक 6/10 ज्ञानीजन न तो स्वयं हिंसा करे और न ही दूसरों से करवाए । - 424. वह वचनगुप्त नहीं वयण विभत्ति अकुसलो, वओगयं बहुविहं अयाणंतो । जइवि न भासइ किंची, न चेव वयगुत्तयं पत्तो ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 891] - दशवैकालिक नियुक्ति 290 जो वचन-कला में अकुशल है और वचन की मर्यादाओं से अनभिज्ञ है वह कुछ भी न बोले, तब भी 'वचन गुप्त' नहीं हो सकता । 425. निर्ग्रन्थ-बल क्या ? आगमबलिया समणा निग्गंथा । - श्रमण / निर्ग्रन्थों का बल ' आगम' (शास्त्र) ही है । 426. व्यवहार, बलवान् ववहारोऽपि ह बलवं । हु श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 906] व्यवहारसूत्र 10/3 श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 934] आव. नि. भाष्य 123 संघ एवं समाज-व्यवस्था में व्यहार ही सबसे बलवान् है । ame 427. संघ - व्यवस्था में व्यवहार बलवान् ववहारो वि हु बलवं, जं छउमत्थं पि वंदड़ अरहा । जा होई आणाभिणो, जाणंतो धम्मयं एयं ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 934] आवश्यक नियुक्ति भाष्य 123 संघ-व्यवस्था में व्यवहार महत्त्वपूर्ण है । केवली भी अपने छद्मस्थ को स्वकर्तव्य समझकर तबतक वंदना करते रहते हैं जबतक कि गुरु उसकी सर्वज्ञता से अनभिज्ञ रहते हैं । गुरु अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 162 - - Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुद्धेण जाड कि गजेन्द्र का 428. धर्म का मूलः व्यवहार-शुद्धि ववहार सुद्धि धम्मस्स, मूलं सव्वण्णूभासए । ववहारेण तु सुद्धेणं, अत्थसुद्धी तओ भवे ॥ सुद्धेणं चेव अत्थेणं, आहारो होइ सुद्धओ। आहारेणं तु सुद्धेणं, देह सुद्धी जओ भवे ॥ सुद्धेणं चेव देहेणं, धम्म जुग्गो अ जायइ । जं जं कुणइ किच्चं तु, तं तं ते सफलं भवे ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 935] - धर्मसंग्रह सटीक 2 अधि. सर्वज्ञभाषी तीर्थंकर परमात्मा ने धर्म का मूल व्यवहार-शुद्धि बताया है । चूँकि व्यवहार-शुद्धि से अर्थ-शुद्धि होती है । अर्थ-शुद्धि से आहार-शुद्धि होती हे । आहार-शुद्धि से शरीर-शुद्धि होती है और शरीर-शुद्धि से व्यक्ति धर्मयुक्त होता है और धर्मयुक्त होने पर ऐसे व्यक्तियों द्वारा जो-जो कार्य किए जाते हैं, वे सब सफल होते हैं । 429. संकट में धैर्य ण उच्चावयं मणं णियंछेज्जा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 959] - आचारांग 230 संकट में मन को ऊँचा-नीचा अर्थात् डांवाडोल नहीं होने देना चाहिए। 430. गृहस्थ-परिचय निषेध गिहि संथवं न कुज्जा । . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 959] - दशवकालिक 82 श्रमण को गृहस्थ से परिचय-सम्पर्क नहीं करना चाहिए । 431. तुलसी सङ्गत साधु की कुज्जा साहूहिं संथवं । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 163 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 959] - दशवकालिक 82 . साधुपुरुषों-सज्जनों के साथ सम्पर्क करना चाहिए । 432. सूत्रार्थ गुरुगम्य निउणो खलु सुत्तत्थो, ण हु सक्को अपडिबोधि तो गाउं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. '971] - नि. भाष्य 5252 - बृह भाष्य 3333 सूत्र का अर्थ अर्थात् शास्त्र का मूलभाव बहुत ही सूक्ष्म होता है, वह आचार्य के द्वारा प्रतिबोधित हुए बिना नहीं जाना जाता । 433. सदोष-निर्दोष कब ? निक्कारणम्मि दोसा, पडिबंधे कारणम्मि निदोसा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 973] - निशीथ भाष्य 5284 बिना विशिष्ट प्रयोजन के अपवाद दोष रूप है, किंतु विशिष्ट प्रयोजन की सिद्धि के लिए वही निर्दोष है । 434. योग्य में योग्य का आधान जो जस्स उ पाउग्गो, सो तस्स तहिं तु दायव्यो । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 974] - निशीथ भाष्य 5291 - ब्रह. भाष्य 3370 जो जिसके योग्य हो, उसे वही देना चाहिए । 435. करुणाशील अहिंसक इह संतिगया दविया णावकरवंति जीविउं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1061] - आचारांग IAM अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 164 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणाशील भव्यात्माएँ जीवहिंसा करके जीना नहीं चाहतीं । 436. अहिंसक समर्थ __ पहु एजस्स दुगुंछणाए। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1061] - आचारांग 1AM __ अहिंसक पुरुष वायुकायिक जीवों की हिंसा से निवृत्त होने में समर्थ हो जाता है। 437. स्वच्छन्दाचारी आरंभसत्ता पकरेंति संगं । a - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1062] - आचारांग 1AM स्वच्छंदाचारी पुरुष आरंभ में आसक्त होकर नई नई आसक्तियाँ और नए-नए बंधनों को बढ़ाते रहते हैं । 438. त्रिवाद शुष्कवादो विवादश्च, धर्मवाद स्तथा परः । इत्येष त्रिविधो वादः कीर्तितः परमर्षिभिः ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1081] - हारिभद्रीयाष्टक 12 तत्त्वदर्शियों ने तीन प्रकार का वाद कहा है-शुष्कवाद, विवाद और धर्मवाद । 439. वाचना से निर्जरा वायणाएणं निज्जरं जणयइ । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1088] - उत्तराध्ययन 2949 वाचना (पठन-पाठन) से निर्जरा होती है। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 165 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 440. गुप्त रहस्य कब प्रकट करें ? खेत्त कालं पुरिसं, नउण पगासए गुत्तं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1093] - नि. भाष्य 6227 - बृह. भाष्य 790 देश, काल और व्यक्ति को समझकर ही गुप्त रहस्य प्रकट करना चाहिए। 441. ज्ञान-गरिमा नाणम्मि असंतम्मि, चरित्तं पि न विज्जए । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1094] . - व्यवहार भाष्य 7/217 ज्ञान नहीं है तो चारित्र भी नहीं है । 442. दीक्षा निरर्थक जइ नऽत्थि नाण चरणं, दिक्खा हु निरत्थिया तासि । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1094] - व्यवहारभाष्य 7/215 यदि ज्ञान और तदनुसार आचरण नहीं है तो उसकी दीक्षा निरर्थक 443. ज्ञान से चारित्र नाणेण नज्जए चरणं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1094] - व्यवहार चूलिका भाष्य 7/316 ज्ञान से ही चारित्र (कर्तव्य) का बोध होता है । 444. ज्ञान, प्रकाशक सव्वजगुज्जोयकरं नाणं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1094] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 166 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - व्यवहारभाष्य 7/216 ज्ञान विश्व के समग्र रहस्यों को प्रकाशित करनेवाला है । 445. दुःख-मूल, क्रोध मूलं कोहो दुहाण सव्वाणं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1144] - धर्मरत्नप्रकरण 1 अधि. 3 गुण सभी दु:खों का मूल क्रोध है । 446. अनर्थ-मूल, मान मूलं माणो अणत्थाणं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1144] . - धर्मरत्नप्रकरण । अधि. 3 गुण सभी अनर्थों का मूल अभिमान है । 447. सुख-मूल, क्षमा खंती सुहाण मूलं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1144] - संबोध सत्तरि 70 क्षमा सभी सुखों का मूल है । 448. श्रेष्ठ क्या ? जिण जणणी रमणीणं, मणीण चिंतामणी जहा पवरो । कल्पलया य लयाणं, तहा खमा सव्व धम्माणं ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1144] - धर्मरत्नप्रकरण 1 अधि. 3 गुण जैसे सभी स्त्रियों में जिनेश्वर परमात्मा की माता श्रेष्ठ है, सभी रत्नों में चिंतामणि रत्न श्रेष्ठ है और सभी लताओं में कल्पलता श्रेष्ठ है वैसे ही सभी धर्मों में क्षमा ही श्रेष्ठ है । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 167 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 449. गुण-मूल, विनय विणओ गुणाण मूलं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1144] - धर्मरत्नप्रकरण 1 अधि. 3 गुण सभी गुणों का मूल विनय है। 450. तुख्ने तासीर सौहबते असर संतप्तायसि संस्थितस्य पयसो नामापि न ज्ञायते । मुक्ताकारतया तदेव नलिनी पत्रस्थितम् राजते ॥ स्वात्यां सागरशुक्ति मध्यपतितं तन्मौक्तिकं जायते । प्रायेणाधममध्यमोत्तमगुणाः संसर्गतो देहिनाम् ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1144] - भर्तृहरिकृत नीतिशतक 67 गरम लोहे पर जल की बूंद पड़ने से उसका नामोनिशान भी नहीं रहता, वही जल की बूंद कमल के पत्ते पर पड़ने से मोती-सी चमकने लगती है और वही जल की बूंद स्वाती नक्षत्र में समुद्र की सीप में पड़ने से मोती हो जाती है । इससे सिद्ध होता है कि संसार में अधम, मध्यम और उत्तम गुण प्राय: संसर्ग से ही आते हैं। (नि:संदेह अधम, मध्यम और उत्तम गुण प्राय: संसर्ग या सौहबत से ही होते हैं । यदि संसर्ग अधम होता है तो मनुष्य अधम हो जाता है और यदि संसर्ग उत्तम होता है तो मनुष्य उत्तम हो जाता है । 451. संगति से गुण-दोष प्रायेणाधममध्यमोत्तमगुणाः संसर्गतो देहिनाम् । .. - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1144] - भर्तृहरिकृत नीतिशतक 67 नि:संदेह अधम, मध्यम और उत्तम गुण मनुष्यों में प्राय: संगति से ही आते हैं। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 168 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 452. विद्याः वशीकरणमंत्र विद्यया राजपूज्य:स्या-द्विद्यया कामिनी प्रियः । विद्या हि सर्वलोकस्य, वशीकरणकार्मणम् ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1148] - स्थानांग सटीक 5 ठाणा 3 उ. विद्वान् विद्या से ही राजाओं द्वारा पूजित होता है। विद्या से कामिनी | अङ्गनाओं को भी वश में कर लेता है । अत: विद्या ही संसार में सर्वश्रेष्ठ वशीकरण मन्त्र तथा सम्मोहन मंत्र है । 453. वाणी-विनय हियमिय अफरूसवाई, अणुवीई भासिवाइओ विणओ। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1154] - दशवैकालिक नियुक्ति 322 - हित, मित, मृदु और विचारपूर्वक बोलना, वाणी का विनय है । 454. विनीत कौन ? आणा निद्देस करे, गुरुणमुववायकारए । इंगियागारसंपन्ने, से विणीए त्ति वुच्चई ॥ . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1158] - उत्तराध्ययन 12 जो गुरुजनों की आज्ञाओं का यथोचित पालन करता है, उनके निकट संपर्क में रहता है एवं उनके हर संकेत व चेष्टा के प्रति सजग रहता है-उसे 'विनीत' कहा जाता है। 455. कैसा शिष्य बहिष्कृत ? जहा सुणी पूइकण्णी णिक्कसिज्जइ सव्वसो । एवं दुस्सील पडिणीए, मुहरी निक्कसिज्जइ ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1158] - उत्तराध्ययन 1/4 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 169 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिलप्रकार सड़े हुए कानोंवाली कुतियाँ जहाँ भी जाती है, निकाल दी जाती है उसीप्रकार दुःशील, उद्दण्ड और मुखर-वाचाल मनुष्य भी सर्वत्र धक्के देकर निकाल दिया जाता है। . 456. अविनीत कौन ? आणाऽनिद्देस करे, गुरुणमणुववाय कारए । पडिणीए असंबुद्धे, अविणीएत्ति वुच्चइ ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1158] - उत्तराध्ययन 13 जो गुरु की आज्ञा और निर्देश का पालन नहीं करता, जो गुरु की शुश्रूषा नहीं करता, जो गुरु के प्रतिकूल वर्तन करता है और जो तथ्य को । नहीं जानता; वह ‘अविनीत' कहा जाता है। 457. वाचाल, बहिष्कृत मुहरी निक्कसिज्जइ । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1158] - उत्तराध्ययन 1/4 वाचाल शिष्य सड़े कानों वाली कुतियाँ की भाँति धत्-धत् करके बहिष्कृत कर दिया जाता है। 458. दुःशील, शूकरवत् कण कुडगं जहित्ताणं, विटें भुंजइ सूयरो । एवं सीलं जहित्ताण, दुस्सीले रमई मिए ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1159] . - उत्तराध्ययन 1/5 जिसप्रकार चावलों का स्वादिष्ट भोजन छोड़कर शूकर विष्ठा खाता है, उसीप्रकार पशुवत् जीवन बितानेवाला अज्ञानी, शील-सदाचार को छोड़कर दुःशील-दुराचार को पसन्द करता है। 459. आत्म-हित चाहक विणए ठविज्ज अप्पाणं, इच्छन्तो हियमप्पणो । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 170 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1159) - उत्तराध्ययन 1/6 आत्मा का हित चाहनेवाला साधक स्वयं को विनय-सदाचार में स्थिर करे। 460. सार सार को गहीले अट्ठ जुत्ताणि सिक्खिज्जा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1159] - उत्तराध्ययन 1/8 अर्थयुक्त (सारभूत) बातें ही ग्रहण करना चाहिए। 461. थोथा देय उड़ाय निरस्टाणि उवज्जए। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1159] - उत्तराध्ययन 1/8 निरर्थक कार्यों/बातों को छोड़ देना चाहिए । 462. विनयान्वेषण तम्हा विणयमेसिज्जा, सीलं पडिलभेज्जओ। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1159] - उत्तराध्ययन 14 विनय की खोज करना चाहिए जिससे कि शील-सदाचार की प्राप्ति हो। 463. अनुशासन प्रिय अणुसासिओ न कुप्पिज्जा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1160] - उत्तराध्ययन 14 गुरुजनों के अनुशासन से कुपित-क्षुब्ध नहीं होना चाहिए । 464. अज्ञानी-संसर्ग वयं बालेहिं सह संसग्गि, हासं कीडं च वज्जए । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 171 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1160] - उत्तराध्ययन IN बाल अर्थात् अज्ञानी के साथ संपर्क, हँसी-मजाक, क्रीड़ा आदि नहीं करना चाहिए। 465. क्षमा-सेवन खंति सेवेज्ज पंडिए । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1160] - उत्तराध्ययन 14 क्षमाशील बनो। 466. कम बोलो बहुयं माय आलवे । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1160] - उत्तराध्ययन 100 बहुत नहीं बोलना चाहिए। 467. छिपाए नहीं ! आहच्च चंडालियं कटटु, न निण्हविज्ज कण्हुइ । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1160] - उत्तराध्ययन 111 यदि साधक कभी कोई चाण्डलिक-दुष्कर्म कर ले, तो फिर उसे छिपाने की चेष्टा न करे । 468. है, वैसा कहो कडं कडे त्ति भासिज्जा, अकडं नो कडे त्ति य । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1160] - उत्तराध्ययन 11 बिना किसी छिपाव या दुराव के किए हुए कर्म को किया हुआ कहिए तथा नहीं किए हुए कर्म को नहीं किया हुआ कहिए । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-60 172 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 469. अड़ियल शिष्य मा गलियस्सेव कसं, वयण मिच्छे पुणो पुणो । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1160] उत्तराध्ययन 112 बार-बार चाबुक की मार खानेवाले गलिताश्व अर्थात् अडियल या दुर्बल घोड़े की तरह कर्तव्य पालन के लिए पुनः पुनः गुरुओं के निर्देश की अपेक्षा मत रखो | 470. सैन्धव शिष्य कसं व दट्टु माइन्नो, पावगं परिवज्जए । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1160] उत्तराध्ययन 1/12 जैसे उत्तम जाति का घोड़ा चाबुक को देखते ही उन्मार्ग को छोड़ देता है वैसे ही विनीत शिष्य गुरु के इंगिताकार को देखकर पापकर्म - अशुभ आचरण को छोड़ दें । 471. नीचकर्म - त्याग माय चंडालियं कासी । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1160] उत्तराध्ययन 110 क्रोधावेश में आकर भी कोई चाण्डालिक कर्म अर्थात् नीचकर्म मत करो । 472. पहले अध्ययन फिर ध्यान कालेण य अहिज्जित्ता, ओझाइज्जएगो । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1160 ] उत्तराध्ययन 110 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 173 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथासमय अध्ययन करके फिर उसके बाद तत्त्व का ध्यान - चिन्तन - मनन करना चाहिए। 473. वचन-नीति णाऽपुट्ठो वागरे किंचि । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1161] - उत्तराध्ययन 144 बिना पूछे कुछ भी मत बोलो । 474. क्रोध-विफल कोहं असच्चं कुविज्जा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1161] - उत्तराध्ययन 104 क्रोध को विफल बना दो। 475. समभाव धारिज्जा पियमप्पियं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1161] - उत्तराध्ययन 104 प्रिय-अप्रिय को समभाव से धारण करो। 476. मिथ्या भाषण-त्याग पुट्ठो वा नाऽलियं वए । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1161] - उत्तराध्ययन 104 पूछने पर झूठ मत बोलो। 477. स्वदमन श्रेष्ठ वरं मे अप्पा दंतो, संजमेण तवेण य । . माऽहं परेहि दम्मंतो, बंधणेहिं बहेहि य ॥ . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1162] - उत्तराध्ययन 146 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 174 - - Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुझे दूसरे वध और बंधन आदि से दमन करें, इससे तो अच्छा है कि मैं स्वयं ही संयम और तप के द्वारा अपनी इच्छाओं का दमन कर 478. आत्म-नियन्त्रण अप्पामेव दमेयव्वो । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1162] - उत्तराध्ययन 145 अपने आप पर नियन्त्रण रखना चाहिए । 479. आत्म-नियन्त्रण दुष्कर अप्पा हु खलु दुद्दमो। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1162] - उत्तराध्ययन 145 आत्मा बहुत दुर्दभ है, अर्थात् उसपर नियन्त्रण रखना बड़ा ही कठिन है। 480. सुखी कौन ? अप्या दंतो सुही होइ। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1162] - उत्तराध्धयन 145 अपने आप पर नियन्त्रण रखनेवाला सुखी होता है। 481. मौन अनुचित कब ? आयरिएहिं वाहिं तो, तुसिणीओ ण कयाइ वि । