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सुद्धेण जाड कि
गजेन्द्र का
428. धर्म का मूलः व्यवहार-शुद्धि
ववहार सुद्धि धम्मस्स, मूलं सव्वण्णूभासए । ववहारेण तु सुद्धेणं, अत्थसुद्धी तओ भवे ॥ सुद्धेणं चेव अत्थेणं, आहारो होइ सुद्धओ। आहारेणं तु सुद्धेणं, देह सुद्धी जओ भवे ॥ सुद्धेणं चेव देहेणं, धम्म जुग्गो अ जायइ । जं जं कुणइ किच्चं तु, तं तं ते सफलं भवे ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 935]
- धर्मसंग्रह सटीक 2 अधि. सर्वज्ञभाषी तीर्थंकर परमात्मा ने धर्म का मूल व्यवहार-शुद्धि बताया है । चूँकि व्यवहार-शुद्धि से अर्थ-शुद्धि होती है । अर्थ-शुद्धि से आहार-शुद्धि होती हे । आहार-शुद्धि से शरीर-शुद्धि होती है और शरीर-शुद्धि से व्यक्ति धर्मयुक्त होता है और धर्मयुक्त होने पर ऐसे व्यक्तियों द्वारा जो-जो कार्य किए जाते हैं, वे सब सफल होते हैं । 429. संकट में धैर्य ण उच्चावयं मणं णियंछेज्जा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 959]
- आचारांग 230 संकट में मन को ऊँचा-नीचा अर्थात् डांवाडोल नहीं होने देना चाहिए। 430. गृहस्थ-परिचय निषेध
गिहि संथवं न कुज्जा । . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 959]
- दशवकालिक 82 श्रमण को गृहस्थ से परिचय-सम्पर्क नहीं करना चाहिए । 431. तुलसी सङ्गत साधु की
कुज्जा साहूहिं संथवं । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 163