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169. संयम - साधना, समुद्र तैरना
बाहाहिं सागरो चेव तरियव्वो गुणोयहि ।
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उत्तराध्ययन 19/36
ज्ञानादि गुणों के सागर-संयम को पार पाने का कार्य भुजाओं से
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 295]
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समुद्र तैरने जैसा दुष्कर है। 170. तपाचरण, असिधारावत् असिधारागमणं चेव, दुक्करं चरिडं तवो ।
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उत्तराध्ययन 19 /37
तपाचरण करना तलवार की धार पर चलने जैसा दुष्कर है । 171. सुखी कौन ?
अद्धाणं जो महंतं तु, सपाओ पवज्जई । गच्छन्तो सो सही होइ, छुआ-तण्हा विवज्जिओ । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 295]
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 295]
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उत्तराध्ययन 19 /21
जो पथिक लम्बी यात्रा के पथपर अपने साथ पाथेय लेकर चलता है; वह आगे जाता हुआ भूख और प्यास से किञ्चित् भी पीड़ित न होकर अत्यन्त सुखी होता है ।
172. चारित्र दुष्कर
अहीवेगन्त दिट्ठिए, चरिते पुत्त ! दुच्चरे ।
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 295]
उत्तराध्ययन 1938
जैसे - सर्प एकान्त दृष्टि से चलता है, वैसे ही एकान्त दृष्टि से चारित्र धर्म का पालन करना बहुत ही कठिन कार्य है ।
173. ब्रह्मचर्य दुष्करतम
उग्गं महव्वयं बंभं धारेयव्वं सुदुक्करं ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड- 6 • 99