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________________ 'मौनं सर्वार्थ साधनम्' की अभिव्यंजना इसमें मुखरित हुई है । उनके पदों में व्यक्ति की चेतना को झकझोर देने का सामर्थ्य है क्योंकि वे उनकी सहज अनुभूति से निःसृत है । विश्वपूज्य का अंतरंग व्यक्तित्व उनकी काव्य-कृतियों में व्याप्त है । उनके पदों में कबीरसा फक्कड़पन झलकता है । उनका यह पद द्रष्टव्य है - " ग्रन्थ रहित निर्ग्रन्थ कहीजे, फकीर फिकर फकनारा ज्ञानवास में बसे संन्यासी, पंडित पाप निवारा रे सद्गुरु ने बाण मारा, मिथ्या भरम विदारा रे ॥ " 1 विश्वपूज्य का व्यक्तित्व वैराग्य और अध्यात्म के रंग में रंगा था । उनकी आध्यात्मिकता अनुभवजन्य थी । उनकी दृष्टि में आत्मज्ञान ही महत्त्वपूर्ण था । 'परभावों में घूमनेवाला आत्मानन्द की अनुभूति नहीं कर सकता । उनका मत था कि जो पर पदार्थों में रमता है वह सच्चा साधक नहीं है । उनका एक पद द्रष्टव्य है 'आतम ज्ञान रमणता संगी, जाने सब मत जंगी । पर के भाव लहे घट अंतर, देखे पक्ष दुरंगी ॥ सोग संताप रोग सब नासे, अविनासी अविकारी । तेरा मेरा कछु नहीं ताने, भंगे भवभय भारी ॥ अलख अनोपम रूप निज निश्चय, ध्यान हिये बिच धरना । दृष्टि राग तजी निज निश्चय, अनुभव ज्ञानकुं वरना ॥12 उनके पदों में प्रेम की धारा भी अबाधगति से बहती है। उन्होंने शांतिनाथ परमात्मा को प्रियतम का रूपक देकर प्रेम का रहस्योद्घाटन किया है। वे लिखते हैं 'श्री शांतिजी पिउ मोरा, शांतिसुख सिरदार हो । प्रेमे पाम्या प्रीतड़ी, पिउ मोरा प्रीतिनी रीति अपार हो ॥ शांति सलूणी म्हारो, प्रेम नगीनो म्हारो, स्नेह समीनो म्हारो नाहलो । पिउ पल एक प्रीति पमाड हो, प्रीत प्रभु तुम प्रेमनी, पीउ मोरा मुज मन में नहिं माय हो ॥ " 3 1. जिन भक्ति मंजूषा भाग 2 जिन भक्ति मंजूषा भाग 1 - 1 — - 3. जिन भक्ति मंजूषा भाग - 1 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 51
SR No.002321
Book TitleAbhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
PublisherKhubchandbhai Tribhovandas Vora
Publication Year1998
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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