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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 733]
- आचारांग 12/502 जो पुरुष काम भोग की कामना रखता है किन्तु वह तृप्त नहीं हो सकती, इसलिए वह शोक करता है, शरीर से सूख जाता है, आँसू बहाता है; पीड़ा और पश्चात्ताप से दु:खी होता रहता है । 350. बाहर भीतर असार
जहा अंतो तहा बाहि, जहा बाहिं तहा अंतो।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 733]
- आचारांग 1/2/543 यह शरीर जैसा अन्दरमें असार है, वैसा ही बाहर में है। जैसा बाहर में असार है, वैसा ही अन्दर में असार है । 351. अजर-अमर मान्यता अमराइय महासट्ठी।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 734]
- आचारांग 12/5 ___भोग और अर्थ में महान् श्रद्धा रखनेवाला व्यक्ति स्वयं को अमर तुल्य मानने लगता है। 352. परित्यक्त काम-भोग : से मइमं परिन्नाय मा य हु लालं पच्चासी ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 734]
- आचारांग 121594 बुद्धिमान साधक लार चाटनेवाला न बने अर्थात् परित्यक्त भोगों की पुन: कामना न करे । 353. स्वयंकृत मकड़ी-जाल
सएण विप्पमाएण पूढोवयं पकुव्वइ, जंसि मे पाणा पव्वहिता । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 143
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