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1163] - उत्तराध्ययन 120 आचार्यों के द्वारा बुलाए जाने पर शिष्य किसी भी अवस्था में मौन न रहे। ( अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 175 ) Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 482. अनुशासित शिष्य आलवंते लवंते वा, ण णिसीज्जा कयाइ वि । चइत्ता आसणं धीरो, जओ जत्तं पडिस्सुणे ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1163] - उत्तराध्ययन 121 बुद्धिमान् शिष्य गुरु के द्वारा एकबार या बार-बार बुलाने पर कभी भी बैठा न रहे, किंतु आसन को छोड़कर यत्नपूर्वक उनके आदेश को स्वीकार करें। 483. प्रश्न-पृच्छा कैसे ? आसणगओ ण पुच्छिज्जा, णेव सिज्जागओ कया । आगम्मुक्कुडुओ संतो पुच्छिज्जा पंजली गडे ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1163] - उत्तराध्ययन 1/22 विनीत शिष्य आसन पर अथवा शय्या पर बैठा हुआ गुरु से प्रश्न न पूछे, किंतु उनके समीप जाकर उत्कटिकासन करता हुआ हाथ जोड़कर सूत्रादि अर्थ पूछे। 484. शिष्य-विनयशीलता न पक्खओ न पुरओ, नेव किच्चाण पिट्ठओ । न जुंजे उरुणा उरुं, सयणे नो पडिस्सुणे ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1163] - उत्तराध्यन 108 आचार्यों के साथ सटकर न बैठे, आगे-पीछे न बैठे, पीठ करके न बैठे, उनके घुटने से घुटना सटाकर न बैठे, आगे भी न बैठे तथा शय्या पर बैठा हुआ ही उनकी वाणी को न सुने । 485. अज्ञ-प्राज्ञ शिष्य हियं तं मन्नए पन्नो, वेस्सं भवइऽसाहुणो । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1164] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 176 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - उत्तराध्ययन 1/28 प्रज्ञावान् शिष्य गुरुजनों की जिन शिक्षाओं को हितकर मानता है, दुर्बुद्धि दुष्ट अज्ञ शिष्य को वे ही शिक्षाएँ बुरी लगती हैं । 486. विनीत शिष्य जं मे बुद्धाऽणु सासंति, सीएण फरुसेण वा । मम लाभुत्ति पेहाए, पवओरा (तं) पडिस्सुणे ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1164] - उत्तराध्ययन 127 विनीत शिष्य-शिष्या का यह चिन्तन होता है कि तत्त्वदर्शी गुरु का मधुर व कठोर अनुशासन मेरे लाभ के लिए ही है । इसलिए मुझे उनका खूब ध्यान रखना चाहिए । सावधानी के साथ उसे सुनना चाहिए । 487. कठोर अनुशासन फरुसमप्पणुसासणं । . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1164] - उत्तराध्यन 1/29 - अनुशासन चाहे कठोर ही क्यों न हो, अनुशासित किया जाने पर क्रोध न करें। 488. अनुशासित प्राज्ञ शिष्य अणुसासणमोवायं, . दुक्कडऽस्स य परेणं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1164] - उत्तराध्ययन 1/28 दुष्कृत (पापकर्म) को दूर करनेवाला, गुरुजनों का उपाय युक्त अनुशासन प्राज्ञ शिष्य के लिए हित का कारण होता है । 489. गुरु प्रसन्न रमए पंडिए सासं, हयं भदं व वाहए । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1165] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 177 ) Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - उत्तराध्ययन 187 विनीत बुद्धिमान् शिष्य को शिक्षा देता हुआ ज्ञानी गुरु वैसे ही प्रसन्न होता है जैसे उत्तम अश्व (अच्छे घोड़े) पर सवारी करता हुआ घुड़सवार । 490. गुरु खिन्न बालं सम्मइ सासंतो, गलिअस्समिव वाहए। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1165] - उत्तराध्ययन 137 अविनीत, बाल अर्थात् जड़ मूढ़ शिष्यों को शिक्षा देता हुआ गुरु उसीप्रकार खिन्न होता है जैसे अड़ियल या मरियल दुष्ट घोड़े पर चढ़ा हुआ घुड़सवार । 491. सुशिष्य-कुशिष्य परीक्षण खड्डुयाहिं चेवडाहिं, अक्कोसेहिं वहेहि य । कल्लाणमणुसासंतं, पावदिट्ठित्ति मन्नइ ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1165] • - उत्तराध्ययन 1/38 गुरु मुझे ठोकरें (लात) मारते हैं, थप्पड़ लगाते हैं, मुझे कोसते हैं और पीटते हैं; इसप्रकार गुरुजनों के कल्याणकारी अनुशासन को पापदृष्टि शिष्य कष्टकारक मानता है । सुशिष्य की गुरु द्वारा कठोर परीक्षा लेने का यह एक तरीका है । इस परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाने पर गुरु उस शिष्य को सुशिष्य मान लेते हैं। 492. विनीत-अविनीत-लक्षण पुत्तो मे भाय नाइत्ति, साहू कल्लाण मन्नई । पावदिट्ठी उ अप्पाणं, सासं दासं व मन्नई ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1165] - उत्तराध्ययन 1/39 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 178 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु मुझे पुत्र, भाई और ज्ञातिजन की तरह आत्मीय समझ कर शिक्षा देते हैं, ऐसा विचार करके विनीत सुशिष्य उनके अनुशासन-शिक्षा को कल्याण कर मानता है, जबकि पापदृष्टि-अविनीत शिष्य उसी हितशिक्षा को नौकर को दी गई डाँट-डपट के समान खराब मानता है । 493. क्रोध त्याज्य अप्पाणं पि ण कोवए । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1166] - उत्तराध्ययन 1/40 अपने आप पर भी कभी क्रोध मत करो । 494. छिद्रान्वेषी शिष्य __न सिया तोत्तगवेसए । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1166] - उत्तराध्ययन 1/40 - (गुरु को खरी-खोटी सुनाने की ताक में) शिष्य उनका छिद्रान्वेषी न हो। 495. सुविनीत शिष्य आयरियं कुवियं नच्चा, पतिएणं पसायए । विज्झ विज्जा पंजलिउडे, वएज्जा न पुणोत्तिय ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1166] - उत्तराध्ययन 1/41 विनीत शिष्य आचार्य को कुपित हुए जानकर प्रीतिकारक, वचनों से उन्हें प्रसन्न करें, हाथ जोड़कर उन्हें शान्त करें और अपने मुहँ से ऐसा . कहे कि "पुन: मैं ऐसा नहीं करूँगा।" 496. धर्मसंगत व्यवहार धम्मज्जियं च ववहारं, बुद्धे हाऽऽयरियं सया । तमायरंतो ववहारं, गरहं नाभिगच्छइ ॥ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 179 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1166] उत्तराध्ययन 1/42 जो व्यवहार धर्मसंगत है, तत्त्वज्ञ आचार्यों ने जिसका सदा आचरण किया है, उस व्यवहार (सदाचार) का सदैव आचरण करनेवाला मनुष्य कहीं पर भी निंदा का पात्र नहीं बनता । 497. गुर्वाज्ञा मणोगयं वक्कगयं जणित्ताऽयरियस्सउ । 1 तं परिगिज्झ वायाए, कम्मुणा उववायए ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1166] उत्तराध्ययनं 1/43 आचार्य के मनोगत और वाक्यगत भावों को समझ कर शिष्य उन्हें वचन द्वारा स्वीकार करके फिर उसे कार्यरूप में परिणत करें । 498. ज्ञान से विनम्र णच्चा णमइ मेहावी । उत्तराध्ययन 1/45 बुद्धिमान् ज्ञान प्राप्त करके नम्र हो जाता है । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1167 ] 499. विनय - ज्ञान युक्त शिष्य वित्ते अचोइए निच्चं, खिप्पं हवड़ सुचोयए । जहोपट्ठ सुकडं, किच्चाई कुव्वई सया ॥ G - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1167] उत्तराध्ययन 1/44 विनय - सम्पन्न शिष्य गुरु द्वारा बिना प्रेरणा दिए ही कार्य करने में प्रवृत्त होता है वह गुरु द्वारा अच्छी तरह प्रेरित किए जाने पर शीघ्र ही उनके उपदेशानुसार सभी कार्य भली-भाँति सम्पन्न कर लेता है । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस खण्ड-6• 180 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 500. गुरु-आशातना, विनाश का कारण थंभा व कोहा व मयप्पमाया, गुरुस्सगासे विणयं न सिक्खे । सो चेव ऊ तस्स अभूइ भावो, फलं व कीअस्स वहाय होई ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1168] - दशवकालिक 94 जो मुनि अभिमान, क्रोध, माया या प्रमादवश गुरु के निकट रहकर विनय नहीं सीखता, उनके प्रति विनय का व्यवहार नहीं करता, उसका यह अविनय भाव बांस के फल की तरह स्वयं के लिए विनाश का कारण बनता 501. मुक्ति, असंभव सिओ हु से पावय नो डहिज्जा, आसी विसो वा कुविओ न भक्खे । सिआ विसं हालहलं न मारे, न आवि मुक्खो गुरु हीलणाए ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1168 1169] - दशवैकालिक 9AM संभव है कदाचित् अग्नि न जलावे, संभव है कुपित विषधर न डसे और यह भी संभव है कि हलाहल विष भी मृत्यु का कारण नही बने, किन्तु गुरु की अवहेलना करनेवाले साधक के लिए मोक्ष कदापि संभव नहीं है। 502. गुरु-आशातना जे यावि मंदत्ति गुरुं वइत्ता डहरे इमे अप्पसुय त्ति नच्चा । हीले त्ति मिच्छं पडिवज्जमाणा, करेंति आसायणं ते गुरुणं ॥ _ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 181 अति पारस. खण्ड-6. 181 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1168] - दशवैकालिक 942 जो अविनीत गुरु को मन्दबुद्धि, अल्पवयस्क एवं अल्प श्रुत जानकर उनकी अवहेलना करते हैं, वे मिथ्यात्व को प्राप्त कर गुरु की आशातना करते हैं। 503. गुरु-आशातना अहितकर जो पावगं जालियमवक्कमेज्जा, आसीविसं वा वि हु कोवएज्जा । जो वा विसं खायइ जीवियट्ठी, एसोवमासायणया गुरुणं ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1168] - दशवैकालिक 94/ जैसे कोई जलती अग्नि को लांघता है, आशीविष सर्प को कुपित करता है और जीवित रहने की इच्छा से विष खाता है वैसे ही गुरु की आशातना भी इनके समान हैं-ये जिसप्रकार हित के लिए नहीं होते, उसीप्रकार गुरु की आशातना भी हित के लिए नहीं होती । 504. गुरु-आशातना से दुष्परिणाम जो पव्वयं सिरसा भेत्तुमिच्छे, सुत्तं व सीहं पडिबोहएज्जा । जो वा दए सत्तिअग्गे पहारं, एसोवमासायणया गुसणं ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1169] - दशवैकालिक 948 जैसे कोई व्यक्ति गन्धमादन पर्वत को सिर से फोड़ना चाहता है अथवा सोए हुए सिंह को जगाता है या जो भाले की नोक पर प्रहार करना चाहता है, वैसे ही गुरु की आशातना करनेवाला भी इनके तुल्य ही है । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 182 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 505. अवहेलना से अमुक्ति सिया ह सीसेण गिरिं पि भिंदे, सिया हु सीहो कुविओ न भक्खे । सिया न भिदेज्ज व सत्तिअग्गं, न यावि मोक्खो गुरु हीलणाए ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1169] दशवैकालिक 919 संभव है शिर से पर्वत को भी छेद डाले, सिंह कुपित होने पर भी न खाये और भाले की नोक भी भेदन न करे, पर गुरु की अवहेलना से मोक्ष कदापि सम्भव नहीं है । - 506. गुरुकृपा तत्पर आयरियपाया पुण अप्पसन्ना, अबोहि आसायण नत्थि मोक्खो ।. तम्हा अहाबाहसुहामिक्खीं, गुरुप्सायाभिमुहो रमेज्जा ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1169 ] दशवैकालिक 9110 आचार्य प्रवर के अप्रसन्न होने पर बोधि-लाभ नहीं होता । गुरु की आशातना से मोक्ष नहीं मिलता । इसलिए मोक्ष - सुख चाहनेवाला मुनि गुरु-कृपा (गुरु-प्रसन्नता) के लिए तत्पर रहे । 507 आशातना से अमुक्ति मिलता । आसायणं नत्थि मोक्खो । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1169 ] दशवैकालिक 9175 आज्ञा-भंग में मोक्ष नहीं है अर्थात् आशातना करने से मोक्ष नहीं - अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड- 6 • 183 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 508. शिष्य-विनय एवाऽऽयरियं उवचिट्ठएज्जा, । अणंत नाणो विगओ वसंतो । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1169] - दशवकालिक 9Aml शिष्य भले ही अनन्त ज्ञान सम्पन्न क्यों न हो, फिर भी आचार्य (गुरु भ.) के पास विनयपूर्वक ही बैठे। 509. विनम्रता किसके प्रति ? जस्संतिए धम्मपयाई सिक्खे, तस्संतिए वेणइयं पउंजे । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1169] - दशवैकालिक 942 जिनके पास धर्मपद-धर्म की शिक्षा लें, उनके प्रति सदा विनम्र भाव रखना चाहिए। 510. गुरु-अवहेलना न आवि मुक्खो गुरु हीलणाए । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1169] - दशवकालिक 940 गुरुजनों की अवहेलना करनेवाला कभी बंधन मुक्त नहीं हो सकता । 511. मूल और फल एवं धम्मस्स विणओ, मूलं परमो से मुक्खो । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1170] - दशवैकालिक 922 धर्म का मूल विनय है और मोक्ष उसका अन्तिम फल है । - अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 184 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 512. विनय से इष्ट-प्राप्ति जेण कीत्ति सुयं सिग्छ, निस्सेसं चाभिगच्छइ । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1170] . - दशवैकालिक 922 विनय से यश, कीर्ति बढ़ती है और प्रशस्त श्रुतज्ञान के लाभ आदि से समस्त ईष्ट तत्त्वों की प्राप्ति होती है । 513. अविनीत, दुःखी दीसती दुहमेहंता । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1171] - दशवैकालिक 9200 अविनीत आत्माएँ दु:ख का अनुभव करती हुई नजर आ रही हैं। 514. संसार-स्रोत में दुःखी कौन ? • जे अ चंडे मिए थद्धे, दुव्वाई नियडी सढे । बुज्झइ से अविणीअप्पणा, कटुं सोअययं जहा ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1171] - दशवकालिक 923 जो मनुष्य क्रोधी, अविवेकी, अभिमानी, दुर्वादी, कपटी और धूर्त है, वह अविनीतात्मा संसार के प्रवाह में वैसे ही प्रवाहित होता रहता है जैसे जल के प्रवाह में पड़ा हुआ काष्ठ। 515. मूर्योपदेश कोप-हेतु विणयं पि जो उवाएणं, चोइओ कुप्पई नरो । दिव्वं सो सिरिमिज्जंति, दंडेण पडिसेहए ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1171] - दशवैकालिक 92/4 कोई महापुरुष सुंदर शिक्षा द्वारा जब किसी मनुष्य को विनय-मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं तब वह कुपित हो जाता है। ऐसी स्थिति में वह स्वयं अपने द्वार पर आई हुई दिव्य लक्ष्मी को डंडा मारकर भगा देता है। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 185 ) Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 516. सुविनीत सुखी दीसंति सुहमेहंता । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1171] - दशवैकालिक 921 सुविनीत आत्माएँ सुख का अनुभव करती हुई देखी जाती है । 517. गुरु-सेवा-फल जे आयरिअ उवज्झायाणं, सुस्सूसा वयणंकरा । तेसिं सिक्खा पवड्ढति, जलसित्ता इव पायवा ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1172] . - दशवैकालिक 92/12 जो अपने आचार्य एवं उपाध्यायों की शुश्रूषा-सेवा तथा उनकी आज्ञाओं का पालन करता है, उसकी शिक्षाएँ-विद्याएँ वैसे ही बढती हैं | जैसे जल से सींचे हुए वृक्ष बढ़ते हैं। 518. बाँटो, मुक्ति असंविभागी न हु तस्स मुक्खो। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1173] - दशवकालिक 9223 . जो संविभागी नहीं है अर्थात् प्राप्त सामग्री को साथियों में बाँटता नहीं है, उसकी मुक्ति नहीं होती। 519. दुर्वचन-लोहकंटक मुहुत्त दुक्खाउ हवंति कंटया, अओ मया तेऽवि तओ सुद्धरा । वायादुरुत्ताणि दुरुद्धराणि, वेराणुबंधीणि महब्भयाणि ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1173] : - दशवैकालिक 930 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 186 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोहे के काँटे अल्पकाल तक दुःखदायी होते हैं और वे भी शरीर से सहजतया निकाले जा सकते हैं, किन्तु दुर्वचन रूपी काँटे जन्म-जन्मान्तर के वैर की परम्परा बढ़ानेवाले और महाभयकारी होते हैं । 520. पूज्य कौन ? अलद्धअं नो परिदेवइज्जा, लद्धं न वीकत्थइ (वा) स पुज्जो ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1173] - दशवैकालिक 93/4 जो लाभ न होने पर खिन्न नहीं होता है और लाभ होने पर अपनी बढ़ाई नहीं हाँकता है, वहीं पूज्य है। 521. विनय-वर्तन रायणाहिएसुं विणयं पउंजे । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1173] - दशवकालिक 8/41 एव 983 बड़ों (रत्नाधिक) के साथ विनयपूर्वक व्यवहार करो । 522. वही पूज्य जो छंदमाराहयई स पुज्जो । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1173] - दशवकालिक 9AM जो गुरुजनों की भावनाओं का आदर करता है, वही शिष्य पूज्य होता है। 523. गुरु-शुश्रूषा में जागरूक आयरिअं अग्गिमिवा हि अग्गी, सूस्सूसमाणो पडिजागरिज्जा ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1173] - दशवैकालिक 9AM अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 187 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसे अग्निहोत्री अग्नि की शुश्रूषा करता हुआ जागृत रहता है ठीक वैसे ही आचार्य (गुरु) की शुश्रूषा करते हुए शिष्य को जागरुक रहना चाहिए। 524. वचन सहिष्णु अणासए जो उ सहिज्ज कंटए । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1173] - दशवैकालिक 986 जो कानों में प्रवेश करते हुए वचन रूपी काँटों को सहन करता है, वहीं पूज्य है। 525. पूजनीय कौन ? गुरुं तु नासाययई स पुज्जो । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1173] - दशवैकालिक 9/32 जो गुरु की आशातना नहीं करता, वही पूज्य है । 526. वही पूज्य संतोसपाहन्नरए स पुज्जो । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1173] - दशवकालिक 93/ जो संतोष के पथ में रमता है, वहीं पूज्य है । 527. शिक्षा-प्राप्ति किसे ? जस्सेयं दुहओ नायं, सिक्खं से अभिगच्छई। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1173] - दशवैकालिक 92/22 जिसे ये दो बातें-विनीत को सम्पत्ति और अविनीत को विपत्ति ज्ञात है, वही कल्याणकारिणी शिक्षा प्राप्त कर सकता है । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 188 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 528 संपत्ति - विपत्तिभागी विवत्ती अविणीअस्स, संपत्ती विणिअस्स य । