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186. सर्प - केंचुलीवत् ममत्त्व - त्याग ममत्तं छिंदइ ताहे, महानागुव्व कंचुयं ।
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उत्तराध्ययन 1986
आत्म-साधक ममत्त्व के बन्धन को वैसे ही तोड़ फैंकता है । जैसे सर्प शरीर पर आई हुई केंचुली को उतार फेंकता है ।
187. मुनि वही
लाभालाभे सुहे - दुक्खे, जीविए मरणे तहा । समो निंदापसंसासु, तहा माणावमाणओ ॥
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श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 300]
जो लाभ - अलाभ, सुख-दु:ख, जीवन-मरण, निंदा - प्रशंसा और मान-अपमान में समभाव रखता है, वही वस्तुतः मुनि है । 188. साधु की कसौटी, समता
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 300]
उत्तराध्ययन 1991
अणिस्सिओ इहलोए, परलोए अणिस्सिओ । वासीचन्दण कप्पो अ, असणे अणसणे तहा ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 300]
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उत्तराध्ययन 1992
साधु इसलोक और परलोक में निरपेक्ष भावसे रहे । वसुले से काटे जाने पर अथवा चन्दन लगाये जाने पर, भोजन मिलने पर या न मिलने पर हर परिस्थिति में वह समभाव से रहे ।
189. श्रमण, आत्मानुशासी
अज्झष्पज्झाण जागेहिं, पसत्थदमसासणे ।
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श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 6 पृ. 300]
उत्तराध्ययन- 19/93
संयमी साधक अध्यात्म तथा ध्यान-योग से आत्मा का दमन एवं अनुशासन करनेवाला होता है ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 103