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345. देह-अशुचिता अंतो अंतो पूडू देहंतराणि पासति पूढो वि संवताई ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 733]
- आचारांग 1215 मनुष्य इस शरीर के भीतर से भीतर अशुचिता देखता है और शरीर से झरते हुए अलग-अलग अशुचि स्रोतों (अन्तरों) को भी देखता है । पण्डित इसका चिन्तन करें। 346. वीर-प्रशस्ति एस वीरे पसंसिए, जे बद्धे पडिमोयए ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 733] - - आचारांग 12/503
वह वीर प्रशंसा पात्र होता है जो स्वयं को तथा दूसरों को बंधन मुक्त करवाता है। 347. काम, दुर्लंघ्य कामा दुरतिक्कमा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 733]
- आचारांग 12/5/92 कामनाओं का पार पाना बड़ा कठिन है । 348. प्रतिकार जीवियं दुप्पडिबूहगं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 733]
- आचारांग 12/5/02 नष्ट होते जीवन का कोई प्रतिकार नहीं है । 349. काम की मृगतृष्णा
काम कामी खलु अयं पुरिसे, से सोयइ जुरइ तिप्पइ परितप्पइ ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 142