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1173] दशवैकालिक 9/2/22 अविनीत विपत्ति का भागी होता है और विनीत संपत्ति का । 529. साधु - असाधु किससे ? गुणेहि साहू अगुणे हि ऽ साहू । - सदगुणों से साधु कहलाता है और दुर्गुणों से असाधु 1 530. आत्मज्ञानी विआणिआ अप्पगमप्पएणं, जो रागदोसेहि समोस पुज्जो ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1174] दशवैकालिक 9/3/11 जो अपने को अपने द्वारा जानकर राग-द्वेष के प्रसंगों में सम रहता - - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1174] दशवैकालिक 9311 है, वही साधक पूज्य 531. निष्कषायी पूज्य है । - चक्कसायावगए स पुज्जो । 532. वही पूज्य जो चार कषाय से रहित हैं, वही पूज्य है । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1174] दशवैकालिक 9/3/14 ― थंभं च कोहं च चए, स पुज्जो । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1174] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 189 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिक 9/3/12 जो अहंकार और क्रोध का त्याग करता है, वही पूज्य होता है - 533. ग्राह्य हेय क्या ? गिण्हाहिं साधुगुण मुंच असाहू | - - सदगुणों को ग्रहण करो और दुर्गुणों को छोड़ो । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1174] दशवैकालिक 9/3/11 534. भाषा - विवेकी पूज्य ओहारणि अप्पिअकारिणि च, भासं न भासिज्ज सया स पुज्जो ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1174] दशवैकालिक 9/3/9 जो निश्चयात्मक और अप्रियकारिणी भाषा का प्रयोग नहीं करता, वही पूज्य है । 535. जितेन्द्रिय पूज्य जिइंदिए जो सहइ, स पुज्जो । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1174] दशवैकालिक 9/3/8 जितेन्द्रिय होता हुआ जो कटु वचनों को सहता है, वही पूज्य है । 536. मधुर वचन है माखन मिश्री हितं मितं चापरुषं, ब्रुवतोऽनुविचिन्त्य च । - - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1175] द्वात्रिंशत् द्वात्रिंशिका 29/5 सोच-विचार कर हित, मित और मृदु बोलना चाहिए । 537. जिनवचन का मूल विनयेन विना न स्या-ज्जिन प्रवचनोन्नतिः । पयः सेकं विना किं वा, वर्धते भूवि पादपः ॥ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड- 6 • 190 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1176] द्वात्रित् द्वात्रिंशिका 29/17 विनय के बिना जिनप्रवचन का उत्कर्ष नहीं होता । क्या बिना जल से सींचे वृक्ष वृद्धि पा सकते हैं ? कदापि नहीं । 538. मनो- विचिकित्सा कहं कहं वा वितिगिच्छति — जाना चाहिए । सूत्रकृतांग 1/14/6 मुमुक्षु को किसी न किसी तरह मन की विचिकित्सा से पार हो - । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1177 ] 539 त्रुटि - स्वीकार, भव-पार डहरेण वुड्ढेणणुसासिए उ, राइणिए णावि समव्वएण । सम्मं तयं थिरतो णाभिगच्छे, णिज्जंतए वावि अपारए से ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1177] सूत्रकृतांग 1/14/7 गुरु सान्निध्य में निवास करते हुए किसी साधु से किसी विषय में प्रमादवश भूल हो जा तो अवस्था और दीक्षा में छोटे या बड़े साधु द्वारा अनुशासित-शिक्षित किए जाने पर या भूल सुधारने के लिए प्रेरित किए जाने पर यदि वह उसे सम्यक्तया स्वीकार नहीं करता है, तो वह संसार समुद्र को पार नहीं कर सकता । 540. निद्रा - प्रमाद-त्याग - - निद्दंच भिक्खू न पमाय कुज्जा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1177] सूत्रकृतांग 1/14/6 श्रमण, निद्रा और प्रमादादि नहीं करे । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 191 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 541. बोलो ! कर्कश नहीं ण यावि किंचि फरसं वदेज्जा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1178] - सूत्रकृतांग 1440 तनिक भी कठोर भाषा मत बोलो । 542. असत् आचरण-वर्जन सेयं खु मेयं ण पमाय कुज्जा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1178] - सूत्रकृतांग 144N यह मेरे लिए निश्चय ही कल्याणकारी है, ऐसा समझाकर प्रमाद अर्थात् असत् आचरण नहीं करे । 543. निर्देशक गुरु सूरोदये पासति चक्खुणेव । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1178) - सबकतांग 10403 सूर्योदय होने पर (प्रकाश होने पर) भी आँख के बिना नहीं देखा जाता है, वैसे ही स्वयं में कोई कितना ही चतुर क्यों न हो, किन्तु वह निर्देशक गुरु के अभाव में तत्त्वदर्शन नहीं कर पाता । 544. यथार्थोपदेष्टा णो छायए णो ऽवि य लूसएज्जा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1179] - सूत्रकृतांग 1419 उपदेशक सत्य को कभी छिपाए नहीं, और न ही उसे तोड़-मरोड़ कर उपस्थित करे। 545. परिहास-वर्जन ण या 5 वि पन्ने परिहास कुज्जा । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6• 192 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1179] - सूत्रकृतांग 149 प्रज्ञावान् पुरुष किसी की भी हंसी-मजाक नहीं करें । 546. बोलो, निश्चयात्मक नहीं ! ण या ऽऽ सिया वाय वियागरेज्जा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1179] - सूत्रकृतांग 1449 साधक स्याद्वाद से रहित (निश्चयकारी) वचन न बोले । 547. अहंकार-प्रदर्शन हेय माणं ण सेवेज्ज पगासणं च । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1179] - सूत्रकृतांग 1149 साधक गर्व न करे और न ही स्वयं को बहुश्रुत एवं महातपस्वी के ररूप में प्रकाशित करे । 548. मित-मधुर निरुद्धगं वावि न दीहइज्जा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1180] - सूत्रकतांग 144/23 थोड़े से में कही जानेवाली बात को व्यर्थ ही लम्बी न करें । 549. अनेकान्त युक्तवचन विभज्यवायं च वियागरेज्जा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1180] - सूत्रकृतांग 144/22 विचारशील पुरुष सदा विभज्यवाद अर्थात् स्यावाद युक्त वचन का प्रयोग करे । 550. निरपेक्ष साधक णो तुच्छए णो य विकथइज्जा । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 193 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1180 ] सूत्रकृतांग 1/24/21 ज्ञानी साधक न किसी को तुच्छ - हल्का बताए और न स्व-पर झूठी प्रशंसा करे । 551. कठोर सत्य मत बोलो ! ओए तहीयं फरुसं वियाणे । - सत्य वचन भी यदि कठोर हो, तो मत बोलो । 552. समयोचित भाषा वियागरेज्जा समयासुपन्ने । Bwa श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1180 ] सूत्रकृतांग 1/14/21 सुप्रज्ञ समयानुसार बोले । 553. अकषायी भिक्षु अकसाइ भिक्खू । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1180] सूत्रकृतांग 1/14/21 श्रमण कषाय-भाव से रहित बनें । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1180] सूत्रकृतांग 1/14/22 - 554. पीड़ोत्पादक भाषा त्याज्य ण कत्थइ भास विहिंसइज्जा । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1180] सूत्रकृतांग 1/14/23 ऐसी भाषा मत बोलो जिससे किसी को पीड़ा पहुँचे । 555. शुद्ध वचन आणांइसुद्धं वयणं भिज्जे । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 194 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1180] - सूत्रकृतांग 144/24 जिनाज्ञानुसार शुद्ध वचन बोलो । 556. निर्दोष वचन अभिसंथए पावविवेग भिक्खू । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1180] - सूत्रकृतांग 144/24 भिक्षु पाप का विवेक रखता हुआ निर्दोष वचन बोले । 557. प्रस्तुति-शास्त्रानुरूप अलुसए णो पच्छन्नभासी, णो सुत्तमत्थं च करेज्जताई । सत्थार भत्ती अणुवीइवायं, सुयं च सम्म पडिवाययंति ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1181] - सूत्रकृतांग 114/26 - साधु आगम के अर्थ को दूषित न करें तथा वह सिद्धान्त को छिपाकर न बोले । आत्मत्राता-स्व परत्राता साधु सूत्रार्थ को अन्यथा (उलट-पुलट) न करें । शिक्षादाता - प्रशास्ता गुरु की सेवा-भक्ति का ध्यान रखते हुए सम्यक्तया सोच विचार कर कोई बात कहें, गुरु से जैसा सुना है, वैसा ही दूसरे के समक्ष सिद्धान्त या शास्त्रवचन का प्रतिपादन करें । 558. बोलो, मित नातिवेलं वदेज्जा । . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1181] - सूत्रकृतांग 144/25 आवश्यकता से अधिक मत बोलो । 559. सम्यग्दृष्टि से दिट्टिमं दिट्ठि ण लूसएज्जा । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 195 ) Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1181 ] सूत्रकृतांग 1/14/25 सम्यग्दृष्टि साधक को सत्यदृष्टि का अपलाप नहीं करना चाहिए 560. विनय - सौरभ विणण णरो गंधेण चंदणं सोमयाइ रयणियरो । महुर रसेण अमयं जणपियत्तं लहइ भुवणे ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1181] धर्मरत्नप्रकरण 1 अधि. जैसे सुगन्ध के कारण चन्दन, सौम्यता के कारण चन्द्रमा औ मधुरता के कारण अमृत जगत्प्रिय है वैसे ही विनय के कारण मनुष्य समस्त जगत् में सबका प्रिय हो जाता है । 561. अनुशासित श्रमण एत्थारभत्ती अणुवीइवायं । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1181] सूत्रकृतांग 1/14/26 श्रमण प्रशास्ता गुरु की भक्ति का ध्यान रखता हुआ सोच-विचारक कोई बात कहें । 562. विनीत सर्वजनप्रिय - सुविसुद्धसीलजुत्तो, पावड़ कीत्तिं जसं च इहलोए सव्वजणवल्लहो वि य, सुहगड़भागी य परलोए ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1181 ] धर्मरत्नप्रकरण 1 अधि. 4 गुण विशुद्धशील-सदाचार सम्पन्न विनीत व्यक्ति इस लोक में यश कीर्ति, मान-सम्मान व प्रतिष्ठा पाता है तथा संसार में सर्ववल्लभ बन जाता है और परलोक में सदगति का भागी बनता है । 563. देव तुल्य कौन ? द्वे एव देवते व मातापिता च जीवलोकेऽस्मिन् । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 196 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1182] - आवश्यक कथा ] अ.1 इस संसार में माता और पिता ये दोनों ही देवतुल्य हैं। 564. साधु-सेवा के फल उपदेशः शुभो नित्यं, दर्शनं धर्मचारिणाम् । स्थाने विनय इत्येतत्, साधु सेवा फलं महत् ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1191] - धर्मबिन्दु । अधि. शुभ उपदेश का मिलना, धार्मिक पुरुषों के नित्यदर्शन और उचित स्थान पर विनय करना-ये साधु सेवा के महान् फल हैं । 565. न देय, न आदेय न ग्राह्याणि न देयानि, पञ्च द्रव्याणि पंडितैः । अग्निर्विषं तथा शस्त्रं, मद्यमांसं च पञ्चमम् ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1208] - धर्मसंग्रह 2/83 पण्डितों के द्वारा आग, जहर, शस्त्र, मदिरा और मांस-ये पाँच वस्तुएँ न किसी को दी जानी चाहिए और न ली जानी चाहिए। 566. पापभीरु श्रावक महुमज्जमंस भेसज्जमूल सत्थग्गिजंतमंताई । न कयावि हुदायव्वं, सङ्केहिं पावभीरुहिं ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1208] - धर्मरत्नप्रकरण सटीक 1/614 पापभीरु श्रावकों के द्वारा निम्नांकित वस्तुएँ कदापि नहीं दी जानी चाहिए । मधु, मदिरा, मांस, औषधि-मूल, शस्त्र, अग्नि और जन्त्र-मन्त्रादि । 567. लक्ष्यानुरूप गति अणुसोयपट्टिए बहुजणम्मि पडिसोयलद्धलक्खेणं । पडिसोयमेव अप्पा, दायव्वो होउकामेणं ॥ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 197 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1247] - दशवैकालिक चूलिका 22 ___बहुत से लोग अनुस्रोत-विषय प्रवाह के वेग से संसारसमुद्र की ओर प्रस्थान कर रहे हैं, किन्तु जो मुक्त होना चाहता है जिसे प्रतिस्रोत अर्थात् विषय भोगों के प्रवाह से विपरीत होकर संयम के प्रवाह में गति का लक्ष्य प्राप्त है; उसे अपनी आत्मा को प्रतिस्रोत की ओर (सांसारिक विषयभोगों के जल प्रवाह से प्रतिकूल) ले जाना चाहिए । 568. अनुस्रोत-प्रतिस्रोत अणुसोय सुहोलोगो, पडिसोओ आसवो सुविहियाणे । अणुसोओ संसारो, पडिसोओ तस्स उत्तारो ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1247] - दशवकालिक चूलिका 23 अनुस्रोत (विषयविकारों के अनुकूल प्रवाह) संसार है और प्रतिस्रोत उससे बाहर निकलने का उपाय द्वार है । सामान्य संसारी मनुष्य अनुस्रोत अर्थात् विषयविकारों के अनुकूल प्रवाह में बहनेवाले और उसीमें सुखानुभूति करनेवाले होते हैं जबकि सन्तपुरुषों का लक्ष्य प्रतिस्रोत अर्थात् जन्म-मरण से पार जाने का होता है। 569. सत्सहवास असंकिलिटेहिं समं वसेज्जा, मुणी चरितस्स जओ न हाणी । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1248] - दशवैकालिक चूलिका 22 मुनि संक्लेशरहित साधुओं के साथ रहे, जिससे चारित्रादि गुणों की हानि न हो। 570. मुनि-मर्यादा गिहिणो वेयावडियं न कुज्जा, अभिवायणं वंदणं पूयणं वा ॥ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 198 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1248] दशवैकालिक चूलिका 29 मुनि गृहस्थ का वैयावृत्य (सेवा) न करे और न ही उनका - G अभिवादन, वंदन और पूजन ही करे । 571. अन्तर्निरीक्षण किं मे परो पासइ किं च अप्पा ? किं वाहं खलियं न विवज्जयामि ? इच्चेव सम्मं अणुपासमाणो, अणागयं नो पडिबंध कुज्जा ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1248] दशवैकालिक चूलिका 213 क्या मेरी स्खलना (त्रुटि) को दूसरा कोई देखता है ? अथवा क्या अपनी भूल को मैं स्वयं देखता हूँ ? अथवा कौन - सी स्खलना मैं त्याग नहीं कर रहा हूँ ? इसप्रकार आत्मा का सम्यक् अन्तर्निरीक्षण करता हुआ मुनि अनागत में प्रतिबंध न करे अर्थात् वह अपने दोषों- भूलों को तत्काल सुधारने में लग जाए, भविष्य पर न टाले कि मैं इस भूल को कल, परसों या बाद में सुधार लूँगा । 572. शीघ्र संभल ! - जत्थेव पासे कइ दुप्पउत्तं, कारण वाया अमाणसेणं । तत्थेव धीरो पडिसाहरेज्जा, आइन्नओ रिवप्पमिवक्खलीणं ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1248] दशवैकालिक चूलिका 2/14 धीर साधक जब कभी अपने आपको मन-वचन और काया से कहीं भी दुष्प्रवृत्त होता देखे तो वह शीघ्र संभल जाए। जैसे उत्तम जाति का अश्व लगाम खींचते ही शीघ्र संभल जाता है । - - अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6• 199 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 573. प्रतिबुद्ध संयमित जस्सेरिया जोग जिइंदियस्स, धिमओ सप्पुरिसस्स निच्चं । तमाहु लोए पडिबुद्धजीवी, सो जीवइ संजम जीविएणं ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1248] दशवैकालिक चूलिका 2/15 जिस धृतिमान् जितेन्द्रिय सत्परुष के मन-वचन-काया के योग नित्य वश में रहते हैं, उसे ही लोक में सदा जाग्रत कहा जाता है । वह सत्पुरुष हमेशा संयमी जीवन जीता है । 574. आत्म- विचारणा - जो पुव्वरत्तावररत्तकाले, संपहए अप्पगमप्पगेणं । किं मे कडं, किं च मे किंच्चसेसं ? किं सक्कणिज्जं न समायरामि ? ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1248] दशवैकालिक चूलिका 2/12 शेष रहा जो साधक रात्रि के प्रथम प्रहर और पिछले प्रहर में अपनी आत्मा का अपनी आत्मा द्वारा सम्यक् अन्तर्निरीक्षण करता है कि मैंने क्या (कौनसा करने योग्य कृत्य) किया है ? मेरे लिए क्या ( कौन-सा ) कृत्य है ? वह कौन-सा कार्य है, जो मेरे द्वारा शक्य है, किन्तु मैं प्रमादवश नहीं कर रहा हूँ ? - 575. महापाप क्या ? ब्रह्महत्या सुरापानं, स्तेयं गुर्वङ्गनागमः । महान्ति पातकान्याहु, रेभिश्च सहसङ्गमम् ॥ (संसर्गश्चापि तैः सह ) - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1249] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड- 6 • 200 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मनुस्मृति 11/54 ब्रह्म हत्या, मदिरापान, सुवर्ण आदि की चोरी, गुरु-स्त्रीगमन, और पाप करनेवालों के साथ संसर्ग-ये बड़े भारी पातक हैं। 576. काम-भोग, अग्निघृतवत् न जातु कामः कामाना-मुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवर्मेव भूय एवाभिवर्धते ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1256] - मनुस्मृति 204 एवं महाभारत आदिपर्व 65 कामनाओं के उपभोग से काम-विकार की कभी शांति नहीं होती, प्रत्युत घृत डालने पर अग्नि की तरह वह और ज्यादा बढ़ती है ! 577. विष और विषय में महदन्तर विषस्य विषयाणां च, दूरमत्यन्तमन्तरम् । - उपभुक्तं विषं हन्ति, विषयाः स्मरणादपि ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1256] - उपदेशप्रासाद विष और विषयों में बहुत बड़ा अन्तर है, विष तो खाने से मारता है किंतु विषय तो स्मरणमात्र से नष्ट कर देता है । 578. काम-भोग से अतृप्त तण कद्वेण व अग्गी, लवणजलो वा नई सहस्सेहिं । न इमो जीवो सक्को, तिप्पेउं काम भोगेहिं ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1257] - आतुर प्रत्याख्यान 50 एवं महाप्रत्याख्यान 55 जिसप्रकार तृण और काष्ठ से अग्नि तथा हजारों नदियों से समुद्र तृप्त नहीं होता है, उसीप्रकार रागासक्त आत्मा काम-भोगों से तृप्त नहीं हो पाती है। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 201 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 579. भोजन से अतृप्त तणकटेण व अग्गी, लवणजलो वा नईसहस्सेहिं । न इमो जीवो सक्को, तिप्पेउं भोयणविहीए ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1257] - आतुरप्रत्याख्यान 57 जिसप्रकार तृण और काष्ठ से अग्नि तथा हजारों नदियों से समुद्र तृप्त नहीं होता है, उसीप्रकार रागासक्त आत्मा भोजन विधि से तृप्त नहीं हो पाती है। 