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श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1176] द्वात्रित् द्वात्रिंशिका 29/17
विनय के बिना जिनप्रवचन का उत्कर्ष नहीं होता । क्या बिना जल से सींचे वृक्ष वृद्धि पा सकते हैं ? कदापि नहीं । 538. मनो- विचिकित्सा
कहं कहं वा वितिगिच्छति
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जाना चाहिए ।
सूत्रकृतांग 1/14/6
मुमुक्षु को किसी न किसी तरह मन की विचिकित्सा से पार हो
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श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1177 ]
539 त्रुटि - स्वीकार, भव-पार डहरेण वुड्ढेणणुसासिए उ, राइणिए णावि समव्वएण । सम्मं तयं थिरतो णाभिगच्छे, णिज्जंतए वावि अपारए से ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1177] सूत्रकृतांग 1/14/7
गुरु सान्निध्य में निवास करते हुए किसी साधु से किसी विषय में प्रमादवश भूल हो जा तो अवस्था और दीक्षा में छोटे या बड़े साधु द्वारा अनुशासित-शिक्षित किए जाने पर या भूल सुधारने के लिए प्रेरित किए जाने पर यदि वह उसे सम्यक्तया स्वीकार नहीं करता है, तो वह संसार समुद्र को पार नहीं कर सकता ।
540. निद्रा - प्रमाद-त्याग
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निद्दंच भिक्खू न पमाय कुज्जा ।
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श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 1177] सूत्रकृतांग 1/14/6
श्रमण, निद्रा और प्रमादादि नहीं करे ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 191