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श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1181 ] सूत्रकृतांग 1/14/25
सम्यग्दृष्टि साधक को सत्यदृष्टि का अपलाप नहीं करना चाहिए
560. विनय - सौरभ
विणण णरो गंधेण चंदणं सोमयाइ रयणियरो । महुर रसेण अमयं जणपियत्तं लहइ भुवणे ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1181] धर्मरत्नप्रकरण 1 अधि.
जैसे सुगन्ध के कारण चन्दन, सौम्यता के कारण चन्द्रमा औ मधुरता के कारण अमृत जगत्प्रिय है वैसे ही विनय के कारण मनुष्य समस्त जगत् में सबका प्रिय हो जाता है ।
561. अनुशासित श्रमण
एत्थारभत्ती अणुवीइवायं ।
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1181] सूत्रकृतांग 1/14/26
श्रमण प्रशास्ता गुरु की भक्ति का ध्यान रखता हुआ सोच-विचारक कोई बात कहें ।
562. विनीत सर्वजनप्रिय
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सुविसुद्धसीलजुत्तो, पावड़ कीत्तिं जसं च इहलोए सव्वजणवल्लहो वि य, सुहगड़भागी य परलोए ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1181 ] धर्मरत्नप्रकरण 1 अधि. 4 गुण
विशुद्धशील-सदाचार सम्पन्न विनीत व्यक्ति इस लोक में यश
कीर्ति, मान-सम्मान व प्रतिष्ठा पाता है तथा संसार में सर्ववल्लभ बन जाता है और परलोक में सदगति का भागी बनता है ।
563. देव तुल्य कौन ?
द्वे एव देवते व मातापिता च जीवलोकेऽस्मिन् । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 196