580. वीतरागता-फल वीयरागयाएणं णेहाणु बंधणाणि तण्हाणुबंधणाणि य वोच्छिदइ । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1336] - उत्तराध्ययन 29/45 वीतरागता से स्त्री-पुत्र, सगे-सम्बन्धी आदि का स्नेह और धनधान्य आदि की तृष्णा नष्ट हो जाती है । 581. धर्म, दीपक दीवे व धम्मं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1391] __- सूत्रकृतांग 1/6/4 धर्म दीपक के समान है। 582. ब्रह्मचर्य सवोत्तम तप तवेसु व उत्तम बंभचे। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1394] - सूत्रकृतांग 1/6/23 तपों में सर्वोत्तम तप-ब्रह्मचर्य है । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 202 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 583. निष्पाप सत्य सच्चेसु वा अणवज्जं वयंति । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1394] - सूत्रकृतांग 1/6/23 सत्य वचनों में भी अनवद्य सत्य अर्थात् हिंसा रहित सत्यवचन 584. निर्वाण श्रेष्ठ निव्वाण सेट्ठा जह सव्वधम्मा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष. [भाग 6 पृ. 1394] - सूत्रकृतांग 1/6/24 सभी धर्मों में निर्वाण को श्रेष्ठ कहा गया है । 585. आस्रव-संवर क्या ? पमाय कम्ममाहंसु, अप्पमायं तहाऽवरं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1404] - सूत्रकृतांग 1/83 प्रमाद को कर्म-आस्रव और अप्रमाद को अकर्म - संवर कहा है। 586. असंयत आरओ परओ वाऽवि, दुहाऽविय असंजया । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1404] - सूत्रकृतांग 1/8/6 कुछ लोग लोक और परलोक-दोनों ही दृष्टियों से असंयत होते हैं । 587. अज्ञानी, पापी राग दोसस्सिया बाला, पावं कुव्वंति ते बहुं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1405] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 203 - Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सूत्रकृतांग 1/8/8 अज्ञानी जन राग-द्वेष का आश्रय लेकर बहुत पाप करते हैं । 588. स्वजन संवास अनित्य अणियते अयं वासे, णायएहिं सुहीहिं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1405] - सूत्रकृतांग 1/812 सुखशील ज्ञातिजनों और सुहृद्जनों के साथ जो संवास है, वह भी अनित्य है। 589. भोग, दुःखावास भुज्जो भुज्जो दुहोवासं, असुहत्तं, तहा तहा। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1405] - सूत्रकृतांग 1/8nl भोगों की तल्लीनता बार-बार दु:खों का ही घर है और ज्यों-ज्यों दुःख, त्यों-त्यों अशुभ कर्म बढ़ते ही रहते हैं। 590. वैर-वृत्ति वेराई कुव्वइ वेरी, तओ वेरेहिं रज्जती । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1405] - सूत्रकृतांग 1/81 वैरवृत्तिवाला व्यक्ति जब देखो तब वैर ही करता रहता है । वह एक - के बाद एक किए जानेवाले वैर से वैर को बढ़ाते रहने में ही रस लेता है । 591. पाप, दुःखद पावोवगा य आरंभा, दुक्खफासा य अंतसो । .. - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1405] - सूत्रकृतांग 1.37 पापानुष्ठान अन्तत: दु:ख ही देते हैं । ___अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6• 204 ) Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 592. ज्ञानी-शरण आरियं उवसंपज्जे। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1406] - सूत्रकृतांग 1/803 ज्ञानी की शरण में जाओ। 593. प्रशिक्षण सिक्खं सिक्खेज्ज पंडिए । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1406] __ - सूत्रकृतांग 1/8ns पंडित पुरुष पण्डितमरण की शिक्षा का प्रशिक्षण लें । 594. अनासक्ति - मेहावी, अप्पणो गिद्धिमुद्धरे । __ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1406] . - सूत्रकृतांग 1/813 बुद्धिमान् साधक चारों ओर से अपनी आसक्ति हटा दे । 595. संलेखना-प्रशिक्षण जं किंचुवक्कमंजाणे, आउक्खेमस्स अप्पणो । तस्सेव अन्तरा खिप्पं, सिक्खं सिक्खेज्ज पंडिए ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1406] - सूत्रकृतांग 1/845 यदि पंडित पुरुष किसी प्रकार अपनी आयु का क्षयकाल जान लें तो उससे पूर्व शीघ्र ही वह संलेखना रूप शिक्षा का प्रशिक्षण लें । 596. रहो, कच्छपवत् जहा कुम्मे स अंगाई, सए देहे समाहरे। एवं पावाइं मेधावी, अज्झप्पेण समाहरे ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1406] - सूत्रकृतांग 1/846 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 . 205 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कछुआ जिसप्रकार अपने अंगों को अन्दर में समेट कर खतरे से बाहर हो जाता है वैसे ही साधक भी अध्यात्म योग के द्वारा अन्तर्मुख होकर अपने को पाप वृत्तियों से सुरक्षित रखें । 597. बोलो, परिमित अप्पं भासेज्ज सुव्वए। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1407] - सूत्रकृतांग 1/8/25 सुव्रती साधक कम बोले । 598. संयम में यत्नशील खंते अभिनिव्वुडे दंते, वीतगिद्धी सदा जए। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1407] - सूत्रकृतांग 1/8/25 आत्महितैषी साधक क्षमाशील, क्रोध-लोभादि कषाय से रहित परम शान्त, जितेन्द्रिय और विषयभोगों में अनासक्त रहकर संयम में सदा प्रयत्नशील बने । 599. तपश्चरण अशुद्ध तेसिं पि तवो ण सुद्धो, निक्खंता जे महाकुला। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1407] - सूत्रकृतांग 1/8/24 जो महान् कुल में जन्मे हुए हैं, लेकिन जिनका ध्येय अपनी यश: कीर्ति और पूजा प्रतिष्ठा ही हैं उनकी तपश्चर्या भी शुद्ध नहीं है । 600. खाओ-पीओ, मित अप्पपिंडासि पाणासि । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1407] - सूत्रकृतांग 1/8/25 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6• 206 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुव्रती साधक कम खाए, कम पीये I 601. देहभाव - विसर्जन हो. झाण जोगं समाहट्टु, कायं विउसेज्ज सव्वसो । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1407] सूत्रकृतांग 1/8/26 ध्यानयोग का अवलम्बन कर देहभाव का सर्वतोभावेन विसर्जन करना चाहिए । 602. जय-पराजय सवीरिए पराइणइ, अवीरिए पराइज्जइ । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1408] भगवती सूत्र 1/8 शक्तिशाली (वीर्यवान्) जीतता है और शक्तिहीन (निर्वीय) पराजित जाता है । - 603. जीव-स्वरूप जीवा णो वड्ढंति नो हायंति अवट्टिया । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1419 ] भगवतीसूत्र 5/8 जीव न बढ़ते हैं, न घटते हैं, किंतु सदा अवस्थित रहते हैं । - - 604. वैयावृत्त्य - परिभाषा वैयावृत्त्यम-भक्तादिभि धर्मोपग्रहकारिवस्तुभिरूपग्रहकरणे । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1451] स्थानांग टीका 5/1 धर्म में सहारा देनेवाली आहार आदि वस्तुओं द्वारा उपग्रह सहायता करना "वैयावृत्त्य" कहलाता है। ('वैयावृत्त्य' शब्द सेवा के अर्थ का प्रतीक है ।) अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 207 - Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 605. रूग्ण-सेवा से निर्जरा गेलण वेयावच्चे करेमाणे समणे निग्गंथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवति । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1451] - व्यवहार 10/37 श्रमण रुग्णसाथी की सेवा करता हुआ महान् निर्जरा और महान पर्यवसान (परिनिर्वाण) करता है। 606. वैयावृत्य से तीर्थंकर वेयावच्चेणं तित्थयर नामगोयं कम्मं निबंधइ । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1460] - उत्तराध्ययन 29/43 वैयावृत्त्य (सेवा) से आत्मा तीर्थंकर होने जैसे उत्कृष्ट पुण्य कर्म का उपार्जन करती है। 607. भूख, वेदना णत्थि छुहाए सरिसया वियणा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 1624] - ओघनियुक्ति भाष्य 290 संसार में भूख के समान कोई वेदना नहीं है । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 208 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम परिशिष्ट अकारादि अनुक्रमणिका Page #218 --------------------------------------------------------------------------  Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकारादि अनुक्रमणिका अ 6 6 6. 6 6 46 47 107 130 148 149 6 150 181-1460 191 6 . 254 274 17. अत्तताए परिव्वए । अहणं वयमावन्नं । 38. . अदु इंखिणिया उपाविया । 65. अप्पाहारे तितिक्खए । 109. अन्नं इमं सरीरं अन्नोऽहं । 113. अत्थोमलं अणत्थाणं । 116. अम्मा पियरो भाया । 118. अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ । 120. अज्ञानं परमो रिपुः । 131. अणुमायं पि मेहावी । 133. अदेवे देवबुद्धिर्या । 144. अद्धाणं जो महंतं तु । 145. अम्मतायए भोगा। 146. अहोदुक्खो हु संसारो। 150. असासएसरीरम्मि। 156. __ अणवज्जेसणिज्जस्स । 170. असिधारागमणं चेव । . 171. अद्धाणं जो महंतं तु । 172. अहीवेगन्त दिट्ठिए । 188. अणिस्सिओ इहं लोए । 189. अज्झप्पज्झाण जोगेहिं । 190. अप्पसत्थेहिं दारेहिं । 210. अप्पणो थवणा, परेसु निंदा । 224. असिपंजरगया समराओ । 229. अणुवीयिभासी से णिग्गंथे । 294 294 294 295 295 295 295 300 300 300 327 327 6 330 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-60 211 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 330 426 443 457 • 459 6 6 459 463 510 697 714 6 723 232. अपघुवीय भासी से पिथे। 259. अबंधचरियं घोरं । 267. अप्पं पि सुयमहियं । 284. अहं ममेति मन्त्रोऽयं । 289. अमि करते मित्रं । 290. अर्थवन्त्युपपनानि । 292. अभयारी जे केइ। 300. अत्यंगम्मि आइच्चे। 313. असारस्य पदार्थस्य । . 315. · अजीका जीव पट्ठिया । 319. अणंते नितिए लोए । 322. अणाणाए मुणि ो पडिलेहति । 328. अणाणाए पुढावि एगे नियति । 336. अपारंगमा एए नो। 339. अणोहंतरा ए ए नो। 342. अतीरंगमा ए ए। 351. अमराइय महासट्ठी । 357. अविमणे वीरे. तम्हा । 382. असमियंति मन्नमाणस्स । । 393. अरूपी सता अपयस्सपयं नत्थि । 409. अप्पणवा पट्टा वा । 412. अविस्सासो य भूयाणं । • 417. अवि अप्पणो विदेहमि । 420. अहिंसा निउणा दिवा ।। 460. अजुत्ताणि सिक्खिज्जा । 463. अनुसासिओ न कुप्पिज्जा । 478. अप्पामेव दमेयव्यो । 6 6 727 727 731 ___731 131 734 736 · 747 749 887 887 887 888 6 1159 6 6 1160 1162 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-60 212 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8888838 388383838330 388 1162 6 1162 1164 493. 1166 1173 1173 1173 1180 1180 567. 1181 1247 1247 1248 479. अप्पा हु खलु दुद्दमो । 480. अप्पा दंतो सुही होइ । 488. अणुसासणमोवायं । अप्पाणं पि ण कोवए । 518. असंविभागी न हु तस्स मुक्खो । 520. अलद्धअं नो परिदेवइज्जा । 524. अणासए जो उ सहिज्ज । 553. अकसाइ भिक्खू । 556. अभिसंथए पाव विवेग भिक्खू । 557. अलुसए णो पच्छन्नभासी । अणुसोयपट्ठिए बहुजणम्मि। 568. अणुसोय सुहोलोगो। 569. असंकिलिट्रेहिं समं वसेज्जा । 588. अणियते अयं वासे । 597. अप्पं भासेज्ज सुव्वए । 600. अप्पपिंडासि पाणासि । 142 असासया वासमिणं । आ आयगुत्ते सयादते । आहारोवचया देहा। 122. आकाङ्क्षा दुःखमुत्तमम् । आ-संबरो अ सेयंबरो अ। 340. आयाणिज्जं च आयाय तंमि । 389. आवटुं तु पेहाए एत्थ । 403. आहच्च हिंसा समितस्स जाउ। 425. आगमवलिया समणा । 437. आरंभसत्ता पकरेंति संग। 1405 1407 1407 6 294 294 15. 45 126 191 276 731 6 748 871 906 6 . 6 1062 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-60213 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ससससस्त मा 1158 1158 1160 481. 1163 1163 454. आणानिद्देसकरे । 456. आणाऽनिद्देसकरे । 467. आहच्च चंडालियं कटु । आयरिएहिं वाहितो। 482. आलवंते लवंते वा। 483. आसणगओ ण पुच्छिज्जा । 495. आयरियं कुवियं नच्चा ।। 506. आयरिय पाया पुण अप्पसन्ना । 507. आसायणं नत्थि मोक्खो । । 523. आयरिअं अग्गिमिवाहि अग्गी । 555. आणाइसुद्धं वयणं भिज्जे । 586. आरओ परओवाऽवि । 592. आरियं उवसंपज्जे । 1163 1166 1169 ___ 1169 1173 1180 6 6 1404 1406 इ 6 6 77. इच्छालोभं न सेविज्जा । 101. इक्को जायइ मरइ । 106. इक्को करेइ कम्मं । 128. इय दुल्लह लंभं माणुसत्तणं । 338. इणमेव नावकंखंति । 149. इमं सरीरं अणिच्चं । इहलोगे निप्पिवासस्स । 399. इमंपि जाइ धम्मयं । 435. इह संतिगया दविया । 133 140 148 248 731 294 296 806-807 1061 177. 6 6 6 6 32. 74. इंगिताकारै ज्ञैयैः। इंदिएहि गिलायन्तो । 6 6 83 132 -- ( अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 214 ) Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 130. 173. 304. 320. 344. 376. 391. 564. 6. 10. 30. सक्ति का अश उड् अहे तिरियं च । उपाध्यायान् दशाचार्य: । उग्गं महव्वयं बंभं । उलूक- काक- मार्जार । कसं जणं मं । उद्देसो पासगस्स नऽत्थि । उट्ठिए नो पमायए । उड्ढं सोया अहे सोया । उपदेश: शुभो नित्यं । एक रात्रौषितस्यापि । एयं खु णाणिणो सारं । एगग्गचित्तेणं जीवे । 41. 61. 62. 87. 94. 174. एवं धम्मंपि काउणं । 175. 251. 286. 306. 326. 346. 371. उ एगे मरणे अंतिम सारीरियाणं । एगे अहमंसि, न मे अत्थि कोइ । गागिणमेव अप्पाणं । ए एवं धम्मं अकाऊण । एगे मोक्खे | गोऽहं न त्थि मे कोइ । एक भक्ताशनान्नित्य । एसा जिणाणआणा । एवं उवट्टियस्सवि आलोए उ । अभिधान राजेन्द्र कार 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 43 251 295 510 724 732 743 748 1191 3333 34 43 एत्थ मोहे पुणो पुणो सन्त्रा । एस वीरे पसंसिए । एत्थवि बाले परिपच्चमाणे । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 215 83 108 127 127 137 137 295 295 431 457 510 727 733 742 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33333333 6 742 6. 742 6 1169 6 1170 . 1181 372. एत्य मोहे पुणो पुणो । 373. एगे रुवेसु गिद्धे परिणिज्जमाणे । 508. एवाऽऽयरियं उवचिट्ठएज्जा । 511. एवं धम्मस्स विणओ। 561. एत्थारभत्ती अणुवीइ वायं । ओ 534. ओहारणिं अप्पिअकारिणिं च । 551. ओए तहीयं फरुसं वियाणे । . अं 70. अंतो बहिं विस्सिज्ज । 345. अंतो अंतो पइ देहंतराणि । 387. अंजु चेय पडिबुद्धजीवी । 1174 1180 6 131 733 747 130. 136 179. 66. कसाये पयण किच्चा । 82. कयपावोवि मणूसो । कप्पिओ फालिओ छिन्नो। 458. कणकुंडगं जहित्ताणं । 468. कडं कडे त्ति भासिज्जा । 470. कसं व दट्ठ माइन्नो।। 538. कहं कहं वा वितिगिच्छतिन्ने । 6 297 1159 1160 1160 1177 6 46. कामभोगाणुगएणं । 240. कारणसएसु लुद्धो लोलो। 347. कामा दुरतिक्कमा । 349. काम कामी खलु अयं पुरिसे । 472. कालेण य अहिज्जित्ता । 6 6 6 6 6 118 331 733 733 1160 . अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-60 216 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 235. कुद्धो........सच्चं सीलं विणयं हणेज्ज । 242. कुद्धो चंडिक्किओ मणूसो । 335. कुण्इं कम्माइं बाल पकुव्वमाणे । 331 331 731 -741 959 431. कुज्जा साहूहि संथवं ।। 201. कृत्स्नकर्मक्षयो मुक्तिः । 316 445 97. 138 139 330 330 275. केवलियनाण लंभोऽनण्णत्थ । को 96. कोहं खमाइमाणं ।। को दुक्ख पाविज्जा ? 231. कोहं परिजाणइ से णिगंथे । 234. कोहाप्पत्ते-कोह तं । कोहो ण सेवियव्यो। 474. कोहं असच्चं कुव्विज्जा । कि 91. किं ? इत्तो लट्टयरं । 123. कि एत्तो कट्ठयरं जं मूढो । 571. किं मे परो पासइ किं च अप्पा । 246. 331 1161 137 192 1248 खवित्ता पुव्वकम्माइं । 491. खड्डुयाहिं चेवडाहिं। 448 1165 440. खेत्तं कालं पुरिसं । 1093 447. खंती सुहाण मूलं । 1144 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6.217 - - Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का मुनिकाशा मान राजन को अभिमानः राजेन्द्र कोर समानमतिका 465. खंति सेवेज्ज पंडिए । 598. खंते अभिनिव्वुडे दंते । 6 6 1160 1407 243 127. गब्भाओ गभं, जम्माओ जम्मं । 312. गर्जति शरदि न वर्षति । 6 . 697 121 50. 58. 185. गारत्थेहि य सव्वेहिं । गामे वा अदुवा रणे । गारवेसु कसायसुदंड । . 124 300 6 959 52. गिहवासोऽवि सुव्वओ। 430. गिहि संथवं न कुज्जा । 533. गिण्हाहिं साधुगुण मुंच असाहू । 570. गिहिणो वेयावडियं न कुज्जा । 1174 6 1248 295 741 162. गुणाणं तु सहस्साई । 368. गुरु से कामा । 525. गुरुं तु नासाययई स पुज्जो । 529. गुणेहि साहू अगुणेहिऽसाहू । 6 1173 6 1174 1451 605. गेलण वेयावच्चे करेमाणे । गो 299. गोवालो भंडवालो वा । 498 72. गंथेहिं विवित्तेहिं । 6 131 ___ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-60218 mamaramanRIMILaamanawAISHAmsanema m a - - - Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सक्तिहका अश । 16 99 294 3. 33. 140. 151. 264. 276. 531. चत्तारि मंगलं-अरिहंतामंगलं । चाहिं ठाणेहिं जीवा मणुस्सताए । चइत्ताणं इमं देहं । चउबिहेवि आहारे । चरणगुण विप्पहीणो । चरित्तेणं निगिण्हाई । चउक्कसायावगए स पुज्जो । ची चीराजिणं निगिणिणं । 295 442 448 1174 51. 6 121 छि 105. छिदं ममत्तं सुविहिय ! 144 120 149 150 47.. 110. 117. 147. 148. .152. 153. 294 294 295 295 जहा सागडिओ जाणं । जह-जह दोसोवरमो । जस्स न छुहा न तण्हा । जह किपागफलाणं । जम्म दुक्खं जरा दुक्खं । जहा तुलाए तोलेउं । जहा भुयाहि तरिठं । जहा अग्गिसिहा दित्ता । जवा लोहमया चेव । जहा गेहे पलितम्मि । जहा दुक्ख भारेउं जे । जहा खरो चंदणभारवाही । जइ मज्झ कारणा एए । जहेत्थ कुसले ।। 