________________
341. अज्ञ साधक वितहं पप्पऽखेयन्ने तम्मि ठाणम्मि चिट्ठइ ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 731]
- आचारांग 1/23/80 ___ अज्ञानी साधक जब कभी असत्य विचारों को सुन लेता है तो वह उन्हीं में उलझ कर रह जाता है । 342. किनारे नहीं अतीरंगमा ए ए नोय तीरं गमित्तए ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 731]
- आचारांग 12/3 इन्द्रिय जन्य काम-भोगों में जो डूबे हुए हैं, वे संसारसागर के तट पर नहीं पहुँच सकते । 343. लक्ष्मी जाने के मार्ग
तंपि से एगया दायाया विभयंति अदत्तहारो वा अवहरंति रायाणो वा से विलुपंति, णस्सति वा से विणस्सति वा से अगार दाहेण वा से डज्झति ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 731]
- आचारांग 123 जीवन में कभी एक समय ऐसा आता है कि परिग्रहासक्त व्यक्ति द्वारा संग्रहित संपत्ति में से दायाद-बेटे-पोते हिस्सा बँट लेते हैं, चोर चुरा लेते हैं, राजा उसे छीन लेते हैं या वह अन्य प्रकार (दुर्व्यसनादि) से नष्टविनष्ट हो जाती है या कभी गृह-दाह आदि से जलकर भस्म हो जाती है । 344. तत्त्वद्रष्टा उद्देसो पासगस्स नऽत्थि ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 732]
- आचारांग 123/81 तत्त्वद्रष्टा को किसी के उपदेश की अपेक्षा नहीं होती है ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 141