154. 295 295 6 295 295 159. 160. 161. 269. 298. 329. 6 6 443 496 728 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 219 - - Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8380868208686 38802830268 88888888888 32 6 733 870 1094 1158 मलका 350. जहा अंतो तहा बाहि । 402. जहा जहा अप्पतरा से जोगा। 442. जइ नऽत्थि नाण चरणं । 455. जहा सुणी पूइकण्णी । 509. जस्संतिए धम्मपयाई सिक्खे । 527. जस्सेयं दहओ नायं । 572. जत्थेव पासे कइ दुप्पउत्तं । 573. जस्सेरिया जोग जिइंदियस्स । 596. जहा कुम्मे सअंगाई। 6 . 1169 1173 1248 1248 1406 295 297 360. 463 155. जावज्जीवमविस्सामो । 181. जारिसा माणुसे लोए । 257. जा चिट्ठा सा सव्वा । 294. जाणमाणो परीसाए । 334. जाइ मरणं परिण्णाय । 378. जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं । 404. जाणं करेति एक्को । 422. जावन्ति लोए पाणा । 731 . 743 871 100. जिणवयणम्मि गुणागर । 137. जिनेषु कुशलचित्तं । 448. जिणजणणी रमणीणं । 535. जिइंदिए जो सहइ । 139 283 1144 1174 6 63. जीवियं नाभिकंखेज्जा । 6 130 348. जीवियं दुप्पडिबूहगं । 6 733 603. जीवा णो वुड्डंति नो हायति । 6 1419 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-60 220 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 124 141. 327 439 6 736 742 1168 1170 1171 57. जे निव्वुडा पावेहि कम्मेहिं । 59. जे वेऽन्ने एएहिं काएहि । 103. जेण विरागो जायइ । 214. जे विय लोगम्मि अपरिसेसा । 263. जे जत्तिया य हेउ भवस्स । 358. जे ममाइयमई जहाइ । 374. जे छेए सागारियं न सेवइ । 502. जे यावि मंदत्ति गुरुं वइत्ता । 512. जेण कीति सुयं सिग्धं । 514. जे अ चंडे मिए थद्धे । 517. जे आयरिअ उवज्झायाणं । जो 40. जो परिवभइ ६ जणं । 139. जो जारिसेण मित्ती । 416. जो सिया सन्निहि कामे । जो जस्स उ पाउगो। 503. जो पावगं जलियं वक्कमेज्जा । 504. जो पव्वयं सिरसा भेत्तुमिच्छे । जो छंदमाराहयई स पुज्जो। 574. जो पुव्वरतावररत काले। 1172 107 285 887 434 974 1168 1169 1173 1248 522. . 6 136 136 84. जे कुणइ भावसल्लं । 85. जं पुव्वं तं पुव्वं जहाणुपुट्वि । 195. जं सम्मत्तं पासह, तं मोणं पासह । 295. जं णिस्सितो उव्वहइ । . 410. जंपि वत्यं च पायं वा । 309 6 463 887 - अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूकि-सुधारस • खण्ड-60 221 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 595. 486. 200. 601. 539. 8. 230. 309. 316. 429. 498. 541. 545. 546. 554. 607. 254. 256. 360. 473. 388. सूक्ति का अंश जं किंचुवक्कमं जाणे । जं मे बुद्धाऽणुसासंति । ज्योतिर्मयीव दीपस्य । झाण जोगं समाट्टु 1 झा ड डहरेण वुड्ढेणणुसासिए उ । ण ण विरुज्झेज्ज केणई । णय परस्सपीड़ाकरं सावज्जं । वहिं ठाणेहिं गुप्पत्ती सिया । ण एवं भूतं वा भव्वं वा । ण उच्चावयं मणं णियंछेज्जा । णच्चा णमइ मेहावी । ण यावि किंचि फरुसं वदेज्जा । ण याऽवि पन्ने परिहास कुज्जा । ण या ssसियावाय । ण कत्थइ भास विहिंसइज्जा । णत्थि छुहाए सरिसया वियणा । णा णाणातिकारणावेक्ख । णाज्जोया साधु | तिं सहती वीरे । णाऽपुट्ठो वागरे किंचि । णि अभिधान सर्वेन्द्र म 6 6 6. 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 1406 1164 6 311 1407 1177 43 330 579 715 959 1167 1178 1179 1179 1180 1624 गिट्टियट्ठी वीरे आगमेण । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस खण्ड-6 222 340 355 736 1161 748 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभयान सजना नमकका अगमा 6 729 331. णो हीणे णो अइरिते । 544. णो छायए णो ऽवि य । 550.. णो तुच्छए णो य ।। 1179 6 1180 120 301 438 448 729 1159 48. तओ से मरणंतम्मि । 194. तवप्पहाणं चरियं च उत्तमं । 262. तपोधनानां पादेन स्पर्शनं । 279. तवेण परिसुज्झइ । 333. तम्हा पंडिए नो हरिसे । 462. तम्हा विणय मेसिज्जा । 578. तणकट्टेण व अग्गी । 579. तणकट्टेण व अग्गी । 582. तवेसु व उत्तम बंभचेरं । ति 80. तितिक्खं परमं नच्चा । 252. तिविहा मूढा पण्णता तं जहा । 272. तिण्हंपि समाओगे मोक्खो। 1257 1257 ..... 6 1394 .6 6 134 337 6 .. 444 54. 386. तुलिया विसेसमायाय । तुमंसि नाम सच्चेव जं। .... 6... 123 6... 747 125. तृष्णे ! देवि ! विडम्बनेय । । ... 6:. . 193 599. तेसि पि तवो ण सुद्धो । 6 . 1407 129. तं तह दुल्लह लंभं । 248 manumnamasan अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6.223 - Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3933838 327 327 6 205 तं सच्चं भगवं । 219. तं सच्चं....मंतोसहिविज्जा । 343. ' तंपि से एगया दायाया। 415. तं अप्पणा न गिण्हंति । 731 887 500. 1168 थंभा व कोहा व मयप्पमाया । थंभं च कोहं च चए । 532. 1174. 178. दद्धो-पक्को अ अवसो । 297 79. दिव्वं मायं न सद्दहे। 6 134 442 1171 265. दीवसयसहस्स कोडी वि । 513. दीसंती दुहमेहंता । 516. दीसंति सुहमेहंता । 581. दीवे व धम्मं । 6 1171 6 . 1391 130 67. दुविहं पि विइत्ताणं । .. 69. दुहतो वि ण सज्जेज्जा । 141. दुक्ख-केसाण भायणं । 168. दुक्खं बंभव्वयं घोरं । 406. देहबलं खलु विरियं । . 167. दंतसोहणमाइस्स। . 563. द्वे एव देवते वत । 6 1182 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-60 224 - Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभधान राजेन्द्र कोष सक्ति काश 124 741 56. धम्ममायाणह । 370. धम्मपि य नाणं सारियं विति । 496. धम्मज्जियं च ववहारं । धा 475. धारिज्जा पियमप्पियं । ___ 1166 1161 104. धीरेण वि मरियव्वं । 142 293. धंसेइ जो अभूएंण । 463 106 118 6 6 6 6 36. न बाहिरं परिभवे । 45. न मे दिट्टे परे लोए । 55. न संतसंति मरणं ते ।। 93. नवि अत्थि नऽवि य होहि । 98. नवि तं कुणइ अमित्तो । 102. न हु सक्को तिप्पेउं । 111. न हु पावं हवइ हियं । 115. नऽवि माया नऽवि य पिया । 337. नत्थि कालस्स णागमो । 383. न जायते म्रियते वा कदाचित् । 423. न हणे नो विघायए । 484. न पक्खओ न पुरओ । 494. न सिया तोत्तगवेसए । 510. न आवि मुक्खो गुरुहीलणाए । 565. न ग्राह्याणि न देयानि । 576. न जातु कामः कामना । 6 6 6 6 123 137 139 140 149 150 731 747 888 1163 1166 1169 1208 1256 6 अभिधान राजेन्द्र, कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 225 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न । मुक्ति का अश अभियान राजेन्द्र कोष एम . पृष्ठ ना 6 131 6 137 6 137 6. 137 137 273. 444 73. नाइवेलं उवचरे माणुस्से । नाणसहियं चरितं । नाणेण विणा करणं । नाणेण य करणेण य । नाणं सुसिक्खियव्वं । नाणं पयासयं । 280. नाणं च दंसणं चेव । नाणेण जाणइ भावे । नाणेणं दसणेणं च। 364. नाणं संजमं सारं । 441: नाणम्मि असंतम्मि । 443. नाणेण नज्जए चरणं । 558. नातिवेलं वदेज्जा । 448 281. 6 6 448 496 297. 6 741 1094 1094 6 1181 390. 13. निव्वाणं परमं बुद्धा । 184. निम्ममो निरहंकारो। 288. निर्मल स्फटिकस्येव । निद्देसं नाइवट्टेज्जा मेहावी । 397. निव्वियारेणं जीवे वइगुत्ते । 432. निउणो खलु सुत्तत्थो । 433. निक्कारणम्मि दोसा । 461. निरट्राणि उवज्जए । 540. निदं च भिक्खू न पमाय कुज्जा । 548. निरुद्धगं वावि न दीहइज्जा । 584. निव्वाणसेठ्ठा जह। 6 6 6 6 6 6 6 45 300 458 748 759 971 973 1159 1177 1180 1394 6 __ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-60 226 - Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समान राजेन्द्र काम प सक्तिकाश 307. नैवा हुति न च स्नानं । 6 510 183. नो हीलए नो विय खिसइज्जा । 6 299 1174 379. नो निहणिज्ज वीरियं । 744 7. पमू दोसे निरा किच्चा । परब्रह्मणि मग्नस्य । परिकम्मं को कुणइ । पव्वयकडकाहि मुच्चंते । पर परिभवकारणं च हासं । परपरिवायप्पियं च हासं । परपीडाकारगं च हासं । पमाया दप्पा भवति । पश्यन्नेव परं द्रव्यं । पमत्ते अगारमावसे । पहु एजस्स दुगुंछणाए । पमाय कम्ममाहंसु । 182. 221. 239. 244. 247. 255. 287. 401. 436. .585. 6 6 6 6 6 299 327 331 331 331 340 457 806 1061 1404 157. पाणाइवाय विरइ। 355. पावकम्मं नेव कुज्जा । 421. पाणिवहं घोरं । 591. पावोवगाय आरंभा । 6. 6 295 735 888 1405 104 35. 108 पुत्रा मे भ्राता मे, स्वजना मे । पुत्ता-मित्ता य पिया । 148 - अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-60 227 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ति 400. पुणो पुणो गुणासए । 476. पुट्ठो वा नाऽलियं वए । 492. पुत्तो मे भाय नाइति । 377. पूढो छंदा इह माणवा । 43. 196. सक्ति का अश 19. प्रत्याहृत्येन्द्रिय-व्यूहं । 451. प्रायेणाधममध्यमोत्तम । 227. 44. 136. 169 164. 384. 464. 490. पंडियाणं सकामं तु । पंतं लूहं सेवंति वीरा सम्मत्तंदंसिणो । प्र प्रियं सत्यं वाक्यं हरति । 487. फरुसमप्पणुसासणं । 296. बहुजणस्स नेयारं । 466. बहुयं माय आलवे । पू प्रा प्रि फ बा बालाणं अकामं तु मरणं । बाह्येन्द्रियाणि (कर्मेन्द्रिय) संयम्य । | हिंसा बालुया कवले चेव । भावे अप्पाणं । अभिधान राजेन्द्र कोष भाग पृष्ठ 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 806 1161 1165 743 117 309 47 1144 328 सह संसगिंग । बालं सम्म सातो । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 228 1164 463 1160 117 278 295 295 747 1160 1165 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोष माग पृष्ठ बु 45 11 12. 68. बुज्झमाणाण पाणाणं । बुद्धामोत्ति य मन्नंता । बुद्धा धम्मस्स पारगा । 45 130 193 124. ब्रह्मा लून शिरोहरिदृशिसरुक् । 575. ब्रह्महत्या सुरापानं । 1249 331 248. 250. 331 भयं परियाणई से निऽगंथे । भयापत्ते भीरु समावइज्जा । भा भासियव्वं हियं सच्चं । 166. 295 53... भिक्खाए वा गिहत्थे वा ।। 6 122 1405 589. भुजो भुज्जो दुहोवासं । भू 330. भूएहिं जाण पडिलेह सायं । 729 75. भेउरेसु ण रज्जेज्जा । 133 60 64 मद्यं पुनः प्रमादाङ्गं । मनोवत्सो युक्तिगवीं । मणगुत्तयाएणं जीवे । मद्दवयायेणं अणुस्सियत्तं जणयइ । मरणं नोविपत्थए । 34. 64. 6 6 6 83 104 130 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 229 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाभयान राजेन्द्र को पक्ष किसका 131 297 300 301 71. मज्झत्थो निज्जरापेही । 180. महब्भयाओ भीमाओ। 186. ममत्तं छिदइ ताहे। 192. ममत्तबंधं च महब्भयावहं । मन्यते यो जगत्तत्वं । 222. मणुगयाणं वंदणिज्जं । 253. ___ मरणस्य मूलं दुःखं । 497. मणोगयं वक्कगयं । 566. महुमज्जमंस भेसज्जमूल ! 198. 309 327 337 1166 1208 150 6 114 माणुस जाइ बहुविचिता 132. माया विजएणं उज्जुभावं जणयइ । 143. माणुसत्ते असारम्मि । 310. माता भूत्वा दुहिता । 314. 'मातुः पुरो मातुलवर्णनं तत्' । 321. माया मे ति पिया मे । 469. मा गलियस्सेव कसं । 471. माय चंडालियं कासी । 547. माणं ण सेवेज्ज पगासणं च । 594 697. 725 1160 1160 1179 39. मुणी ण मिज्जइ । 197. मुणी मोणं समायाय धुणे । 414. मुसावाओ उ लोगम्मि सव्व । 202. मुत्तीएणं अकिंचणत्तं जणयइ । 418. मुच्छा परिग्गहो पुत्तो । 457. मुहरी निक्कसिज्जइ । 519. मुहत्तदुक्खाउ हवंति कंटया । 6 107 309 6887 6 318 6 887 1158 6 1173 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 230 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोष माग पृष्ठ 6 427 260. 445. 446. मूलमेयमहम्मस्स । मूलं कोहो दुहाण सव्वाणं । मूलं माणो अणत्थाणं । 1144 6 1144 302. मृते स्वजन मात्रेऽपि । 6 510 1406 594. मेहावी, अप्पणो गिद्धिमुद्धरे । मो 282. मोहेण गब्भं मरणाइ एइ । 6 456 1. मंगिज्जएऽधिगम्मइ । 323. मंदा मोहेण पाउडा । 68 6 727 2. 4. मां गालयति भवादिति । मां स भक्षयिताऽमुत्र ।। 20. 23. 311. 361. यस्य ज्ञान-सुधा-सिन्धौ । यस्य दृष्टिः कृपावृष्टिः । यथा नेत्रे तथा शीलं । यथा चिन्तामणि दत्ते । 595 740 यो 285. यो न मुह्यति लग्नेषु । 6 457 510 301. रक्तीभवन्ति तोयानि । 489. रमए पंडिए सासं । 1165 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 231 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभियान राजेन्द्र कोष भाग पृष्ठ रा 135 139 81. रागदोसाभिहया । 99. रागेण व दोसेण व अहवा । रागदोसाणुगया तु दप्पिया । 521. रायणाहिएK विणयं पउंजे । 587. राग दोसस्सिया बाला । 258. 426 1173 1405 86. लज्जाए गारवेण य । 6 136 . ला 187. लाभालाभे सुहे-दुक्खे । 6 300 331 331 331 331 331 236. लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं । 243. लुद्ध लोलो भणेज्ज । लो 237. लोभपत्ते लोभी समावइज्जा । 238. लोभं परिजाणइ से णिग्गंथे । 241. लोभो न सेवियव्वो । 325. लोभमलोभेण दुगुंछमाणे । 363. लोकसंज्ञामहानद्यामनु । 367. लोक संज्ञोज्झितः साधुः । 369. लोगस्स सार धम्मो । 394. लोभ विजएणं सन्तोसी । 411. लोहस्सेस अणुफ्फासो । 727 740 741 741 755 887 634 5. वर्षे वर्षेऽश्वमेधेन । 223. वहबंधाभियोग वेरघोरेहिं ।। 6 327 395. वयण विभत्तीकुसलो । 6 758 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 232 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ति 396. 424. 426. 427. 428. 477. 439. मुक्ति का अश गुत्ताणं निव्वि । वय विभत्तिअकुसलो । ववहारोऽपि हु बलवं । ववहारो विह बलवं । ववहार सुद्धि धम्मस्स । वरं मे अप्पा दंतो । वा वायणाएणं निज्जरं जणयइ । 16. 191. 324. 327. 341. 381. 405. 408. 449. 452. विद्यया राजपूज्यः स्यात् । 459. विणए ठविज्ज अप्पाणं । 499. वित्ते अचोइए निच्वं । 515. विणयं पि जो उवाएणं । 528. विवत्ती अविणीअस्स । 530. 537. 549. 552. विसएसणं झियायंति । वियाणिया दुक्ख विद्धणं धणं । विमुता हु ते जणा जे । विणा वि लोभं निक्खम । विहं पप्पखेयन्ने । वि वितिगिच्छं समावन्नेणं । विरतो पण जो जाणं । विमुभे इमं लोणं । विणओ गुणाण मूलं । अभिधान राजेन्द्र कोष म 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 759 891 934 934 935 1162 विआणिआ अप्पगमप्पएणं । विनयेन विना न स्यात् । विभज्यवायं च वियागरेज्जा | वियागरेज्जा समयासुपन्ने । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 233 1088 46 301 727 727 731 745 872 887 1144 1148 1159 1167 1171 1173 1174 1176 1180 1180 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मभिमान राजेन्द्र काल भाग सूत का अश 560. विणएण णरो गंधेण । 577. विषस्य विषयाणां च । 6 1181 6 1256 वी 580. वीयरगयाए णं णेहाणु । 1336 वे 1405 590. वेराई कुव्वइ वेरी। 606. वेयावच्चेणं तित्थयर । 1460 604. 1451 76. 6 133 वैयावृत्यम-भक्तादिभिः । वो वोसिरे सव्वसो कायं । वं वंता लोगसन्नं, से मइमं ।। वंदणएणं नीयागोयं । 736 359. 398. 770 45 14. सदा जए दंते निव्वाणं । 26. समशीलं मनो यस्य स । 78. सव्वदे॒हिं अमुच्छिए । 134 107. सयणस्स य मज्झगओ । 148 119. सज्ज्ञानं परमं मित्रं । 191 163. सव्वारंभ परिच्चाओ । 295 समया सव्वभूएसु । 295 176. सरीरामाणसा चेव वेयणाओ। __ 6 296 203. सव्वा उ मंतजोगा सिझंति । 6 326 204. सच्वं जसस्समूलं । 6 326 206. सच्चं....पभासकं भवति सव्वभावाण । 6 327 207. सच्चं लोगम्मि सारभूयं । 327 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 . 234 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिः लम्बाई 208. 209. 211. 212. 213. 215. 216. 217. 218. 225. 226. 228. 233. 278. 308. 353. 354. 380. 385. 392. 419. 444. 583. 602. 158. 220. सूक्तिका अश सच्चं.... सोमतरं चंदमंडलाओ । सच्चं पिय संजमस्स । सच्चेण य तत्ततेल्ल तउलोह । सच्चेण य उदग संभमम्मि । सच्चेण य अगणि संभमम्मि । सच्चेण महासमुद्दमज्झे वि । सच्चवयणं सुद्धं सुचियं । सन्वं लोगम्मि सारभूयं गंभीरतरं । सच्चवयण तव णियम । सत्येनाग्निभवेच्छीतो । समिक्खियं संजण । सत्याद् वाक्याद् व्रत | सच्चं च हियं च | सम्म य सहे । सव्वाहारं न भुंजंति । सण विप्पमाण | सण दुक्खेण मुढे | समिया मे । समियंति मन्नमाण समिया । सव्वे स नियति । सव्वे जीवा वि इच्छंति । सव्वजगुज्जोयकरं नाणं । . सच्चेसु वा अणवज्जं वयंति । सवीरिए पराइ | सा अभिधान राजेन्द्र कोष 6 327 6 327 6 327 6 327 6 327 6 327 6 327 6 327 6 327 6 328 6 328-330 6 328 6 330 6 448 6 510 735 735 744 747 748 888 1094 1394 1408 6 6 6 6 6 6 6 6 सामणं पुत्तदुच्चरं । सा देव्वाणि य देवयाओ । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6235 6 6 295 327 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ति नम्बर सि 501 सिओ हु से पावयं नो डहिज्जा । 505. 593. सूक्ति का अंश सिया हु सीसेण गिरिं पिभिदे । सिक्ख सिक्खेज्ज पंडिए । 37. 83. 135. सुवि मेह समुदये । 193. 199. सुलभं वागनुच्चारं । 266. सुबहुपि सुयमहियं । 332. 352. 356. 366. 542. 559. 90. सुयलाभे न मज्जेज्जा । सुहुमंपि भावसल्लं अणुद्धरित्ता । सुहावहंधम्मधुरं अणुत्तरं । 317. सुरुवा पोग्गला । 318. सुविसुद्ध सीलजुत्तो पावइ । 562. सुविशुद्ध सीलजुत्तो । सु सू 543. सूरोदये पासति चक्खुव । से असई उच्चगोए । सेमइमं परिन्नाय । सेहु दिट्ठे हे मुणी । से पासति फुसियमिव । सेयं खु मेयं ण पमाय कुज्जा । सेट्टिमं दिट्टिण । सो अभिधान राजन्द्र कोष भाग 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 सो नाम अणसण तवो अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 236 6 1168 1169 1169 1406 106 136 277 301 310 442 721 722 1181. 1181 1178 729 734 736 741 1178 1181 137 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्र कोष 274. सोहओ तवो । 444 72 117 121 121. 191 444 459 29. संजमेण तवसा अप्पाणं । 42. संति मे य दुवे ठाणा । संति एगेहि-भिक्खूहि । संतोषः परमं सौख्यं । 271. संजमो य गुत्तिकरो । 291. संप्राप्तः पण्डितः कृच्छ्रे । 303. संति मे सुहमा पाणा । 365. संजमसारं च निव्वाणं । 375. संसयं परिआणओ । 407. संजमहेऊ जोगो । 450. संतप्तायसि संस्थितः । संतोसपाहन्नरए स पुज्जो । 510 741 742 874 1144 1173 64 28. स्वागमं रागमात्रेण । 362. स्तोकाहि रत्नवणिजः । 740 24. शमशैत्यपुशो यस्य । 50 138. शाढ्येन मित्रं कलुषेण धर्मं । F - 285 1081 438. शुष्कवादो विवादश्च । 283. शुद्धात्मद्रव्यमेवाहं । 457 126. श्रद्धालुतां श्राति पदार्थचिन्तनाद् । 6 219 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 237 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मामिलान सजेन्द्र काय सकिका अश ho 268. हयनाणं कियाहीणं ।। 270. हयनाणं कियाहीणं हया अण्णाणओ । 6 6 443 443 331 6 331 331 245. हास ण सेवियव्वं । 249. हासं परिजाणइ से निग्गंथे । 251. हासापत्ते हासी समावइज्जा । हि 453. हियमिय अफरुसवाई। . 485. हियं तं मन्नए पन्नो । 536. हितं मितं चापरुषं । 1154 1164 1175 no 305. हन्नाभिपद्म संकोचः । 510 hos 112. हुंति गुणकारगाई। 149 the 413. हिंसगं न मूसं बूया । 887 22. ज्ञानमग्नस्ययच्छम । 6 49 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-60 238 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिशिष्ट विषयानुक्रमणिका Page #248 --------------------------------------------------------------------------  Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका सूक्ति नम्बर सूक्ति शीर्षक क्रमाङ्क 49 . 98 11 . 101 12 107 13 113 14. 116 अज्ञानी मृत्यु अज्ञानी शोकाकुल अपेक्षा से श्रेष्ठ कौन ? अनुद्विग्न अध्यात्म-अन्वेषण अनासक्त अविश्वास किसमें ? अनालोचक, अनाराधक अन्योन्याश्रित अहितकर्ता राग-द्वेष अकेला ही चतुर्गति प्रवास अकेला दुःख-भोक्ता अनर्थ-मूल अत्राण, अशरण अज्ञान: महाशत्रु अशाश्वत निवास अहिंसा दुष्कर अति कठिन क्या ? अदत्त-त्याग अधर्मी, दुःखी अनंत वेदनामय संसार अनास्त्रवी श्रमण अन्योन्याश्रित क्या ? असत्य के समकक्ष असत्य से दूषित वचन असत्य कब? अपमान का कारण ! अकल्प भी कल्प 15 120 16 142 17 157 . 163 . 167 175 176 190 . 195 210 232 234 239 254 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 241 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साता मासक 259 287 414 अब्रह्मचर्य त्याज्य 260 अब्रह्मचर्य, महादोषों का स्रोत 266 अन्धे को दीपक दिखाना 283 अहं ब्रह्मास्मि अमूढ, अखिन्न 328 अस्थिर साधक 341 अज्ञसाधक 351 अजर-अमर मान्यता 355. असत् कर्म त्याज्य । 405 अप्रमत्त, निर्जराभागी 408 असंग्रही साधक 412 असत्य, अविश्वसनीय असत्य निन्दनीय 420 अहिंसा-दर्शन 436 अहिंसक समर्थ 446 अनर्थ-मूल, मान 456 अविनीत कौन ? 463 अनुशासन प्रिय 464 अज्ञानी संसर्ग वर्ण्य अड़ियल शिष्य अनुशासित शिष्य 485 अज्ञ-प्राज्ञ शिष्य 488 अनुशासित प्राज्ञ शिष्य 505 अवहेलना से अमुक्ति 513 अविनीत दुःखी 542 असत् आचरण-वर्जन 547 अहंकार-प्रदर्शन हेय अनेकान्त युक्त वचन 553 अकषायी भिक्षु 561 अनुशासित श्रमण 568 अनस्रोत-प्रतिस्रोत अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 . 242 469 482 549 59 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 571 586 सकामक अन्तनिरीक्षण असंयत अज्ञानी, पापी अनासक्ति 587 594 आ 85 109 122 160 281 288 322 383 आकृति: मन का दर्पण आत्मा प्रसन्न कैसे? आत्मा एकाकी आलोचना से हल्कापन आराधक नहीं आनुपूर्वी से आलोचना आत्म-चिन्तन आकाङ्क्षा महादुःख आत्मोद्धार हेतु उद्गार आत्मा, ज्ञाता आत्मा स्फटिकवत् आज्ञा रहित मुनि आत्मा शाश्वत आगमविद् आदेश-अनतिक्रमण आसक्ति कर्मास्रव द्वार आत्मा अनिर्वचनीय आत्मा अवाच्य आत्महित चाहक आत्म-नियन्त्रण आत्म-नियन्त्रण दुष्कर आशातना से अमुक्ति आत्मज्ञानी आत्म-विचारणा आस्रव-संवर क्या ? 389 390 391 392 393 459 478 479 507 530 574 585 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 . 243 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमाई पनि नम्बर मु क्ति शीर्षक 77 इच्छा-लोभ-वर्जन 4 194 334 उत्तम चरित्र उपदेश उठो, प्रमाद मत करो 376 se 332 ऊँच-नीच गोत्र में जन्म 94 387 ऋजु, प्रतिबुद्धजीवी 95. 30. A 41 एकाग्र आराधक एक बार मरण एकत्व भावना 286 98 102 ऐहिक सुख से अतृप्ति 57 101 102 201 103 310 कर्म-बन्धन से मुक्त कषाय-कृशता कषाय विजय उपाय कर्म-क्षय से मोक्ष कर्मण की गति न्यारी कषाय चौकड़ी-वर्जन करुणाशील अहिंसक कम बोलो कठोर अनुशासन कठोर सत्य मत बोलो 104 320 105 435 466 106 107 487 108 551 का 10946 काम से संक्लेश ( अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 244 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमाल मुक्ति नम्बर सूक्ति शीर्षक 110 124 129 111 112 347 कामान्ध-परिणाम कायर कोन ? काम, दुर्लंघ्य काम की मृगतृष्णा कामभोग अग्निघृतवत् कामभोग से अतृप्त 113 114 349. 576 578 115 कि 116 117 342 किसे प्रयोजन नहीं ? किनारे नहीं ! 117 118 374 कुशल कौन ? 119 '275 केवलज्ञान नहीं 120 209 कैसा सत्य नहीं बोले ? कैसा शिष्य बहिष्कृत 121 455 122 -108 कोई रक्षक नहीं 123 कंक पक्षीवत् पापी-अधम 124 200 क्रिया, ज्ञानमयी क्रियाहीन ज्ञान 125 268 126 127 128 231 क्रोधजेता निर्ग्रन्थ 235 क्रोधान्ध 242 क्रोधी 246 क्रोध-वर्जन 474 क्रोध विफल अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 . 245 129 130 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 493 600 312 297 440 449 489 490 497 500 502 503 504 506 510 517 523 50 430 22 72 खा 533 ग गु गृ गो ग्र ग्रा क्रोध त्याज्य खाओ-पीओ मित गर्जत सो वर्षत नहीं गुण- वृद्धि गुप्त रहस्य कब प्रकट करे ? गुण-मूल, विनय गुरु प्रसन्न गुरु खिन्न गुर्वाज्ञा गुरु आशातना, विनाश का कारण गुरु- आशातना गुरु- आशातना अहितकर गुरु - आशातना से दुष्परिणाम गुरु- कृपा - तत्पर गुरु-अवहेलना गुरु-स‍ - सेवा - फल गुरु-शुश्रूषा में जागरुक गृहस्थ बनाम साधु श्रेष्ठ गृहस्थ- परिचय निषेध गोता ज्ञान सरोवर का ग्रन्थियों से मुक्त ग्राह्य-य क्या ? अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6• 246 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमा सूक्ति नम्बर 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 264 172 276 467 494 321 602 140 100 535 537 35933 69 179 315 330 366 603 चा 139 402 छि ज जा जि जी सक्ति शीर्षक चरित्र महान् चारित्र दुष्कर चारित्र, कर्मरोधक छिपाएँ नहीं ! छिद्रान्वेषी शिष्य जन्म-मरण-चक्र जय-पराजय जाना है एकदिन जिन वचन में अप्रमत्त जितेन्द्रिय पूज्य जिनवचन का मूल जीव - हिंसा जीवन अनाकांक्षा जीवन-मृत्यु में अनासक्त जीव-दुर्दशा जीवाजीवाधार जीव, सुखप्रिय जीवन अस्थिर, जलबिन्दुवत् जीव-स्वरूप जैसा संग वैसा रंग जैसा योग वैसा बंध अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 247 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमाइ सक्ति नम्बर सूक्ति सावक 174 265 ' ज्योतिहीन दीपक 175 170 176 274 177 178 277 279 तपाचरण, असिधारवत् तप-विशुद्धि . तप-संयम से कर्मक्षय . तप से शुद्धि तत्त्वद्रष्टा तपश्चरण अशुद्ध 179 344 180 599 181 182 तिरस्कार-वर्जन तिरस्कार से भ्रमण तितिक्षा तितिक्षा 183 184 185 306 तीर्थ-यात्रा-फल 186 431 तुलसी संगत साधु की तुमे तासीर सौहबते असर 187 188 386 तू ही तू 189 125 तृष्णा का करिश्मा तृष्णा 190 177 191 192 313 461 थोथा चना बाजे घणा थोथा देय उड़ाय 461 193 153 दमन दुस्तर अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 . 248 - Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | कमाइ सक्ति नम्बर सक्ति शीर्षक 194 195 255 258 278 दर्प, कल्प कब ? दपिका-कल्पिका स्वरूप दर्शन से श्रद्धा 196 197 53 दिव्यगति दिखाउ त्यागी 198 401 199 442 दीक्षा निरर्थक aav 200 519 दुर्वचन लोहकंटक 201 92 202 115 203 127 204 141 205 146 दुःखक्षय किससे? दुःखोपशमन में असमर्थ दुःखभोक्ता कौन ? दुःख-भाजन शरीर दुःखमय संसार दुःख ही दुःख दुःखवर्धक क्या ? दुःख-सुख अपना दुःख-मूल, क्रोध दुःशील, शूकरवत् 206 148 191 207 378 208 209 445 210 458 दे 211 60 76 345 212 213 214 215 देह की पुष्टि और क्षीणता देहासक्ति-त्याग देह-अशुचिता देवतुल्य कौन ? देहभाव-विसर्जन 563 601 216 403 द्रव्य-भाव हिंसा-स्वरूप अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 . 249 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमा सक्रि नम्बर सक्ति सापक द्वि 217 42 द्विविध-मरण 218 219 220 221 68 222 174 धर्मोपदेष्टा कौन ? धर्म धर्म कहाँ ? धर्मवेत्ता साधक धर्मी, सुखी धर्म-धुरा धर्म का मूल : व्यवहारशुद्धि धर्मसंगत व्यवहार धर्म, दीपक 223 193 224 428 225 496 226 581 227 104 धैर्य से मृत्यु 228 97 229 75 230 180 231 292 232 316 न सुख, न दुःख नश्वर काम नर्क वेदना की विभीषिका नकली ब्रह्मचारी न भूतो न भविष्यति न घर का न घाट का न कोई हीन, न कोई महान् न हर्षित, न कुपित न देय, न आदेय 233 326. 234 331 235 333. 236 565 237 ___181 नारकीय वेदना अनन्त ना काहू से वैर 238 239 39 39 निरभिमानी मुनि ___ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 . 250 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माम सकि नया सकिशाषक 240 151 241 156 242 183 243 202 244 226 245 241 246 248 247 325 248 397 निशि भोजन त्याग दुष्कर निरवद्य-निर्दोष ग्राह्य निन्दा-अवज्ञा-वर्जन निर्लोभता-फल निर्णीत सत्य वचन निर्लोभता निर्ग्रन्थ कौन ? निष्काम-साधक निर्विकार से ध्यान निर्ग्रन्थ-बल क्या ? निष्कषायी पूज्य निद्रा-प्रमाद-त्याग निर्देशक गुरु निरपेक्ष साधक निर्दोष वचन निष्पाप-सत्य निर्वाण श्रेष्ठ 249 425 250 531 251 540 543 252 25 550 254 556 255 583 256 584 257 471 नीचकर्म-त्याग 258 259 35 260 110 261 123 262 137 परब्रह्मलीन पशुवत् 'मैं' 'मैं' परमपद के निकट परदोष-परायण परमोत्कृष्ट योग बीज परिणाम दु:खद पक्षी-परिचर्या परोपकारी की हत्या से महा मोहबंध परिग्रह से अलिप्त परपीड़क सत्यासत्य-वर्जन 263 147 264 182 265 296 266 329 267 409 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 251 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपाड सूक्ति नम्बर 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 472 545 597 38 111 144 150 178 285 566 591 23 554 317 520 525 43 348 483 557 573 593 पा 421 पी पु पू प्र सूक्ति शीर्षक पहले अध्ययन फिर ध्यान परिहास-वर्जन परिमित बोलो प्रा पाप - जननी कौन ? पाप-जहर पाथेय बिन दुःखी पानी के बुलबुला पापात्मा की दुर्दशा पाप-पंक से निर्लिप्त पापभीरु श्रावक पाप दुःखद पीयूषवर्षी योगीश्वर पीड़ोत्पादक भाषा त्याज्य पुद्गल - स्वभाव पूज्य कौन ? पूजनीय कौन ? पंडित मृत्यु प्रतिबुद्धसंयमित प्रशिक्षण प्राणिवध पाप अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6252 प्रतिकार प्रश्न- पृच्छा कैसे ? प्रस्तुति शास्त्रानुरूप Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमाङ्क सूक्ति नम्बर सूक्ति शीर्षक 291 227 प्रिय सत्य बोलो 292 फिरभी आराधक स 293 91 बहुश्रुत-दर्शन, चन्द्रवत् बल जैसा भाव 294 406 295 51 296 384 बाह्योपकरण रक्षक नहीं बालभाव बाहर भीतर असार 297 350 352 को बुद्धिमान् साधक 230 . 299 300 413 301 541 बोलो, परपीडाकारक नहीं बोलो, असत्य नहीं बोलो, कर्कश नहीं बोलो, निश्चयात्मक नहीं बोलो, मित 302 546 303 558 304 518 बाँटो, मुक्ति 305 306 ब्रह्मचर्य से उत्तमगति ब्रह्मचर्य अतिकठिन ब्रह्मचर्य दुष्कर ब्रह्मचर्य सर्वोत्तम तप 168 173 582 307 308 309 48 310 भय से संत्रस्त भयावह क्या ? अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 253 192 ( Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमाल सूक्ति नम्बर 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 250 339 84 534 71 607 145 400 579 589 45 2 2 7 8 7 ~ 19 25 27 28 31 73 105 262 293 335 356 भा भि भू भो भौ म सूक्ति शीर्षक भय से असत्य भवपार नहीं भावितात्मा भावशल्य से भ्रमण भाषा - विवेकी, पूज्य भिक्षु कैसा ? भूख- वेदना भोग- परिणाम दुःखद भोगास्वादी भोजन से अतृप्त भोग, दुःखावास भौतिक दृष्टि मग्नता मदिरा - पान-हानि मन: बछड़ा-बन्दर मध्यस्थदृष्टि, निष्पक्षपाती मनोनिग्रह - फल मर्यादा का अनुल्लंघन ममत्त्व-त्याग महान् अनर्थकर महामोह से कर्मबन्ध मन्दबुद्धि विवेकशून्य ममत्त्व - विजेता अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6• 254 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमा सतिनवर 388888888 334 358 335 377 336 399 सक्ति शीर्षक ममत्त्व-त्याग मनुष्य-रुचि मनुष्य-वनस्पति-तुलना ममत्त्व ही परिग्रह मधुर वचन है माखन मिश्री मनोविचिकित्सा महापाप 337 418 338 536 538 339 340 575 मा 33 341 342 343 130 मानवीय कर्म मात-गौरव माया-मृषा-त्याज्य माया से सरलता 131 344 132 345 133 136 346 347 मिथ्यात्व-स्वरूप मिथ्याचार से दूर मिश्रभाषा से कर्मबन्ध मिथ्यादृष्टि मिथ्याभाषण-त्याग मित-मधुर 294 382 476 348 349 350 548 मु 351 352 353 354 . 355 356 13 26 74 184 185 187 मुनिप्रवृत्ति, मोक्षप्रधान मुनिवर मध्यस्थ मुनि-आचार मुनि का वास्तविक स्वरूप . मुनि सबसे मुक्त मुनि वही मुनि कौन ? मुक्ति-मार्ग मुक्त कौन ? मुनि सदा सुखी 357 198 280 358 359 360 324 367 ( अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 255 ) Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमाङ्क सक्ति नम्बर सूक्ति शीर्षक मुक्ति असंभव मुनि-मर्यादा 361 501 570 362 मू 363 138 364 289 365 290 366 291 मूर्ख कौन ? मूढ चेता मूढ, मगशैलियापाषाण मूर्ख, शिलावत् मूढ, सत्यपथ में स्थित नहीं मूर्ख-धारणा मूल और फल मूर्योपदेश कोप-हेतु 367 340 368 371 369 511 370 515 371 34 64 372 373 374 67 मृदुता-फल मृत्यु से निष्काम मृत्यु-कला के सम्यग्वेत्ता । मृत्यु-मूल मृत्यु, मेहमान 253 375 337 376 मेरुवत् अचल 377 14 378 261 379 282 मोक्ष-मार्ग-साधना मोक्ष एक मोह से जन्म-मरण मोहावृत्त पुरुष मोह 380 323 381 372 382 197 481 383 मौन अनुचित कब ? 384 1 'मंगल' का अर्थ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 256 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमाङ्क सूक्ति नम्बर मुक्ति शीर्षक 'मंगल' शब्द की व्युत्पत्ति मंगल चतुष्क 385 386 माँस शब्द की निरुक्ति 388 मैं अकेला मैं और मेरा 389 390 311 यथा आकृति तथा गुण यथार्थ उपदेष्टा 391 544 392 434 योग्य में योग्य का आधान 596 रहो कच्छपवत् 394 300 395 396 397 301 303 304 307 308 336 रात्रि भोजन-त्याग रात्रि भोजन किसके समकक्ष ? रात्रि-भोजन त्याज्य रात्रि-भोजन-फल रात्रि-वजित कार्य रात्रि-भोजन-वजित राग-द्वेषी भवपार नहीं राजहंसवत् महामुनि 398 399 400 401 363 402 373 403 रुपासक्ति-परिणाम रुग्ण-सेवा से निर्जरा 403 605 605 309 रोगोत्पत्ति-कारण अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 257 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमाङ्क सूक्ति साशापक 405 343 लक्ष्मी जाने का मार्ग लक्ष्यानुरूप गति 406 567 407 159 236 408 409 237 410 411 240 243 लोहे के चने चबाना लोभी-लालची लोभी लोभी झूठों का सरदार लोभी-लालची की प्रवृत्ति लोक-स्वरूप लोकैषणा-त्याग लोकरंजनार्थ धर्म-त्याग लोभ जय-फल 412 319 413 359 414 415 361 394 व 416 90 417 249 418 395 419 396 420 398 421 424 473 वही अनशन श्रेष्ठ वही निर्ग्रन्थ वचनगुप्त कौन ? वचनगुप्ति-फल वन्दन से लाभ वह वचनगुप्त नहीं वचन-नीति वही पूज्य वचन-सहिष्णु वही पूज्य वही पूज्य 422 423 522 424 524 425 526 532 427 439 428 453 वाचना से निर्जरा वाणी-विनय वाचाल, बहिष्कृत 429 457 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 . 258 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | क्रमाडूः सूक्ति नम्बर सक्ति शीर्षक 430 114 431 362 432 452 433 454 434 461 486 435 436 492 विचित्र मानव विरले आत्मरत्नपारखी विद्या, वशीकरण मन्त्र विनीत कौन ? विनयान्वेषण विनीत शिष्य विनीत-अविनीत लक्षण विनय-ज्ञान युक्त शिष्य विनम्रता किसके प्रति ? विनय से इष्ट-प्राप्ति विनय-वर्तन विनय-सौरभ विनीत सर्वजन प्रिय विष और विषय में महदन्तर 437 499 509 512 438 439 440 441 442 521 560 562 4.12 577 444 346 357 445 वीर-प्रशस्ति वीर निर्विकल्प वीरसाधक असहिष्णु वीतरागता-फल 146 360 . 447 580 10 448 299 वेशमात्र से श्रमणत्व नहीं 449 450 451 .7 118 305 590 604 606 वैर-विरोध-त्याग वैरभाव-विस्मृति वैज्ञानिक दृष्टि से वर्जित वैर वृत्ति वैयावृत्त्य-परिभाषा वैयावृत्त्य से तीर्थंकर 452 453 454 454 ( अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 259 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमात सक्ति नम्बर सूक्ति शीर्षक 455 व्यवहार बलवान् 456 व्रती-अव्रती की हिंसा में अन्तर 457 459 460 461 462 106 463 128 464 134 162 465 466 186 467 196 468 199 469 203 समान फल किसे ? सर्वत्र अहिंसा सम्यग्दर्शन : दीपस्तम्भ समाधि से दूर सशल्य मृत्यु से भ्रमण सर्वत्र अकेला ही अकेला समय चूकि पुनि का पछताने समता से मुक्ति सहस्र गुणधारक भिक्षु सर्प केंचुलीवत् ममत्त्व-त्याग समत्वदर्शी सर्वश्रेष्ठ मौन सत्य से सिद्धि सत्य सर्वस्व सत्य ही भगवान् सत्य, प्रकाशक सत्य ही सारभूत सत्य, सौम्य-तेजस्वी सत्य-चमत्कार सत्य-प्रभाव सत्यनिष्ठ सत्य पर प्रतिष्ठित सत्य, लंगर सत्यवचन, सत्यं शिवं सुन्दरम् सत्य कैसा है ? 470 204 471 205 472 473 206 207 208 474 475 211 476 212 477 213 478 214 479 215 480 216 481 217 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 260 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमाङ्क सूक्ति नम्बर 482 218 219 483 484 485 2201 222 486 223 487 224 225 488 489 228 490 238 सूक्ति शीर्षक सत्यव्रत-महिमा सत्य, सिद्धि दाता सत्यानुरागी सत्यनिष्ठ वन्दनीय-अर्चनीय सत्यवादी निरापद सत्य-कवच सत्य-अपूर्व महिमा सत्य से बढ़कर नहीं सच्चा निर्ग्रन्थ सम्पत्तिहरण से कर्मबन्ध सकामी-निष्कामी समभाव, धर्म सम्यग्दृष्टि सभी जीव सुख प्रिय सदोष-निर्दोष कब? समभाव समयोचित भाषा सम्यग्द्रष्टि सत्सहवास 491 295 492 493 368 380 385 419 494 495 433 475 497 498 552 499 559 500 569 501 188 502 369 503 370 5004 416 साधु की कसौटी, समता सारभूत धर्म सारभूत ज्ञान साधु गृहीवत् सार-सार को गहीले साधु-असाधु किससे ? साधु-सेवा के फल 505 460 506 507 529 564 508 52 सुव्रती सुखी कौन ? 509 171 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 261 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सक्ति शीर्षक | क्रमाङ्क सूक्ति नम्बर 510 447 511 480 512 491 सुख-मूल, क्षमा सुखी कौन ? सुशिष्य-कुशिष्य परीक्षण सुविनीत शिष्य सुविनीत सुखी 513 495 514 516 515 135 516 302 सूर्य छिपे नहीं, बादल छाये सूर्यास्त सूतक सूत्रार्थ गुरु गम्य 517 518 470 सैन्धव शिष्य 519 17 520 121 521 161 522 164 523 169 524 263 525 271 526 365 527 375 संयम, आत्मरक्षा-कवच सन्तोष, श्रेष्ठ सुख संयम दुष्कर संयम, बालूमोदक संयम-साधना: समुद्र तैरना । संसार, मोक्ष-हेतु संयम पापरोधक संयम से निर्वाण संशय-परिज्ञान संशयात्मा, समाधिस्थ नहीं संयमी-प्रवृत्ति, निर्दोष संयमोपकरण क्यों ? संग्रहवृत्तिः लोभप्रवृत्ति संघ व्यवस्था में व्यवहार बलवान् संकट में धैर्य संगति से गुण-दोष संसार स्रोत में दुःखी कौन ? संपत्ति-विपत्ति भागी 528 381 410 529 407. 530 531 411 532427 533 429 534 451 535 514 536 528 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 262 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमाङ्क 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 सूक्ति नम्बर 595 598 221 353 93 354 415 437 477 588 149 165 379 267 338 484 508 527 318 572 555 साँ श शा शि शी शु सूक्ति शीर्षक संलेखना - प्रशिक्षण संयम में यत्नशील साँच को आँच नहीं स्वयंकृत मकड़ी जाल स्वाध्याय, परमतप स्वकृत व्यथा स्वामी अदत्त, अग्राह्य स्वच्छन्दाचारी स्वदमन श्रेष्ठ स्वजन संवास अनित्य शरीर कैसा ? शत्रु-मित्र में समता शक्ति का सदुपयोग शास्त्र: ज्योति शाश्वत सुखाकांक्षी शिष्य - विनयशीलता शिष्य - विनय शिक्षा - प्राप्ति किसे ? शील सम्पन्न विनीत शीघ्र, सम्भल शुद्धवचन अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 263 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | क्रमाङ्क सूक्ति नम्बर सूक्ति शीर्षक 558 103 559 152 560 561 154 155 158 श्रद्धा से आचरण श्रमणत्व, दुष्कर श्रमणत्व, अग्निपानवत् श्रमणत्व, महान् गुरुतरभार श्रमणत्व, दुष्कर श्रमण, आत्मानुशासी श्रमण-क्रिया क्यों? श्रद्धाशील वीर 562 563 189 564 257 565 388 566 126 श्रावक का स्वरूप 567 229 श्रेष्ठ निर्ग्रन्थ कौन ? श्रेष्ठ क्या ? 568 448 569 244 हास्य में निन्दा प्रिय हास्य-वर्जन 570 245 571 247 572 251 हास्य से मिथ्याभाषा हाथ कंगन को आरसी क्या ? 573 314 574 166 हितकारी सत्य हित-मित प्रिय 575 233 576 ___468 है, वैसा कहो 577 298 578 422 हिंसा, अश्रेयस्कर हिंसा-त्याज्य हिंसा सर्वत्र त्याज्य 579 423 अभिधान गजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 . 264 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमाङ्क सूक्ति नम्बर सूक्ति शीर्षक 580 143 क्षणभर भी आनन्द नहीं क्षमा-सेवन 581 465 .582 99 252 583 584 त्रिविध-क्षमा त्रिविध-मूर्ख त्रिवेणी-सङ्गम विवाद 272 585 438 586 539 त्रुटि स्वीकार, भवपार 589 587 ज्ञानी का सार 588 ज्ञानलीनता ज्ञान-पीयूष में आकण्ठ मग्न 590 ज्ञान में भी निरभिमान 591 ज्ञान बिन चारित्र नहीं 592 ज्ञानयुत आचरण 593 95 ज्ञान-शिक्षण 594 112 ज्ञान, लगाम 595 119 ज्ञान, परममित्र 596 256 ज्ञान-प्रकाश 597 269 ज्ञान, भारभूत 598 270 ज्ञान-क्रिया : अन्धपंगुवत् 599 273 ज्ञान, प्रकाशक 600 327 ज्ञाता-द्रष्टा 601 364 ज्ञान का सार 602 ज्ञानी निर्ममत्व 441 ज्ञान-गरिमा 604 443 ज्ञान से चारित्र 605 444 ज्ञान, प्रकाशक अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 265 417 603 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का सात 498 606 607 ज्ञान से विनम्र ज्ञानी-शरण 592 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 266 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय परिशिष्ट अभिधान राजेन्द्रः पृष्ठ संख्या अनुक्रमणिका भाग-५ Page #276 --------------------------------------------------------------------------  Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधान राजेन्द्रः पृष्ठ संख्या अनुक्रमणिका सूक्ति कम पृष्ठभाग संख्या भाग सूक्ति कम पृष्ठ संख्या 107 107 108 117 117 117 118 118 120 120 121 121 121 122 122 45 15 123 123 124 47 H 124 एवं भाग 7 पृ. 494 में भी है 124 124 126 60 64 127 127 130 130 64 64 130 99 104 104 106 106 107. 130 130 130 130 131 131 131 131 132 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 . 269 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग सूक्ति पृष्ठ भाग सख 149 150 133 133 133 134 134 134 कम 113 114 115 116 117 118 150 135 150 181 एवं पृ. 1460 में भी है 191 191 136 136 136 136 119 120 121 122 101 191 136 123 137 124 137 137 192 193 193 125 126 127 219 137 137 128 137 129 130 137 एवं भाग 7 पृ.1144 में भी है 131 132 133 134 135 243 248 248 251 254 255 274 276 277 278 283 136 139 137 138 139 139 140 141 294 142 294 103 104 139 140 140 141 142 144 148 148 143 144 294 105 106 107 108 148 145 146 147 148 149 150 294 294 294 294 294 294 294 295 109 110 148 149 149 149 111 112 151 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 . 270 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ति 1 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 E सख्या 6 22222 295 295 295 295 295 295 295 295 295 295 295 295 295 295 295 295 295 295 295 296 296 297 297 297 297 299 299-1174 300 300 300 300 300 300 300 301 सूक्ति 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 8 FREAT 6 301 301 301 309 309 एवं भाग 7 पृ. 737 में भी है 309 एवं भाग 7 पृ. 737 में भी है 309 310 311 316 318 326 326 327 327 327 327 327 327 327 327 327 327 327 327 327 327 327 327 327 327 327 327 328 328-330 328 • 328 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6• 271 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ति GRA 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 पृष्ठ G 1981 सूक्ति 71 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 98 PROH 443 444 444 444 444 445 448 330 330 330 330 330 330 331 331 331 331 331 331 331 331 331 331 331 331 287 331 288 331 289 331 290 331 291 331 292 337 293 337 294 340 295 340 296 355 297 360 298 426 299 426 300 427 301 431 302 438 303 439 304 442 305 442 306 442 307 443 308 443 309 443 310 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 272 448 448 448 448 448 456 457 457 457 457 457 458 459 459 भाग 459 463 463 463 463 463 496 496 498 510 510 510 510 510 510 510 510 510 579 594 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भार पति पाय कम 352 734 311 312 संख्या 695 697 697 697 735 735 313 353 354 355 356 357 714 358 359 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 360 361 362 363 735 736 736 736 736 736 740 740 740 741 741 741 741 741 741 741 742 742 715 721 722-1181 723 724 725 727 727 727 727 727 727 727 728 729 729 364 365 366 367 327 328 329 330 331 368 369 370 371 372 332 729 373 742 333 729 742 334 731 335 731-741 374 375 376 377 378 379 336 731 731 337 338 731 731 742 743 743 743 744 744 745 747 747 339 380 340 731 381 382 341 342 343 383 747 384 385 344 731 731 731 732 733 733 733 733 386 345 346 747 747 747 748 347 348 748 387 388 389 390 391 392 349 733 350 351 733 734 748 748 748 ( अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 . 273 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ति 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 98 HET H सूक्ति CRU B PROST 749 434 755 435 758 436 759 437 759 438 770 439 806-807 440 806 441 806 442 870 443 871 444 871 445 872 446 873 447 874 448 887 449 887 450 887 451 887 452 887 453 887 454 887 455 887 456 887 457 887 458 887 459 888 460 888 461 888 462 888 463 888 464 891 465 906 466 934 467 934 468 935 469 959 470 959 471 959 472 971 473 973 474 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस खण्ड-6 274 974 1061 1061 1062 1081 1088 1093 1094 1094 1094 1094 1144 1144 1144 1144 1144 1144 1144 1148 1154 1158 1158 1158 1158 1159 1159 1159 1159 1159 1160 1160 1160 1160 1160 1160 1160 1160 1160 1160 1161 1161 N Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 475 516 476 517 477 478 479 480 518 519 520 521 522 523 524 481 482 483 525 484 485 486 487 526 527 528 529 530 ANO 531 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 1161 1161 1162 1162 1162 1162 1163 1163 1163 1163 1164 1164 1164 1164 1165 1165 1165 1165 1166 1166 1166 1166 1166 1167 1167 1168 1168-1169 1168 1168 1169 1169 1169 1169 1169 1169 1169 1170 1170 1171 1171 1171 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 पठमाण संख्या 1171 1172 1173 1173 1173 1173 1173 1173 1173 1173 1173 1173 1173 1174 1174 1174 1174 1174 1174 1174 1175 1176 1177 1177 1177 1178 1178 1178 1179 1179 1179 1179 . 1180 1180 1180 1180 1180 1180 1180 1180 1180 545 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 . 275 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ति पा मारा कम 557 558 585 559 560 586 561 587 589 590 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 591 592 593 सखा 1181 1181 1181 1181 1181 1181 1182 1191 1208 1208 1247 1247 1248 1248 1248 1248 1248 1248 1249 1256 1256 1257 1257 1336 1391 1394 594 595 596 597 598 1394 1394 1404 1404 1405 1405 1405 1405 1405 1406 1406 1406 1406 1406 1407 1407 1407 1407 1407 1408 1419 1451 1451 1460 1624 574 575 599 600 601 576 577 578 579 580 604 605 606 581 607 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 276 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिशिष्ट जैन एवं जैनेतर ग्रन्थः अध्ययन/गाथा/श्लोकादि अनुक्रमणिका Page #286 --------------------------------------------------------------------------  Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 353 354 355 401 282 377 क्रमांक सूक्ति क्रम अ./उ./गाथादि क्रमांक सूक्ति क्रम अ./उ./गाथादि (अन्ययोगव्यवच्छेदनानिशिका सटीका 1/2/6/96 1/2/6/96 1 124 सटीक 1/2/6/96 125 सटीक 356 1/2/6/97 (आचाराम सत्र 359 1/2/6/97 357 1/2/6/98 400 1/1/5/41 358 1/2/6/98 1/1/5/41 360 1/2/6/98 399 1/1/5/45 197 1/2/6/99 435 1/1/7/56 57 1/4/3/436 1/1/7/56 368 1/5/1/141 437 1/1/7/62 1/5/1/142 378 1/2/1/68 375 1/5/1/143 322 1/2/2/70 374 1/5/1/144 323 1/2/2/70 376 1/5/1/146 326 1/2/2/73 1/5/1/146 328 1/2/2/73 335 1/5/1/148 14 324 1/2/2/74 366 1/5/1/148 15325 1/2/2/74 372 1/5/1/148 16 . 327 1/2/2/75 373 1/5/1/149 17 329 1/2/2/76 371 1/5/1/150 1/2/3/75 379 1/5/3/151 1/2/3/76 380 1/5/3/151 332 1/2/3/77 195 1/5/3/155 333 1/2/3/77 196 1/5/3/155 334 1/2/3/78 381 1/5/5/161 337 1/2/3/78 386 1/5/5/164 336 1/2/3/79 382 1/5/5/169 339 1/2/3/79 384 1/5/5/169 340 1/2/3/79 385 1/5/5/169 342 1/2/3/79 387 1/5/5/170 343 1/2/3/79 390 1/5/6/338 1/2/3/80 391 1/5/6/168 341 1/2/3/80 392 1/5/6/170 344 1/2/3/81 388 1/5/6/173 345 1/2/5/92 389 1/5/6/174 347 1/2/5/92 393 1/5/6/176 348 1/2/5/92 1/8/1/202 349 1/2/5/92 1/8/1/202 346 1/2/5/93 1/8/1/203 350 1/2/5/93 60 1/8/3/210 351 1/2/5/93 1/8/6/222 352 1/2/5/94 18331 330 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 . 279 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88885 69 73 76 75 125 266 क्रमांक सूक्ति क्रम अ./उ./गाथादि क्रमांक सूक्ति क्रम अ./उ./गाथादि 1/8/6/222 | 118 227 34 पृ. 1/8/8/17 1/8/8/17 119 228 34 पृ. 1/8/8/18 आवश्यक-कथा 66 1/8/8/18 120 563 1/1 1/8/8/19 आवश्यक सूत्र 64 1/8/8/19 1/8/8/19 | 121 3 4 1/8/8/20 122 128 1/836 1/8/8/20 आवश्यक बात 1/8/8/23 1393 1/8/8/26 74 1/8/8/29 आवश्यक नियक्ति 1/8/8/36 124 264 1/97 1/8/8/38 265 1/98 77 1/8/8/38 126 1/98 98 79 1/8/8/39 127 267 1/09 99 78 1/8/8/40 128 269 1/100 100 80 1/8/8/40 129 268 1/101 101 429 2/3/1/ 270 1/101 102 238 2/3/1/ 131 271 1/103 103 2/3/15/2 132 272 1/103 104 232 2/3/15/3 1/103 105 2/3/15/781 274 1/103 106 2/3/15/781 275 1/104 107 237 2/3/15/781 136 129 1/840 108 248 2/3/15/781 137 123 9/8 109 249 2/3/15/781 138 364 245/132 2/3/15/781 (आवश्यक नियुक्ति भाष्य) 111 251 2/3/15/781 139 426 1/123 (आचासंग नियुक्ति 140 427 1/123 112 321 18667 पृ. (आतुर प्रत्याख्यान 113. 365 245,132 पृ. 141 10464 114 369 245/132 पृ. उतराध्ययन सत्र) 115 370 245 132 पृ. 142 454 1/2 (आचाराम सटीक 1/3 116 35 1/2/1 145 457 1/4 (आगमीय सूक्तावली 146 458 117_225 34 पृ. 147 459 1/6 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 280 229 273 231 234 110 250 456 1/4 388888888888888888888 1/5 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 195 154 197 199 54 161 क्रमांक सूक्ति क्रम अ./उ./गाथादि 148 462 1/7 149460 1/8 150 461 1/8 151463 1/9 152 464 1/9 153 465 1/9 466 1/10 155 471 1/10 156 472 1/10 157 467 1/11 158 ___468 1/11 159 469 1/12 160 470 1/12 473 1/14 162 474 1/14 163 475 1/14 164476 1/14 165 478 1/15 166 , 479 1/15 167 480 1/15 168477 1/16 169 . 484 1/18 170 481 1/20 171 482 1/21 172 483 1/22 173 486 1/27 174 485 1/28 175 1/28 176 487 1/29 177 489 1/37 178 490 1/37 179 491 1/38 180 492 1/39 181 493 . 1/40 182 494 1/40 183 495 1/41 184 1/42 185 497 1/43 186 499 1/44 187 1/45 5/1 5/3 क्रमांक सूक्ति क्रम अ./उ./गाथादि 190 44 5/3 191 45 5/5 192 46 5/7 193 ___47 5/14-15 194 5/16 5/20 5/20 5/21 198 53 5/22 5/24 200 55 5/29 5/30 202 145 19/12 203 149 19/12 204 141 19/12 205 142 19/12 206 150 19/13 207 143 19/14 208 146 19/15 209 148 19/15 210 140 19/16 211 147 19/17 212 144 19/18 213 175 19/20 214 171 19/21 215 174 19/22 160 19/22-23-24 217 . 158 19/25 218 162 19/25 219 165 19/26 157 19/26 221 166 19/27 167 19/27 223 156 19/28 224 173 19/29 225 163 19/30 151 19/31 227 168 19/33 169 19/36 229 155 19/37 230 170 19/37 1 164 19/38 216 222 496 228 498 188 189 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 . 281 Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक सूक्ति क्रम अ. /उ. / गाथादि 232 172 19/38 233 159 19/39 234 154 19/40 235 161 19/41 236 152 19/42 237 153 19/43 238 177 19/44 239 176 19/46 240 178 19/58 241 179 19/63 242 180 19/73 243 181 19/74 244 182 245 183 246 186 247 184 248 249 185 នឹកកក 250 188 251 189 252 190 253 194 254 191 255 192 256 259 260 ង ធ ឌ ឌ ឌ 3 3 5 6 8 ន ន ន ន ន ន ឌីន ឌន គឺ 1 85 ន គន់ ឌ គឺ 257 298 187 258 297 261 264 ឌឌភឌននននន 193 19/99 19/99 22/19 22/26 22/46 28/2 28/35 28/35 279 28/35 281 28/35 28/36 29/10 29/19 29/43 29/45 29/47 29/49 29/53 29/53 299 262 278 280 265 277 266 398 267 439 606 268 269 580 270 202 271 34 272 273 19/77 19/84 19/86 19/90 30 19/91 19/92 19/92 19/93 19/93 19/98 19/99 क्रमांक सूक्ति क्रम अ. /उ. / गाथादि 274 396 29/54 275 397 29/54 276 132 29/69 277 394 29/70 उत्तराध्ययन सटीक 32 उपदेश प्रासाद 278 279 280 281 282 283 253 577 302 1 उपासक दशा सूत्र 29 1/76 ओघनियक्ति सूत्र 53 ओघनिर्युक्तिभाष्य 263 607 290 (कल्पसुबोधिका सटीक 284 314 285 311 1/5 2 दशाभूतस्कल्प सूत्र 9/12 9/15 9/25 9/26 9/37 (दशवकालिक सूत्र 286 292 287 295 288 293 289 294 290 296 291 131 292 420 293 422 294 423 295 419 296 421 297 409 298 413 299 412 300 414 301 415 302 259 5/2/49 6/9 6/10 6/10 6/11 6/11 6/11 6/12 6/13 6/13 6/14 6/15 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 282 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 347 348 8/2 314 2/9 36 क्रमांक सूक्ति क्रम अ./उ. गाथादि 303 260 6/16 304 408 6:17 305 411 6/18 306 416 6/19 307 410 6/20 308 418 6/21 309417 6/22 310 303 6/23 311 308 6/26 312 430 8/2 313 431 300 8/28 315 8/30 316 37 8/30 317 500 9/1/1 318 502 9/1/2 319 507 9/1/5 320 503 9/1/6 321. 501 9/1/7 322 510 9/1/7 33 504 9/1/8 324. 505 9/1/9 325 506 9/1/10 326 9/1/11 327 509 9/1/12 328 511 9/2/2 329 512 9/2/2 514 9/2/3 331 515 9/2/4 332 513 9/2/10 333 516 9/2/11 334 517 9/2/12 335 527 9/2/22 336 528. 9/2/22 337 518 9/2/23 338 522 9/3/1 339 523 9/3/1 525 9/3/2 341 9/3/3 342 520 9/3/4 343 526 9/3/5 344 524 9/3/6 345 519 9/3/7 क्रमांक सूक्ति क्रम अ./उ./गाथादि 346 535 9.3/8 534 9/3/9 529 9/3/11 349 530 9/3/11 350 533 9/3/11 351 532 9/3/12 352 531 9/3/14 दशवकालिक चालका 353 567 2/2 354 569 2/2 355 568 2/3 356 570 357 574 2/12 358 571 2/13 359 572 2/14 360 573 2/15 (दशवकालिक नियुक्ति 361 424 290 362 395 291 363 453 322 राविशतवात्रिशिका सटीक 364 262 13/6 365 536 29/5 366 537 29/17 367 201 31/18 ongenose 508 203 226 369 204. 2/59 पृ. 370 301 2/73 371 365 2/83 372 126 2/121 धर्मसंग्रह सटीक 373428 428 2 521 374564 375 290 376 291 2/75 2/76 ( अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 . 283 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1/3 क्रमांक सूक्ति क्रम अ./उ./गाथादि । (धर्मरन प्रकरण 377 560 1 378 562 1/4 379 318 1/8 380 445 381 446 1/3 382 448 1/3 383 449 1/3 (धर्मरलप्रकरण सटीक) 384 566 1/6/14 लगभरण) 385 1386 " 413 U idacod29 219 निशीथ चाण 416 | क्रमांक सूक्ति क्रम अ./उ./गाथादि 402 206 2/7/24 403 207 2/7/24 208 2/7/24 209 2/7/24 210 2/7/24 211 2/7/24 212 2/7/24 213 2/7/24 214 2/7/24 215 2/7/24 412 216 2/7/24 217 2/7/24 414 218 2/7/24 415 2/7/24 220 2/7/24 417 221 2/7/24 418 222 2/7/24 223 2/7/24 224 2/7/24 2/7/24 230 2/7/25 2/7/25 235 2/7/25 425 236 2/7/25 426 2/7/25 2/7/25 241 2/7/25 242 2/7/25 430 243 2/7/25 244 2/7/25 245 2/7/25 246 2/17/25 34 247 2/7/25 419 420 388 156 491 226 2 386 255 91 387 25492 (निशीथ भाष्य 225 389 257 264 390 363 391 432 5252 392 433 5284 393 434 5291 410 6227 (नौति द्विषष्टिका) 395 312 29 258 233 239 240 +28 04806650-6000- Mohading 45067 397 45167 3 3593 1169 Sax2583838885993583800MARRIAssam 398 13577 (पातजल योगदान (बहावश्यक सय 399 118 2/35 436 402 3926 (प्रशमरति प्रकरण 437 404 3938 438 405 3939 400 310 156 439 406 3948 440 407 3951 401 205 2/7/24 441403 3963 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 284 Trong Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक सूक्ति कम अ. /उ. / गाथादि भगवती सूत्र 442 315 443 602 444 603 445 446 450 1/8/9 5/8/10 भगवद गीता 383 136 447 578 448 579 449 103 451 1/6/25[1] UNIQITCH 55 57 106 महाभारत- उद्योग पर्व 289 33/33 (महाभारत आदि पर्व 576 65/50 ( मरण समाधि प्रकीर्णक 2/20 3/6 51 98 102 103 105 क्रमांक सूक्ति क्रम अ. /उ. / गाथादि 475 107 584 476 106 586 477 109 589 478 111 614 479 112 623 480 110 632 481 114 641 482 645 483 646 484 655 485 703 (मनुस्पति 2/145 5/53 5/55 8/16 11/54 111-112 121-122 486 487 488 489 490 491 452 81 453 83 454 82 455 86 456 85 457 84 458 94 459 90 134 460 89 137 461 87 138 462 88 138 463 95 139 464 97 139 465 91 144 466 92 147 467 96 189 468 98 198 469 100 205 470 99 214 471 101 243 472 102 250 473 105 405 474 108 583 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 285 492 493 494 495 496 116 115 117 113 497 498 130 5 4 32 575 यशस्तिलक चंपू 313 1/35 योगदृष्टि समुन्वय 137 133 307 305 304 विशेषावश्यक भाष्य 1 2 499 425 500 605 23 PRVIC 2/3 3/56 3/60 3/67 501 442 502 444 503 441 504 443 22 24 व्यवहार २६ 10/3 10/37 7/215 7/216 7/217 7/316 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक सूक्ति क्रम अ./उ./गाथादि 505 506 319 507 1 546 508 509 510 511 512 513 514 553 । क्रमांक सूक्ति क्रम अ./उ./गाथादि 545 539 1/14/7 546 541 1/14/9 547 542 1/14/9 548 543 1/14/13 549 544 1/14/19 545 1/14/19 1/14/19 547 1/14/19 550 1/14/21 551 1/14/21 1/14/21 549 1/14/22 557 552 1/14/22 558 548 1/14/23 1/14/23 1/14/24 1/14/24 558 1/14/25 559 1/14/25 1/14/26 1/14/26 566 127 2/2/25 संघासपोरिसी सब 567 286_ 11 515 516 517 591 ___587 589 520 588 592 518 519 555 556 R सकता 1/1/4/6 1/1/4/12 1/2/2/2 1/2/2/2 1/2/2/2 1/6/4 1/6/23 1/6/23 1/6/23 1/8/3 1/8/6 1/8/7 1/8/7 1/8/8 1/8/11 1/8/12 1/8/13 1/8/13 1/8/15 1/8/15 1/8/16 1/8/24 1/8/25 1/8/25 1/8/25 1/8/26 1/11/10 1/11/11 1/11/12 1/11/12 1/11/22 1/11/22 1/11/23 1/11/24 1/11/25 1/11/28 1/11/32 1/11/37 1/14/6 1/14/6 361 165288000000000000001poor 528 529 595 525 596 599 527 597 598 600 601 531 10 532 9 533 7 534 8 535 13 536 14 537 11 538 15 539 12 540 16 541 17 ___18 530 568 134 2 569 447 (स्कन्दपुराण-कपालमोचन स्तोत्र) 570 306 1 स्थानाम सघ) 571 261 1/1/7 572 41 1/1/26 573 252 3/4/203 574 33 4/4/4/373 9/9/667 576 316 10/10/704 स्थानाग टीका 577604 5/1 ___538 544 540 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 286 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक सूक्ति क्रम अ./उ./गाथादि क्रमांक सूक्ति क्रम अ./उ./गाथादि स्थानाग सटीक 578 4525/3 10 20 21 22 5796_209 पृ. हारिमदीयाष्टक 580 438 12/1 581 25 19/1 8080948888888 2/1 2/2 2/4 2/6 2/7 2/8 4/1 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 24 283 4/2 285 4/3 4/4 26 26 287 288 4/6 582 583 584 585 119 120 121 122 26 26 599 198 199 200 27 26 586 317 1/12 600 601 602 603 604 605 28 13/1 13/7 13/8 16/2 16/3 16/7 23/2 23/3 23/5 23/8 361 363 362 367 606 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 287 Page #296 --------------------------------------------------------------------------  Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम परिशिष्ट 'सूक्ति-सुधारस' में प्रयुक्त संदर्भ-ग्रंथ सूची Page #298 --------------------------------------------------------------------------  Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम परिशिष्ट १. अन्ययोग व्यवच्छेद द्वात्रिंशिका सटीक २. आचारांग सूत्र ३. आचारांग नियुक्ति ४. आगमीय सूक्तावली ५. आतुर प्रत्याख्यान ६. आवश्यक कथा ७. आवश्यक सूत्र ८. आवश्यक नियुक्ति ९. आवश्यक नियुक्तिभाष्य १०. आवश्यक बृहवृत्ति ११. उपासकदशांग सूत्र १२. उत्तराध्ययन सूत्र १३. उत्तराध्ययन सटीक १४. उपदेश प्रासाद १५. ओघनियुक्ति १६. ओघनियुक्ति भाष्य १७. कल्पसुबोधिका सटीक १८. दशाश्रुतस्कन्ध १९. दशवैकालिक सूत्र २०. दशवैकालिक चूलिका २१. दशवैकालिक नियुक्ति २२. द्वात्रिंशद् द्वात्रिशिका २३. धर्मसंग्रह २४. धर्मसंग्रह सटीक २५. धर्मबिन्दु २६. धर्मरत्न प्रकरण २७. धर्मरत्न प्रकरण सटीक २८. नराभरण २९. नन्दीसूत्र ३०. निशीथ चूर्णि ३१. निशीथ भाष्य ( अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-60 291 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. नीतिशतक. ३३. नीति द्विषष्टिका ३४. पातञ्जल योगदर्शन ३५. प्रश्नव्याकरण सूत्र ३६. प्रशमरति प्रकरण ३७. बृहत्कल्प भाष्य ... ३८... भगवती सूत्र ... ... .... ३९. भगवद्गीता ४०. महाप्रत्याख्यान ४१. महाभारत-उद्योगपर्व ४२. महाभारत-आदिपर्व ४३. मरणसमाधि प्रकीर्णक ४४. मनुस्मृति ४५. यशस्तिलक चम्पू ४६. योगदृष्टि समुच्चय - ४७. योगशास्त्र ४८. व्यवहारसूत्र ४९. व्यवहार भाष्य ५०. सूत्रकृतांग सूत्र ५१. संथारापोरिसी सूत्र ५२. सम्बोध सत्तरि ५३. स्कन्दपुराण-कपालमोचन-स्तोत्र ५४. स्थानांग सूत्र ५५. स्याद्वादमंजरी ५६. श्राद्धविधि ५७. हारिभद्रीयाष्टक ५८. हारिभद्रीय टीका ५९. ज्ञाताधर्मकथासूत्र ६०. ज्ञानसार अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 292 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मी विश्वपूज्य प्रणीत | सम्पूर्ण वाङ्मय 984988 Page #302 --------------------------------------------------------------------------  Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वपूज्य प्रणीत सम्पूर्ण वाङ्मय अभिधान राजेन्द्र कोष [1 से 7 भाग] अमरकोष (मूल) अघट कुँवर चौपाई अष्टाध्यायी अष्टाह्निका व्याख्यान भाषान्तर अक्षय तृतीया कथा (संस्कृत) आवश्यक सूत्रावचूरी टब्बार्थ उत्तमकुमारोपंन्यास (संस्कृत) उपदेश रत्नसार गद्य (संस्कृत) उपदेशमाला (भाषोपदेश) उपधानविधि उपयोगी चौवीस प्रकरण (बोल) उपासकदशाङ्गसूत्र भाषान्तर (बालावबोध) एक सौ आठ बोल का थोकडा कथासंग्रह पञ्चाख्यानसार कमलप्रभा शुद्ध रहस्य कर्तुरीप्सिततमं कर्म (श्लोक व्याख', करणकाम धेनुसारिणी कल्पसूत्र बालावबोध (सविस्तर) कल्पसूत्रार्थ प्रबोधिनी कल्याणमन्दिर स्तोत्रवृत्ति (त्रिपाठ) कल्याण (मन्दिर) स्तोत्र प्रक्रिया टीका काव्यप्रकाशमूल कुवलयानन्दकारिका केसरिया स्तवन खापरिया तस्कर प्रबन्ध (पद्य) गच्छाचार पयन्नावृत्ति भाषान्तर गतिषष्ठया - सारिणी अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 . 295 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रहलाघव चार (चतुः) कर्मग्रन्थ - अक्षरार्थ चन्द्रिका - धातुपाठ तरंग (पद्य) चन्द्रिका व्याकरण (2 वृत्ति) चैत्यवन्दन चौवीसी चौमासी देववन्दन विधि चौवीस जिनस्तुति चौवीस स्तवन ज्येष्ठस्थित्यादेशपट्टकम् जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति बीजक (सूची) जिनोपदेश मंजरी तत्त्वविवेक तर्कसंग्रह फक्किका तेरहपंथी प्रश्नोत्तर विचार द्वाषष्टिमार्गणा - यन्त्रावली दशाश्रुतस्कन्ध सूत्रचूर्णी दीपावली (दिवाली) कल्पसार (गद्य) दीपमालिका देववन्दन दीपमालिका कथा (गद्य) देववंदनमाला घनसार - अघटकुमार चौपाई ध्रष्टर चौपाई धातुपाठ श्लोकबद्ध धातुतरंग (पद्य) नवपद ओली देववंदन विधि नवपद पूजा नवपद पूजा तथा प्रश्नोत्तर नीतिशिक्षा द्वय पच्चीसी पंचसप्तति शतस्थान चतुष्पदी पंचाख्यान कथासार पञ्चकल्याणक पूजा अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 296 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमी देववन्दन विधि पर्दूषणाष्टाह्निका - व्याख्यान भाषान्तर पाइय सद्दम्बुही कोश (प्राकृत) पुण्डरीकाध्ययन सज्झाय प्रक्रिया कौमुदी प्रभुस्तवन - सुधाकर प्रमाणनय तत्त्वालोकालंकार प्रश्नोत्तर पुष्पवाटिका प्रश्नोत्तर मालिका प्रज्ञापनोपाङ्गसूत्र सटीक (त्रिपाठ) प्राकृत व्याकरण विवृत्ति प्राकृत व्याकरण (व्याकृति) टीका प्राकृत शब्द रूपावली बारेव्रत संक्षिप्त टीप बृहत्संग्रहणीय सूत्र चित्र (टब्बार्थ) भक्तामर स्तोत्र टीका (पंचपाठ) भक्तामर (सान्वय - टब्बार्थ) भयहरण स्तोत्र वृत्ति भर्तरीशतकत्रय महावीर पंचकल्याणक पूजा महानिशीथ सूत्र मूल (पंचमाध्ययन) मर्यादापट्टक मुनिपति (राजर्षि) चौपाई रसमञ्जरी काव्य राजेन्द्र सूर्योदय लघु संघयणी (मूल) ललित विस्तरा वर्णमाला (पाँच कक्का) वाक्य-प्रकाश बासठ मार्गणा विचार विचार - प्रकरण अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-60 297 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विहरमाण जिन चतुष्पदी स्तुति प्रभाकर स्वरोदयज्ञान - यंत्रावली सकलैश्वर्य स्तोत्र सटीक सद्य गाहापयरण (सूक्ति-संग्रह) सप्ततिशत स्थान - यंत्र सर्वसंग्रह प्रकरण (प्राकृत गाथा बद्ध) साधु वैराग्याचार सज्झाय सारस्वत व्याकरण (3 वृत्ति) भाषा टीका सारस्वत व्याकरण स्तुबुकार्थ ( 1 वृत्ति) सिद्धचक्र पूजा सिद्धाचल नव्वाणुं यात्रा देववंदन विधि सिद्धान्त प्रकाश (खण्डनात्मक) सिद्धान्तसार सागर (बोल -संग्रह) सिद्धम प्राकृत टीका सिंदूरकर सटीक सेनप्रश्न बीजक शंकोद्धार प्रशस्ति व्याख्या षड् द्रव्य विचार षड्द्रव्य चर्चा षडावश्यक अक्षरार्थ शब्दकौमुदी (श्लोक) 'शब्दाम्बुधि' कोश शांतिनाथ स्तवन हीर प्रश्नोत्तर बीजक हेमलघुप्रक्रिया ( व्यंजन संधि) होलिका प्रबन्ध (गद्य) होलिका व्याख्यान त्रैलोक्य दीपिका - यंत्रावली । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 298 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखिकाद्वय की महत्त्वपूर्ण कृतियाँ Page #308 --------------------------------------------------------------------------  Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखिकाद्वय की महत्त्वपूर्ण कृतियाँ आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन (शोध प्रबन्ध) लेखिका : डॉ. प्रियदर्शनाश्री, एम. ए. पीएच.डी. आनन्दघन का रहस्यवाद (शोध प्रबन्ध) लेखिका : डॉ. सुदर्शना श्री, एम. ए., पीएच.डी. अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस (प्रथम खण्ड) अभिधान राजेन्द्रकोष में, सूक्ति सुधारस (द्वितीय खण्ड) अभिधान राजेन्द्रकोष में, सूक्ति-सुधारस (तृतीय खण्ड) ५. ६. अभिधान राजेन्द्रकोष में, सूक्ति-सुधारस (चतुर्थ खण्ड). ७. १. २. ३. ४. ८. अभिधान राजेन्द्रकोष में, सूक्ति-सुधारस (पंचम खण्ड) अभिधान राजेन्द्रकोष में, सूक्ति-सुधारस (षष्ठम खण्ड) ९. अभिधान राजेन्द्रकोष में, सूक्ति-सुधारस ( सप्तम खण्ड) १०. 'विश्वपूज्य' : (श्रीमद्राजेन्द्रसूरि : जीवन-सौरभ ) (अष्टम खण्ड) ११. अभिधान राजेन्द्र कोष में, जैनदर्शन वाटिका ( नवम खण्ड) १२. अभिधान राजेन्द्र कोष में, कथा-कुसुम (दशम खण्ड) १३. राजेन्द्र सूक्ति नवनीत (एकादशम खण्ड) १४. जिन खोजा तिन पाइयाँ (प्रथम महापुष्प) १५. जीवन की मुस्कान (द्वितीय महापुष्प) १६. सुगन्धित - सुमन (FRAGRANT-FLOWERS) (तृतीय महापुष्प) प्राप्ति स्थान : श्री मदनराजजी जैन द्वारा शा. देवीचन्दजी छगनलालजी - आधुनिक वस्त्र विक्रेता, सदर बाजार, पो. भीनमाल- ३४३०२९ जिला - जालोर (राजस्थान) (02969) 20132 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड- 6 • 301 Page #310 --------------------------------------------------------------------------  Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजेन्द्र कोष ७ 'अभिधान राजेन्द्र कोष' : एक झलक विश्वपूज्य ने इस बृहत्कोष की रचना ई. सन् 1890 सियाणा (राज.) में प्रारम्भ की तथा 14 वर्षों के अनवरत परिश्रम से ई. सन् 1903 में इसे सम्पूर्ण किया। इस विश्वकोष में अर्धमागधी, प्राकृत और संस्कृत के कुल 60 हजार शब्दों की व्याख्याएँ हैं। इसमें साढे चार लाख श्लोक हैं। इस कोष का वैशिष्ट्य यह है कि इसमें शब्दों का निरुपण अत्यन्त सरस शैली में किया गया हैं । यह विद्वानों के लिए अविरलकोष है, साहित्यकारों के लिए यह रसात्मक है, अलंकार, छन्द एवं शब्द-विभूति से कविगण मंत्रमुग्धहो जाते हैं। जन-साधारण के लिए भी यह इसी प्रकार सुलभ है, जैसे-रवि सबको अपना प्रकाश बिना भेदभाव के देता है। यह वासन्ती वायु के समान समस्त जगत् को सुवासित करता है। यही कारण है कि यह कोष भारत के ही नहीं, अपितु समस्त विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों में उपलब्ध है। विश्वपूज्य की यह महान् अमरकृति हमारे लिए ही नहीं, वरन् विश्व के लिए वन्दनीय, पूजनीय और अभिनन्दनीय बन गई है। यह चिरमधुर और नित नवीन है। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वपूज्य श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी गुरु मन्दिर (भीनमाल) विश्वपूज्य गुरुदेवश्री द्वारा प्रदत्त अभिधान राजेन्द्र कोष : अलौकिक चिन्तन स14412 अविकारी बनो, विकारी नहीं ! भिक्षुक (श्रमण) बनो, भिखारी नहीं ! धार्मिक बनो, अधार्मिक नहीं ! नम्र बनो, अकूड़ नहीं ! राम बनो, राक्षस नहीं! जेताविजेता बनो, पराजित नहीं ! न्यायी बनो, अन्यायी नहीं ! द्रष्टा बनो, दृष्टिरागी नहीं ! कोमल बनो, क्रूर नहीं ! षट्काय रक्षक बनो, भक्षक नहीं !